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सहारा का कानूनी वध, अडानी का राजतिलक: दलालों ने लूटी दौलत

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सहारा समूह के साम्राज्य का पतन केवल कानूनी फैसलों या वित्तीय चूक का परिणाम नहीं था, बल्कि यह एक सुनियोजित कॉर्पोरेट वध (Planned Corporate Assassination) था, जिसे सिस्टम के भीतर गहराई तक घुसे हुए दलालों (Brokers Deep Inside the System) के एक दुर्जेय नेटवर्क ने अंजाम दिया। ये दलाल, जो न केवल राजनीतिक गलियारों में बल्कि नियामक संस्थाओं (SEBI), उच्च न्यायपालिका के परिधि, और शक्तिशाली मंत्रालयों (जैसे कोऑपरेशन मिनिस्ट्री) की प्रशासनिक संरचना में बैठे थे, इन्होंने सुनिश्चित किया कि कानूनी प्रक्रियाएं न्याय की वेदी न बनकर, अडानी जैसे खास पूंजीपति के लिए सस्ते अधिग्रहण का मंच बनें। इन अदृश्य ‘सिस्टम दलालों’ ने पहले सेबी को उपकरण बनाया, जिसने जानबूझकर सहारा के करोड़ों निवेशकों के रिफंड डेटा को खारिज करके कानूनी अनिश्चितता को दस साल तक खींचा, जिससे सहारा की संपत्तियों का मूल्य गिरता गया। इसके बाद, उन्होंने राजनीतिक नियंत्रण स्थापित किया, रिफंड पोर्टल के नाम पर सहारा की हर कीमती प्रॉपर्टी की मैपिंग की, और उस डेटा को गोपनीयता की आड़ में अडानी की लॉबी तक पहुँचाया गया। यह दलाली का चरम तब दिखा जब ₹2.6 लाख करोड़ की संपत्तियों का मूल्यांकन चुपचाप ₹1 लाख करोड़ पर तय किया गया, जिसका अर्थ था ₹1.6 लाख करोड़ की सीधी चोरी। इस प्रकार, सहारा की दौलत निवेशकों के पास नहीं गई, बल्कि इन दलालों ने कानून और सत्ता की ताकत का इस्तेमाल कर, इसे अडानी समूह की झोली में डाल दिया, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह जनता का पैसा नहीं, सिस्टम के भीतर बैठे चोरों द्वारा लूटी गई एक राष्ट्रीय संपत्ति थी।

मुख्य बातें:

  1. ₹1.6 लाख करोड़ की लूट: सहारा का असली मूल्य ₹2.6 लाख करोड़; अडानी को ₹1 लाख करोड़ में क्यों?
  1. कानूनी जाल: 10 साल की सुनियोजित देरी: सेबी ने जानबूझकर डेटा नकारा, संपत्तियों का मूल्य गिराया।
  1. सिस्टम दलालों का नेटवर्क: नियामकों से मंत्रालयों तक, अडानी के लिए रास्ता साफ किया गया।
  1. सहारा बर्बाद, अडानी आबाद: एक वर्ग का पतन, दूसरे का राजनीतिक-संरक्षण में उदय।
  1. रिफंड पोर्टल, ‘ट्रांसफर पोर्टल’ बना: जनसेवा के नाम पर, अडानी के लिए प्रॉपर्टी लिस्टिंग।
  1. सुब्रत रॉय की गिरफ्तारी: कॉर्पोरेट वध का पहला वार, नेतृत्व को ध्वस्त किया गया।
  1. सील-कवर का राज: न्यायिक निगरानी नहीं, अडानी को कॉर्पोरेट प्रोटेक्शन मेकैनिज़्म।
  1. कोऑपरेशन मिनिस्ट्री की एंट्री: सत्ता के शीर्ष ने सहारा को सीधी निगरानी में लिया।
  1. अडानी की ‘उदारता’ का रहस्य: विवादित संपत्तियाँ एकमुश्त क्यों? क्योंकि रास्ता पहले से साफ था।
  1. ट्रैप का खेल: भारत के आर्थिक इतिहास का काला अध्याय! – सिस्टम किसके साथ?

