इतिहास में तुलना उन्हीं की होती है जो एक धरातल पर खड़े हों। गांधी और सावरकर की तुलना करना वैसा ही है जैसे सूरज की रोशनी की तुलना दीपक की कालिख से करना। गांधी ने सत्य से साम्राज्य गिराया, सावरकर ने माफी से अपना जीवन चलाया। गांधी ने जनमानस को जगाया,
सावरकर ने विभाजन के बीज बोए। गांधी ने आज़ादी दी,
सावरकर ने अंग्रेजों की पेंशन खाई। जब जब इतिहास लिखा जाएगा —तो गांधी का नाम “राष्ट्रपिता” के रूप में स्वर्ण अक्षरों में रहेगा, और सावरकर का नाम “माफीवीर” के रूप में और एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर रहेगा जिसने अंग्रेजों के आगे घुटने टेके, उनके पैसे पर जीवन बिताया और देश का विभाजन कराया। सावरकर ने टू नेशन थ्योरी के माध्यम से कट्टरवादी हिन्दुओं को भड़काया और अंत में नैतिक रूप से सावरकर गांधी के हत्यारों के पीछे का मस्तिष्क के तौर पर जाने गए। कपूर आयोग ने साफ कहा था कि “It is proved that the murder of Mahatma Gandhi was conceived in the mind of Vinayak Damodar Savarkar.”(Justice J.L. Kapur Commission Report, 1969)
लेकिन आज जब राष्ट्रवाद और देशभक्ति की परिभाषा को नये सिरे से गढ़ा जा रहा है, तब बार-बार संघ और बीजेपी के नेता “गांधी और सावरकर” का नाम एक साथ लेने की कोशिश करते हैं। यह प्रयास न केवल इतिहास के साथ अन्याय है बल्कि राष्ट्र की चेतना के साथ भी छल है। क्योंकि एक तरफ हैं मोहनदास करमचंद गांधी — जिनकी अहिंसा ने साम्राज्य को झुकाया, और दूसरी तरफ हैं विनायक दामोदर सावरकर — जिन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगकर जेल से रिहाई पाई और बाद में उन्हीं से पेंशन लेकर जीवन बिताया।
गांधी: सत्य, त्याग और तप की जीवित मूर्ति
महात्मा गांधी का जीवन संघर्ष, सेवा और आत्मबल का प्रतीक था। उन्होंने न सत्ता चाही, न पद। वे कभी नंगे पैर, कभी टायर की बनी चप्पल और एक धोती में घूमते रहे, पर पूरी दुनिया को अहिंसा का संदेश दे गए। उनकी महानता किसी उपाधि से नहीं, बल्कि उनके कर्म से सिद्ध होती है:
- दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह की शुरुआत:
1893 में गांधीजी ने नस्लभेद के खिलाफ लड़ाई लड़ी। यह पहला मौका था जब किसी भारतीय ने विदेशी धरती पर ब्रिटिश शासन की अन्यायपूर्ण नीतियों को चुनौती दी।
- भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में नैतिक बल:
उन्होंने असहयोग आंदोलन (1920), नमक सत्याग्रह (1930) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) जैसे आंदोलनों को जन्म दिया। इन सबका उद्देश्य हिंसा नहीं, बल्कि नैतिक आत्मबल से साम्राज्य को पराजित करना था।
- साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक:
गांधीजी ने कहा था — “मैं हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं, और यहूदी भी हूं।” वे विभाजन के खिलाफ खड़े रहे, और अंततः एक हिंदू आतंकवादी की गोली का शिकार बने — सिर्फ इसलिए कि वे हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करते थे।
सावरकर: माफीवीर, अंग्रेजों के पेंशनभोगी “राष्ट्रवादी”
विनायक दामोदर सावरकर को संघ परिवार “वीर” कहता है। लेकिन इतिहास उन्हें “माफीवीर” कहता है — क्योंकि यह शब्द उनके कर्मों से उपजा है, न कि आलोचकों की कल्पना से।
1909 में नासिक षड्यंत्र और गिरफ्तारी
सावरकर को 1909 में नासिक षड्यंत्र केस में गिरफ्तार किया गया। उन्हें सेल्यूलर जेल (अंडमान) में 50 साल की सजा मिली। यहां तक सब ठीक था — क्योंकि यह देशभक्ति का प्रतीक लग सकता है। लेकिन इसके बाद कहानी पलटती है।
बार-बार माफी की याचिकाएं (1911-1920)
सेल्यूलर जेल के ब्रिटिश रिकॉर्ड में सावरकर की 6 बार लिखी गई माफी की अर्जियां आज भी मौजूद हैं। पहली माफी उन्होंने 1911 में ही लिख दी, यानी जेल में पहुंचते ही। इन याचिकाओं में उन्होंने लिखा: “मैं सरकार के प्रति वफादार रहूंगा। मैं किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लूंगा। मैं ब्रिटिश सरकार के अधीन शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहता हूं।”
(Source: National Archives of India, File No. Home Department 1911-1920)
ब्रिटिश अफसर रेजिनाल्ड क्रैडॉक ने सावरकर की याचिका पर टिप्पणी की थी — “He is willing to serve the British government loyally if released.”
