लंदन 4 अक्टूबर 2025
सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुए नए रक्षा सहयोग समझौते (Defence Cooperation Pact) ने न केवल दक्षिण एशिया बल्कि पूरी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हलचल मचा दी है। साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, यह समझौता चीन के लिए एक “परमाणु दुविधा” (Nuclear Dilemma) पैदा कर रहा है — क्योंकि बीजिंग के पाकिस्तान और सऊदी अरब, दोनों के साथ गहरे रणनीतिक और सैन्य संबंध हैं। लेकिन अब जब रियाद और इस्लामाबाद ने रक्षा क्षेत्र में सीधा गठबंधन बनाया है, तो चीन की संतुलन नीति (Balancing Act) पहले से कहीं अधिक कठिन हो गई है।
रिपोर्ट के मुताबिक, इस समझौते का मकसद केवल रक्षा सहयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें परमाणु और मिसाइल प्रौद्योगिकी, खुफिया साझेदारी, और सामरिक प्रशिक्षण जैसे पहलू भी शामिल हो सकते हैं। पश्चिमी खुफिया एजेंसियों का मानना है कि सऊदी अरब लंबे समय से पाकिस्तान की परमाणु क्षमता से लाभ उठाने में रुचि रखता है, ताकि क्षेत्र में ईरान के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला किया जा सके। पाकिस्तान, जो पहले ही चीन का सबसे बड़ा रक्षा साझेदार है, अब सऊदी अरब के साथ ऐसे समझौते कर रहा है जो बीजिंग के लिए रणनीतिक असहजता का कारण बन सकते हैं।
चीन पिछले कई दशकों से पाकिस्तान को मिसाइल तकनीक, रडार सिस्टम और ड्रोन सप्लाई करता आ रहा है। वहीं सऊदी अरब के साथ भी उसके रक्षा और ऊर्जा संबंध मजबूत हैं, खासकर बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत। लेकिन अब यह नया सऊदी–पाक गठबंधन चीन के लिए “संतुलन संकट” पैदा कर सकता है — क्योंकि बीजिंग नहीं चाहेगा कि पाकिस्तान अपनी परमाणु तकनीक या सामरिक जानकारी तीसरे देश को हस्तांतरित करे। इससे चीन की नॉन-प्रोलिफरेशन (Nuclear Non-Proliferation) की वैश्विक छवि पर भी सवाल उठ सकते हैं।
सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच यह रक्षा समझौता ऐसे समय में आया है जब ईरान और अमेरिका दोनों ही मध्य पूर्व में अपनी-अपनी रणनीतिक स्थितियाँ मजबूत करने में जुटे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि सऊदी अरब, जो पहले पूरी तरह अमेरिकी रक्षा छत्रछाया में था, अब धीरे-धीरे “मल्टी-अलाइनमेंट” की नीति अपनाने लगा है — यानी वह अब केवल वॉशिंगटन पर निर्भर नहीं रहना चाहता। चीन और पाकिस्तान के साथ बढ़ती उसकी नजदीकी, अमेरिका के लिए भी चिंता का विषय बनती जा रही है।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि सऊदी रक्षा मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों ने हाल ही में इस्लामाबाद का दौरा किया था, जहां दोनों देशों के सैन्य संस्थानों में सहयोग, तकनीकी प्रशिक्षण और संयुक्त अभ्यास पर चर्चा हुई। माना जा रहा है कि इस समझौते के तहत पाकिस्तान सऊदी अरब को मिसाइल रक्षा, आर्टिलरी सिस्टम, और संभावित रूप से परमाणु छत्र (Nuclear Umbrella) प्रदान कर सकता है। यही पहलू चीन के लिए सबसे संवेदनशील है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि उसके सहयोगी देश ऐसे कदम उठाएँ जो अमेरिकी या अंतरराष्ट्रीय दबाव को बढ़ाएँ।
विश्लेषकों के अनुसार, चीन की “पाकिस्तान नीति” हमेशा उसके भारत-विरोधी और दक्षिण एशिया संतुलन के दृष्टिकोण पर आधारित रही है। लेकिन सऊदी अरब के साथ पाकिस्तान के सैन्य गठबंधन का मतलब है कि पाकिस्तान अब चीन के क्षेत्रीय हितों से परे जाकर एक स्वतंत्र रक्षा शक्ति बनने की कोशिश कर रहा है। इससे चीन की रणनीतिक पकड़ कमजोर हो सकती है। वहीं अगर रियाद इस समझौते के जरिए परमाणु तकनीक तक पहुंचने की कोशिश करता है, तो इससे अमेरिका और इस्राइल जैसे देशों की तीखी प्रतिक्रिया तय मानी जा रही है।
सऊदी अरब पहले भी संकेत दे चुका है कि यदि ईरान परमाणु क्षमता हासिल करता है, तो वह भी पीछे नहीं रहेगा। अब पाकिस्तान के साथ यह साझेदारी उस दिशा में एक संभावित कदम के रूप में देखी जा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि रियाद को पाकिस्तान से किसी प्रकार का परमाणु सुरक्षा सहयोग मिलता है, तो यह पूरा मध्य पूर्वी शक्ति संतुलन (Regional Power Equation) बदल सकता है — जिससे न केवल ईरान बल्कि चीन की भी रणनीतिक स्थिति जटिल हो जाएगी।
सऊदी–पाकिस्तान रक्षा समझौता केवल एक द्विपक्षीय करार नहीं, बल्कि एशिया और मध्य पूर्व की भू-राजनीति में एक नई धुरी (New Axis) का संकेत है। चीन के लिए यह स्थिति “दोस्तों के बीच दुविधा” की बन चुकी है — जहाँ उसे यह तय करना होगा कि वह पाकिस्तान के साथ खड़ा रहे या अपने अरब साझेदार सऊदी अरब के साथ संतुलन बनाए रखे। एक गलत कदम बीजिंग को न केवल वाशिंगटन के दबाव में ला सकता है, बल्कि उसके पूरे क्षेत्रीय प्रभाव को भी चुनौती दे सकता है।