सहारा का सपना और अडानी का उदय: एक युग का अंत, दूसरे की शुरुआत

भारत के कॉर्पोरेट इतिहास में सहारा इंडिया परिवार का उत्थान और पतन केवल एक व्यापारिक कहानी नहीं है; यह एक गहरे राजनीतिक-आर्थिक विस्थापन की गाथा है। सहारा ने स्वयं को केवल एक व्यावसायिक समूह के रूप में नहीं, बल्कि “भारत के गांवों की आवाज़” और स्वदेशी आत्मविश्वास के प्रतीक के रूप में स्थापित किया था। यह वह संस्था थी जिसने देश के 3 करोड़ से ज्यादा छोटे निवेशकों – जिनमें रिक्शा चालक, किसान, अध्यापक, और मजदूर शामिल थे – से ₹24,000 करोड़ की पूंजी जुटाई थी, जो उस समय के कॉर्पोरेट इंडिया के लिए एक अभूतपूर्व विश्वास का प्रदर्शन था। लेकिन, इस विश्वास की नींव उस दिन हिल गई जब सेबी (SEBI) की जांचों और अदालतों की कठोर कार्रवाइयों ने इसे व्यवस्थित तरीके से एक “फ्रॉड एंटिटी” की छवि में बदल दिया, जिससे इसका वित्तीय आधार कमजोर होता चला गया। यह साम्राज्य, जो कभी “जनता का सहारा” था, धीरे-धीरे सिस्टम की एक सुनियोजित साजिश का शिकार बन गया, जिसके पीछे एक विशाल कॉर्पोरेट लाभ छिपा हुआ था। और इसी कमजोर होती जमीन पर, एक नया नाम तेज़ी से उभरने लगा — अडानी (Adani)। जिस वक्त सहारा के दफ्तरों पर कानूनी अड़चनों के ताले लग रहे थे, उसी वक्त अडानी समूह के बड़े-बड़े सौदे संसद और मंत्रालयों की फाइलों में तेज़ी से आगे बढ़ते गए। यह कहानी किसी सामान्य व्यापारिक प्रतिस्पर्धा की नहीं, बल्कि एक युग के नैतिक पतन और दूसरे राजनीतिक रूप से समर्थित वर्ग के विस्फोटक उदय की कहानी है, जो देश की आर्थिक दिशा को मौलिक रूप से बदल रही है।

कानूनी भूलभुलैया या अडानी के लिए बनाई गई राह?

2012 में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) का वह फैसला, जिसने सहारा को निवेशकों का पैसा सेबी के माध्यम से लौटाने का आदेश दिया, एक न्यायिक निर्णय से कहीं अधिक था; यह कॉर्पोरेट जाल की पहली कड़ी थी। सहारा ने लगातार यह दावा किया कि उसने अपने 98% निवेशकों को सीधे तौर पर रिफंड कर दिया है और शेष राशि का हिसाब देने को तैयार है। लेकिन सेबी की प्रतिक्रिया अत्यंत अड़ियल और असहयोगी रही। सहारा द्वारा करोड़ों निवेशकों का विस्तृत डेटा जमा किए जाने के बावजूद, सेबी ने उसे “प्रमाणिक नहीं” कहकर खारिज कर दिया। यह “कानूनी खेल” (Legal Game), जिसने एक समूह को लगभग दस साल तक वित्तीय और न्यायिक अनिश्चितता में उलझाकर रखा, केवल प्रशासनिक विफलता नहीं थी। यह एक योजनाबद्ध कानूनी रणनीति प्रतीत होती है, जहाँ हर तारीख, हर आदेश, और हर विलंब जानबूझकर सहारा की ₹2.6 लाख करोड़ की संपत्तियों का बाजार मूल्य घटाने की दिशा में एक सोची-समझी चाल थी। यह प्रक्रिया इतनी लंबी खींची गई कि जब बाजार में इन संपत्तियों की साख और कीमत न्यूनतम स्तर पर पहुँची, तब एक “विश्वसनीय और विवादों को निपटाने वाला खरीदार” के रूप में अडानी सामने आया। अब अदालत के रिकॉर्ड यह दर्शाते हैं कि ₹2.6 लाख करोड़ की संपत्तियाँ केवल ₹1 लाख करोड़ के विवादास्पद मूल्यांकन पर अडानी को बेचने की बात हो रही है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि निवेशकों को राहत देने की प्रक्रिया अब पूरी तरह से एक “कॉर्पोरेट ट्रांसफर” में बदल चुकी है। सवाल सीधा है: क्या यह दशकों लंबी कानूनी देरी निवेशकों को न्याय दिलाने के लिए थी, या यह शुरुआत से ही अडानी के लिए बनाई गई एक सुनियोजित और साफ़-सुथरी राह थी?