यह ‘वीरता’ नहीं, आत्मसमर्पण था।
जेल से रिहाई और अंग्रेजों के साथ समझौता
सावरकर को 1924 में कड़ी शर्तों पर रिहा किया गया।
शर्तें थीं —
वे किसी राजनीतिक गतिविधि में शामिल नहीं होंगे, अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार रहेंगे, अपने गृह नगर रत्नागिरी से बाहर नहीं जाएंगे।
रिहाई के बाद सावरकर ने “हिंदुत्व” का प्रचार शुरू किया — पर अंग्रेजों के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं चलाया। उनकी सारी राजनीति मुसलमानों के खिलाफ और ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफादारी पर केंद्रित थी।
सावरकर को अंग्रेजों से पेंशन
ब्रिटिश सरकार के दस्तावेज़ों में दर्ज है कि सावरकर को 60 रुपए महिने की पेंशन दी जाती थी। Home Department की फाइलें दिखाती हैं कि “सावरकर और उनके परिवार को ब्रिटिश खजाने से नियमित अनुदान दिया जाता था।” यानी जो नेता आज “गांधी बनाम सावरकर” कहते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि गांधी ने देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर किया, एक पैसा भी सरकारी सहायता लेने की बात तो बहुत दूर — जबकि सावरकर अंग्रेजों से वेतन लेते रहे।
गांधी की हत्या और सावरकर का नाम
नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे दोनों सावरकर के अनुयायी थे। गोडसे खुद “हिंदू महासभा” का सदस्य था — और सावरकर ही उसके वैचारिक गुरु। गांधीजी की हत्या के बाद, 1948 में जब केस चला तो सावरकर पर साज़िश का आरोप लगा। हालांकि सबूतों की कमी के कारण वे बरी हुए, लेकिन जस्टिस जे.एल. कपूर आयोग (1969) ने स्पष्ट लिखा:
“It is proved that the murder of Mahatma Gandhi was conceived in the mind of Vinayak Damodar Savarkar.”
(Justice J.L. Kapur Commission Report, 1969)
यानी नैतिक रूप से सावरकर गांधी के हत्यारों के पीछे का मस्तिष्क थे।
दो दर्शन, दो रास्ते
महात्मा गांधी और विनायक दामोदर सावरकर — ये दोनों भारतीय इतिहास के ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपने-अपने रास्ते चुने, पर उनके दर्शन एक-दूसरे के ठीक विपरीत थे। गांधी ने स्वतंत्रता का मार्ग अहिंसा और सत्य से प्रशस्त किया। उन्होंने विश्वास किया कि अन्याय का अंत केवल नैतिक बल से किया जा सकता है। दूसरी ओर, सावरकर ने हिंसा के माध्यम से स्वतंत्रता की राह चुनी, लेकिन जब कठिनाइयाँ बढ़ीं तो माफी की राह पर चल पड़े।
अंग्रेजों के प्रति गांधीजी का रवैया संघर्ष और सविनय अवज्ञा का था। वे जेल गए, अत्याचार सहे, पर सिर नहीं झुकाया। सावरकर ने इसके विपरीत, माफी की अर्जियाँ देकर अंग्रेजों से पेंशन स्वीकार की और आज़ादी की लड़ाई से किनारा कर लिया।
धर्म की दृष्टि से गांधी का दर्शन सर्वधर्म समभाव का था। वे हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बने और सबको एक परिवार की तरह देखते थे। सावरकर का दृष्टिकोण इसके उलट था — उनका सपना था एक हिंदू राष्ट्र, जहाँ धर्म के आधार पर भेदभाव और विभाजन का बीज बोया गया।
गांधी की विचारधारा मानवता, प्रेम और बराबरी पर आधारित थी, जबकि सावरकर की सोच में द्वेष और विभाजन की झलक थी। गांधी का अंत बलिदान के रूप में हुआ — उन्होंने अपने जीवन की आखिरी सांस तक नफरत के खिलाफ आवाज़ उठाई। वहीं सावरकर का अंत गुमनामी और आत्महत्या के साथ हुआ, जो उनके जीवन के अंतर्मन के द्वंद्व को दर्शाता है।
इस तरह, गांधी और सावरकर दो अलग दिशाओं के प्रतीक हैं — एक ने प्रेम से भारत को जोड़ा, दूसरे ने नफरत की दीवारें खड़ी कीं।
संघ और बीजेपी की दोहरी नीति
संघ परिवार आज गांधी की मूर्ति पर माला चढ़ाता है, लेकिन उनके हत्यारे की विचारधारा का प्रचार करता है।
वे “गांधी-सावरकर” को एक साथ रखकर इतिहास को भ्रमित करना चाहते हैं। परंतु यह संभव नहीं।
गांधी वह हैं जिन्होंने कहा — “यदि मुझ पर गोली चले तो मैं ईश्वर का नाम लेकर गिरूं, किसी से नफरत नहीं करूंगा।”
और सावरकर वह हैं जिन्होंने लिखा — “हिंदुओं को सशस्त्र होना चाहिए और मुसलमानों से बराबरी की भाषा में बात करनी चाहिए।” यानी एक ने प्रेम सिखाया, दूसरे ने विभाजन।