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सवाल पूछने पर देशद्रोह : वेलकम टू न्यू इंडिया, असिस्टेंट प्रोफेसर मेडुसा पर गिरी गाज

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लखनऊ/ नई दिल्ली 18 अक्टूबर 2025

बेबाक प्रोफ़ेसर पर आपराधिक मुक़दमा – क्या अब असहमति ही नई राष्ट्रविरोधी परिभाषा है?

यह घटना महज़ एक विश्वविद्यालय की प्रोफेसर पर दर्ज हुआ मुक़दमा नहीं है, बल्कि उस ‘न्यू इंडिया’ के तेवर और उसकी बौद्धिक स्वतंत्रता के प्रति संकीर्णता को दर्शाती है, जहाँ सवाल पूछना अब सीधे तौर पर देशद्रोह की ज़द में आ जाता है। लखनऊ विश्वविद्यालय की असिस्टेंट प्रोफेसर माद्री काकोटी, जो सोशल मीडिया पर अपनी बेबाक राय के लिए ‘मेडुसा’ के नाम से मशहूर हैं, पर लगाया गया यह आरोप एक चिंताजनक संकेत है कि हमारे शैक्षणिक और सामाजिक दायरे में अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमाएँ लगातार सिकुड़ती जा रही हैं।

 जिस तेज़ी और कठोरता से उनके ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज की गई है, वह स्पष्ट करती है कि आलोचनात्मक सोच को अब प्रतिक्रियावादी राजनीतिक माहौल में एक गंभीर अपराध माना जाने लगा है। प्रोफ़ेसर काकोटी का मामला देश के सामने एक अहम सवाल रखता है: क्या अब शिक्षाविदों का काम सिर्फ पढ़ाना है, या फिर समाज की सच्चाई को बिना किसी ख़ौफ़ के सामने लाना? इस घटना ने एक बार फिर विरोध के अधिकार और कानून के हथियार बनने के बीच की बारीक लकीर को धुंधला कर दिया है।

धर्म-आधारित शोषण पर सवाल – ‘आतंकियों को पहचानो’ बना ‘राष्ट्रद्रोह’ का आधार

प्रोफेसर काकोटी ने अपने X (पूर्व ट्विटर) पोस्ट में जो तीखे सवाल उठाए थे, वे सीधे तौर पर देश के भीतर बढ़ती सांप्रदायिक विषमता और भेदभाव की प्रवृत्ति पर थे। उन्होंने आतंकवाद की पारंपरिक परिभाषा का विस्तार करते हुए मॉबलिंचिंग, धर्म पूछकर मकान किराए पर न देना, नौकरी से निकाल देना, या बुल्डोजर चलाने जैसी घटनाओं की तुलना की थी और अंत में ‘असली आतंकियों को पहचानो’ का आह्वान किया था। 

यह सवाल एक शिक्षाविद का सवाल था, जो समाज की जटिलताओं को सुलझाने की कोशिश कर रहा था, न कि किसी अपराधी का बयान। लेकिन जिस देश में सच को राजनीतिक रूप से असहज माना जाने लगा हो, वहाँ ये तीखे प्रश्न एक ऐसे घातक हथियार बन गए, जिसने उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह जैसे कड़े क़ानून के इस्तेमाल को जायज़ ठहरा दिया। यह कार्रवाई दर्शाती है कि सत्ता प्रतिष्ठान के लिए विचारों की टकराहट स्वीकार्य नहीं है; उन्हें केवल अनुकूल सहमति चाहिए, और असहमत स्वर को कुचलने के लिए कानूनी शिकंजा कसना अब ‘न्यू इंडिया’ में एक सामान्य प्रक्रिया बन गई है।

शैक्षणिक स्वायत्तता पर ख़तरा: जब विश्वविद्यालय बनते हैं अनुकूल विचारों की प्रयोगशाला

प्रोफ़ेसर माद्री काकोटी पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज होना सिर्फ उनका व्यक्तिगत संकट नहीं है, बल्कि यह देश के तमाम शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता और नैतिक साहस पर भी एक बड़ा सवालिया निशान है। विश्वविद्यालय हमेशा से ही स्वतंत्र विचारों, खुली बहस और आलोचनात्मक चिंतन के केंद्र रहे हैं, जहाँ छात्रों को सत्य की खोज के लिए बेबाकी से सोचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। लेकिन इस तरह के मुक़दमे बाक़ी शिक्षकों और शोधार्थियों के बीच एक सर्द ख़ामोशी की चादर ओढ़ाने का काम करते हैं। 

इस चिलिंग इफ़ेक्ट का नतीजा यह होगा कि अब प्रोफेसर समाज के ज्वलंत मुद्दों पर बोलने से पहले दस बार सोचेंगे, जिससे शैक्षणिक संस्थान धीरे-धीरे स्वतंत्र विचारों की प्रयोगशाला बनने के बजाय, सत्ता के अनुकूल विचारों की केवल प्रतिध्वनि मात्र बनकर रह जाएंगे। यह घटना हमें याद दिलाती है कि किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बाहर के हमलावरों से नहीं, बल्कि भीतर से असहमति को दबाने की प्रवृत्ति से पैदा होता है, और प्रोफ़ेसर काकोटी का मामला इसी खतरनाक रुझान का नवीनतम शिकार है।

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