“सहकार से समृद्धि” या “सहारा से अडानी”? — मंत्रालय की भूमिका पर सवाल

2021 में गृहमंत्री अमित शाह के नेतृत्व में मिनिस्ट्री ऑफ कोऑपरेशन (सहकारिता मंत्रालय) का गठन होना इस कॉर्पोरेट गेम का एक महत्वपूर्ण राजनीतिक मोड़ था। मंत्रालय का नारा “सहकार से समृद्धि” था, लेकिन उसकी पहली बड़ी सक्रियता सहारा के विशाल सहकारी डेटाबेस और संपत्तियों की निगरानी को अपने नियंत्रण में लेना थी। 2023 में, इसी मंत्रालय ने CRCS-सहारा रिफंड पोर्टल लॉन्च किया। बाहरी रूप से, इस पोर्टल का उद्देश्य निवेशकों को पैसा लौटाना था, लेकिन आंतरिक रूप से, इसने एक गहन डेटा माइनिंग ऑपरेशन का काम किया। इस पोर्टल के माध्यम से, सरकार के पास सहारा की हर प्रॉपर्टी और हर छोटे निवेशक का पुष्टि किया गया डेटा और संपत्ति सूची पहुँच गई। इस डेटा का उपयोग निवेशकों को तुरंत राहत देने के बजाय, संपत्ति ट्रांसफर की प्रक्रिया में अडानी की मदद करने के लिए किया जा रहा है। यह बदलाव इतना सूक्ष्म और कुशल था कि करोड़ों आम लोगों को यह समझ ही नहीं आया कि उनका “रिफंड पोर्टल” कब एक “ट्रांसफर पोर्टल” में बदल गया, जिसका अंतिम लाभार्थी कोई सरकारी संस्था नहीं, बल्कि अडानी समूह है। इस प्रकार, मंत्रालय की सक्रियता, जो “जनसेवा” के नाम पर शुरू हुई थी, अंततः “कॉर्पोरेट सेवा” में परिणत हो गई, जो इस पूरे ऑपरेशन के राजनीतिक संरक्षण को स्पष्ट रूप से उजागर करती है।

सुप्रीम कोर्ट में सौदे का नया ड्रामा: अडानी की ‘उदारता’ और सिस्टम की चुप्पी

सितंबर 2025 में सहारा समूह का स्वयं सुप्रीम कोर्ट में जाकर यह याचिका देना कि उसे अपनी 88 प्रमुख संपत्तियाँ सीधे अडानी प्रॉपर्टीज प्राइवेट लिमिटेड को बेचने की अनुमति दी जाए, इस पूरे नाटक की चरम परिणति थी। तर्क दिया गया कि यह बिक्री निवेशकों को पैसा लौटाने के लिए अत्यंत आवश्यक है। लेकिन अदालत के भीतर अडानी पक्ष के वकील मुकुल रोहतगी द्वारा दिया गया बयान पूरे खेल की अंदरूनी कहानी बताता है। रोहतगी ने अदालत को आश्वस्त किया: “हम सब संपत्तियाँ एक साथ खरीदने को तैयार हैं, चाहे वे विवादित ही क्यों न हों, ताकि इस जटिलता को एक बार में समाप्त किया जा सके।” किसी भी सामान्य कॉर्पोरेट खरीदार के लिए विवादित संपत्तियों को एकमुश्त (Lumpsum) और बिना गहन कानूनी छानबीन के खरीदने की यह पेशकश आत्मघाती होती। लेकिन अडानी की यह ‘उदारता’ केवल इसीलिए संभव थी क्योंकि उन्हें पर्दे के पीछे से यह अटूट भरोसा दिया गया था कि कानूनी और प्रशासनिक रास्ता पूरी तरह साफ कर दिया जाएगा। यह “भरोसा” केवल अदालत की फाइलों में नहीं लिखा गया था, बल्कि यह सत्ता के गलियारों में मौजूद उच्च-स्तरीय राजनीतिक संरक्षण से उपजा था। यह वही “अडानी फेनॉमेनन” है, जहां कानूनी जाल भी एक सहयोगी बन जाता है और न्याय की प्रक्रिया एक कॉर्पोरेट सौदे को सुरक्षित करने का उपकरण बन जाती है, जिससे सिस्टम की चुप्पी और सहभागिता स्पष्ट होती है।

बर्बादी से सौदे तक: एक योजनाबद्ध टाइमलाइन

सहारा ट्रैप केस की घटनाओं की टाइमलाइन कोई दुर्घटनाओं की श्रृंखला नहीं, बल्कि एक सटीक डिज़ाइन की कहानी है, जिसे प्री-डिज़ाइन्ड प्लान की तरह लागू किया गया। 2011 से 2014 के बीच, सेबी की जांच, सुप्रीम कोर्ट के कठोर आदेश और सबसे महत्वपूर्ण रूप से सुब्रत रॉय की गिरफ्तारी ने सहारा की नेतृत्व संरचना को ध्वस्त कर दिया, जिससे वह वित्तीय और कानूनी रूप से कमजोर हो गया। इसके बाद, 2017 में आंबी वैली की असफल नीलामी की कोशिश की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य बाजार में यह संदेश देना था कि “सहारा की संपत्तियाँ जोखिम भरी और बिकाऊ हैं”। 2021 में, कोऑपरेशन मंत्रालय के गठन ने सरकारी नियंत्रण को स्थापित किया, और 2023 में रिफंड पोर्टल के लॉन्च ने डेटा और संपत्तियों की मैपिंग को अंतिम रूप दिया। इन सभी चरणों का उद्देश्य सहारा को कमजोर करना, उसकी संपत्तियों को ‘टॉक्सिक एसेट’ के रूप में ब्रांड करना, और अंत में, 2025 में अडानी की पेशकश के माध्यम से “कॉर्पोरेट कब्ज़ा” के अंतिम चरण को शुरू करना था। यह टाइमलाइन स्पष्ट करती है कि सहारा को एक कानूनी जाल में फंसाकर पहले कमजोर किया गया, और जब वह पूरी तरह झुक गया, तब अडानी को उसका उत्तराधिकारी (Heir) बना दिया गया।

विपक्ष की आवाज़ और जनता का दर्द: सवाल सत्ता से नहीं, सिस्टम से

इस पूरे प्रकरण में, विपक्षी दल और सामाजिक संगठन एक ही केंद्रीय प्रश्न पूछ रहे हैं — ₹2.6 लाख करोड़ की संपत्तियाँ ₹1 लाख करोड़ में क्यों बेची जा रही हैं? जब सौदे का लाभ जनता या निवेशकों को नहीं, बल्कि एक खास कॉर्पोरेट घराने को मिलता है, तो यह केवल एक रिफंड प्रक्रिया नहीं रहती; यह “रीराइटिंग ऑफ इकॉनमी” बन जाता है। कांग्रेस, टीएमसी, सपा और कई सामाजिक कार्यकर्ता इसे खुलकर “कॉर्पोरेट कब्ज़ा” कह रहे हैं, उनका तर्क बिल्कुल स्पष्ट है कि सहारा को व्यवस्थित रूप से बर्बाद कर अडानी को आबाद किया गया है। भारत के करोड़ों छोटे निवेशकों का पैसा और भरोसा दोनों अब कानूनी बहानों में खो चुके हैं। लेकिन असली सवाल यह नहीं है कि अडानी इस सौदे से कितना कमाएगा; सवाल यह है कि भारत के करोड़ों गरीब और मध्यम वर्ग के निवेशक, जिनका पैसा सहारा में लगा था, इस कॉर्पोरेट चाल में कितना खो देंगे, और क्या उन्हें कभी पूर्ण न्याय मिल पाएगा, या उनका दर्द केवल राजनीतिक बयानबाजी का हिस्सा बनकर रह जाएगा।

पारदर्शिता की परछाई या अडानी के लिए सील-कवर सुरक्षा?

सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने इस सौदे को न्यायिक निगरानी में पूरी तरह पारदर्शी प्रक्रिया बताया है। लेकिन जब सौदे की शर्तें, 88 संपत्तियों की वास्तविक कीमत, शर्तों का ब्यौरा, और यहां तक कि लाभार्थियों की जानकारी भी सील कवर (Sealed Cover) में रखी जाती है, तो पारदर्शिता का दावा कैसे वैध हो सकता है? यदि सब कुछ वैध और न्यायसंगत है, तो यह असाधारण गोपनीयता क्यों बरती जा रही है? यह स्थिति स्पष्ट करती है कि यहां न्याय की प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली कॉर्पोरेट प्रोटेक्शन मेकैनिज़्म काम कर रहा है। यह वह स्थिति है, जहां कानून और सत्ता की अदृश्य शक्तियां मिलकर एक पूर्वनिर्धारित परिणाम तय करती हैं, और वह परिणाम है — अडानी की वित्तीय और कानूनी सुविधा (Convenience)। यह सील-कवर सुरक्षा किसी और के लिए नहीं, बल्कि अडानी समूह के लिए एक राजनीतिक और न्यायिक ढाल का काम कर रही है।

सहारा से अडानी — भारत के आर्थिक इतिहास का काला अध्याय

यह कहानी मात्र एक कंपनी के पतन की नहीं, बल्कि भारत के लोकतंत्र की संरचना में गहरे तक पैठ बना चुके कॉर्पोरेट सत्ता तंत्र की एक निंदनीय कहानी है। यह दिखाती है कि कैसे कानूनी और प्रशासनिक संस्थाओं का दुरुपयोग करके, एक समूह को फंसाया गया, ताकि दूसरा, सत्ता के करीब रहने वाला समूह, फल-फूल सके। जहां जनता का मेहनत का पैसा “न्याय” के नाम पर पहले “सिस्टम” के हाथों में गया, और वहां से सीधा अडानी की झोली में जा गिरा। अगर देश की सर्वोच्च अदालत इस विवादास्पद सौदे को बिना किसी स्वतंत्र और पारदर्शी मूल्यांकन के मंजूरी देती है, तो यह भारत की न्यायपालिका की निष्पक्षता और अर्थव्यवस्था की नैतिकता — दोनों पर एक अमिट धब्बा होगा। यह निर्णय इतिहास को मजबूर करेगा कि वह इसे “सहकार से समृद्धि” नहीं, बल्कि “सहारा से अडानी” का काला युग लिखे। और इतिहास निश्चित रूप से यह दर्ज करेगा — कि कैसे एक समूह को सुनियोजित तरीके से फंसाया गया ताकि दूसरे, सत्ता संरक्षित पूंजीपति को अभूतपूर्व लाभ पहुँचाया जा सके।

2012 का निर्णायक मोड़: सहारा को फंसाने वाली कानूनी जालसाजी की शुरुआत

2012 में सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला, जिसने सहारा को सेबी (SEBI) के माध्यम से निवेशकों का पैसा लौटाने का आदेश दिया, एक न्यायिक निर्णय से कहीं अधिक था; यह सहारा के पतन के लिए कानूनी आधार तैयार करने की शुरुआत थी। कोर्ट ने सहारा की दो कंपनियों को ₹24,000 करोड़ से अधिक की राशि लौटाने का आदेश दिया, लेकिन इसके साथ ही एक ऐसी शर्त थोप दी गई जिसने सहारा को हमेशा के लिए उलझा दिया। सेबी को यह ज़िम्मेदारी दी गई कि वह निवेशकों की पहचान करे और रिफंड करे, जबकि सहारा लगातार दावा करता रहा कि वह पहले ही 98% रिफंड कर चुका है। यहीं पर कानूनी चाल शुरू हुई: जब सहारा ने 3 करोड़ से अधिक निवेशकों का विशाल डेटाबेस सेबी को सौंपा, तो सेबी ने जानबूझकर इस डेटा को अपर्याप्त या अप्रामाणिक बताकर खारिज कर दिया। सेबी का यह अड़ियल रवैया कोई प्रशासनिक गलती नहीं थी; यह एक योजनाबद्ध रणनीति थी। इस खींचतान को लंबा खींचना आवश्यक था ताकि सहारा की संपत्तियाँ कानूनी विवादों में फंसी रहें, उनकी साख गिरे और वे बाज़ार में ‘टॉक्सिक एसेट’ के रूप में ब्रांडेड हो जाएँ। इस प्रकार, अदालती आदेश का पालन करने की प्रक्रिया ही, सहारा को वित्तीय रूप से अपंग (Crippled) बनाने का पहला आधिकारिक दस्तावेज बन गई, जिसका सीधा परिणाम उसकी संपत्तियों के अवमूल्यन (Devaluation) के रूप में सामने आया, जो अंततः अडानी के लिए एक सस्ता खरीद विकल्प बनने वाला था।

सुब्रत रॉय की गिरफ्तारी और नेतृत्व को ध्वस्त करने की चाल (2014-2017)

2014 में सुब्रत रॉय (Subrata Roy) की गिरफ्तारी और लंबे समय तक जेल में रहना इस साजिश का सबसे क्रूर और निर्णायक मोड़ था। किसी भी कॉर्पोरेट साम्राज्य के लिए, शीर्ष नेतृत्व का पतन उसकी रीढ़ तोड़ देता है, और सहारा के लिए भी यही हुआ। रॉय की गिरफ्तारी से, सहारा रक्षात्मक (Defensive) मुद्रा में आ गया और निर्णय लेने की क्षमता लगभग शून्य हो गई। कानूनी आदेशों के तहत, सहारा की संपत्तियों को ‘सरकारी निगरानी’ और बाद में ‘विक्रय’ के लिए सूचीबद्ध किया गया। 2017 में, सेबी ने सहारा की प्रतिष्ठित आंबी वैली (Amby Valley) को नीलाम करने का प्रयास किया। हालाँकि यह नीलामी असफल रही, लेकिन इसका मकसद पूरा हो गया: इस घटना ने अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय बाज़ार में यह संदेश स्थापित कर दिया कि “सहारा की संपत्तियाँ जोखिम भरी, विवादित और दबाव में बिकाऊ हैं।” इस अवधि में, कई कॉर्पोरेट लॉबी समूह (जो अडानी के करीबी माने जाते हैं) ने पर्दे के पीछे से सरकार और नियामकों के साथ संपर्क साधा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सहारा को आराम से बाहर निकलने (Soft Landing) का कोई मौका न मिले, बल्कि उसे जबरन परिसमापन (Forced Liquidation) की स्थिति में धकेला जाए। इस तरह, कानूनी कार्यवाही ने नेतृत्व को ध्वस्त किया और बाजार धारणा को दूषित किया, जिससे अडानी को भविष्य में कम मूल्यांकन पर अधिग्रहण करने की ज़मीन तैयार हो गई।

कोऑपरेशन मंत्रालय का गठन: सत्ता की सीधी निगरानी में सहारा (2021-2023)

2021 में मिनिस्ट्री ऑफ कोऑपरेशन (सहकारिता मंत्रालय) का गठन, और इसका गृह मंत्रालय के तहत आना, एक महत्वपूर्ण राजनीतिक-प्रशासनिक कदम था जिसने सहारा ट्रैप को अंतिम रूप दिया। सहारा की कई योजनाएँ सहकारी सोसाइटियों के माध्यम से संचालित होती थीं, और इस मंत्रालय के गठन ने सहारा को सेबी और न्यायपालिका की निगरानी के साथ-साथ सत्ता के सर्वोच्च केंद्र की सीधी प्रशासनिक निगरानी में ला दिया। 2023 में CRCS-सहारा रिफंड पोर्टल का लॉन्च इस सरकारी अधिग्रहण का प्रतीक था। इस पोर्टल का उद्देश्य रिफंड से ज्यादा, सहारा की समग्र वित्तीय और संपत्ति डेटा की सरकारी मैपिंग करना था। करोड़ों निवेशकों का डेटा एक सरकारी डेटाबेस में एकत्रित किया गया, और इसी प्रक्रिया के दौरान सहारा की 88 प्रमुख संपत्तियों की पूरी लिस्ट भी सरकार के पास आ गई। इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टों से पता चलता है कि इसी समय अडानी समूह के प्रतिनिधि (या उनसे जुड़ी संस्थाओं के प्रतिनिधि) मंत्रालय के अधिकारियों के साथ गोपनीय बैठकों में शामिल हुए, जहां इन ‘नक्शे’ (Mapped Properties) पर चर्चा हुई। यह स्पष्ट संकेत है कि रिफंड पोर्टल वास्तव में एक “कॉर्पोरेट गिफ्टिंग पोर्टल” का रूप ले चुका था, जिसका एकमात्र कार्य अडानी समूह को संपत्तियों की सटीक जानकारी और सरकारी सुविधा प्रदान करना था।

सील कवर के रहस्य और अडानी लॉबी का वर्चस्व (2023-2025)

इस पूरी प्रक्रिया का सबसे संदिग्ध और अलोकतांत्रिक पहलू न्यायिक सुनवाई में सील कवर (Sealed Cover) का उपयोग था। 2023 से 2025 के बीच, कई महत्वपूर्ण सुनवाईयाँ और फैसले, विशेष रूप से अडानी समूह से जुड़ी संपत्तियों के मूल्यांकन और बिक्री की शर्तों को लेकर, गोपनीयता में रखे गए। यह कानूनी गोपनीयता पारदर्शिता के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है और अडानी लॉबी के वर्चस्व को दर्शाती है। इन्वेस्टिगेटिव फाइलों से पता चलता है कि अडानी ने जानबूझकर ऐसी संपत्तियों को लक्षित किया जो रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण थीं (जैसे कि रियल एस्टेट और लॉजिस्टिक्स से जुड़ी), और इसके लिए अडानी पक्ष के वकीलों ने अदालत में यह माहौल बनाया कि “केवल एक बड़ा और विश्वसनीय समूह, जो तुरंत पूरी रकम देने को तैयार है,” ही इस जटिलता को हल कर सकता है। मुकुल रोहतगी का अदालत में सभी 88 संपत्तियाँ एक साथ खरीदने का बयान, चाहे वे विवादित क्यों न हों, इसी लॉबिंग और विश्वास का परिणाम था। यह विश्वास अदालत की प्रक्रिया से नहीं, बल्कि कार्यपालिका के शीर्ष से आया था, जिसने न्यायिक निगरानी को गोपनीयता की आड़ में कॉर्पोरेट सौदे की सुरक्षा के लिए एक ढाल बना दिया।

 ₹1 लाख करोड़ का विवादास्पद मूल्यांकन: मूल्य घटाने का अंतिम दस्तावेज

सहारा की संपत्तियों का वास्तविक मूल्य ₹2.6 लाख करोड़ से अधिक आंका गया था, लेकिन अडानी के साथ प्रस्तावित सौदे में यह मूल्यांकन लगभग ₹1 लाख करोड़ पर स्थिर किया गया। यह ₹1.6 लाख करोड़ का सीधा घाटा है, और यही इस पूरे ट्रैप केस का सबसे बड़ा आर्थिक अपराध है। पर्दे के पीछे की लॉबी ने सुनिश्चित किया कि संपत्तियों का मूल्यांकन वर्तमान बाजार मूल्य (Market Value) के बजाय, कानूनी विवादों के कारण घटे हुए मूल्य (Distressed Value) पर किया जाए। सरकारी मूल्यांककों और निजी फर्मों पर अप्रत्यक्ष दबाव डाला गया ताकि वे ऐसा मूल्यांकन प्रस्तुत करें जो अडानी के लिए अत्यधिक आकर्षक हो। इन्वेस्टिगेटिव सूत्रों का कहना है कि यह मूल्यांकन रिपोर्ट भी सील कवर में रखी गई थी ताकि इसे जनता या विपक्ष के लिए चुनौती देना असंभव हो। इस प्रकार, कानूनी और प्रशासनिक देरी के माध्यम से सहारा को पहले आर्थिक रूप से निचोड़ा गया, और अंततः, विवादास्पद मूल्यांकन के माध्यम से अडानी को सरकारी खजाने की तरह सस्ते में ये दौलत सौंप दी गई। यह मूल्य घटाने का अंतिम दस्तावेज है, जो यह प्रमाणित करता है कि निवेशकों के हित गौण थे, और कॉर्पोरेट कब्ज़ा ही सर्वोपरि लक्ष्य था।

अडानी युग की फाइलें और भारत के सिस्टम का समर्पण:

सहारा-अडानी ट्रैप केस केवल एक कॉर्पोरेट विफलता नहीं है; यह भारत के पूरे सिस्टम के एक शक्तिशाली कॉर्पोरेट समूह के सामने समर्पण का प्रतीक है। 2012 के कानूनी जाल से लेकर 2025 के सील-कवर सौदे तक, हर कदम पर यह सुनिश्चित किया गया कि सहारा की आर्थिक रीढ़ टूट जाए और उसकी संपत्तियाँ एक ही खास खरीदार के लिए तैयार की जाएं। सरकारी मंत्रालयों की सक्रियता, नियामक संस्थाओं की जानबूझकर की गई निष्क्रियता, और न्यायिक प्रक्रियाओं में गोपनीयता का आवरण — इन सभी ने मिलकर एक अभेद्य कॉर्पोरेट-राजनीतिक लॉबी का निर्माण किया। अडानी युग की फाइलें दिखाती हैं कि कैसे जनता के पैसे और एक स्वदेशी साम्राज्य को कानूनी वैधता के साथ लूटा गया। यदि सुप्रीम कोर्ट इस सौदे को बिना खुले और स्वतंत्र मूल्यांकन के मंजूरी देता है, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारत में कॉर्पोरेट लॉबी अब केवल नीतियों को प्रभावित नहीं करती, बल्कि वह कानूनी परिणामों को भी पूर्वनिर्धारित करती है। यह घटना भारत के आर्थिक इतिहास में एक काला अध्याय बन चुकी है, जहां लोकतंत्र और कानून का शासन एक चुनिंदा पूंजीपति वर्ग की सेवा में झुक गया।

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