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सहारा की राख और कॉर्पोरेट की भूख: भरोसे की विरासत से कब्ज़े तक की कहानी

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सपनों का वो कारवां जो भरोसे पर चला: जब एक आदमी ने परिवार बनाया, उद्योग नहीं

कभी भारत के हर गाँव, हर कस्बे में “सहारा” शब्द एक भावनात्मक पहचान था — एक ऐसा नाम जो सुरक्षा, सम्मान और अटूट विश्वास का प्रतीक था। सुब्रत रॉय सहारा, जिन्होंने सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश की गोरखपुर की एक झोपड़ी से यह यात्रा शुरू की, वे सिर्फ एक उद्योगपति नहीं बल्कि करोड़ों भारतीयों के सपनों के वाहक बन गए। उनका दर्शन व्यापार करने का नहीं था — उन्होंने “परिवार” बनाया। लखनऊ का सहारा सिटी, नोएडा का कॉर्पोरेट कॉम्प्लेक्स, और देशभर में फैली शाखाएँ एक विश्वास का नेटवर्क थीं, जहाँ हर कर्मचारी खुद को परिवार का सदस्य मानता था, हर निवेशक खुद को एक महत्त्वपूर्ण योगदानकर्ता। सुब्रत रॉय का यह वाक्य उनकी पूंजी थी: “हम किसी से पैसा नहीं लेते, हम भरोसा जमा करते हैं।” यही भरोसा सहारा की सबसे बड़ी और अमूल्य पूंजी थी। सहारा समय टीवी उस युग की पत्रकारिता का गौरव था, जब पत्रकारिता को मुनाफ़ा नहीं, मिशन माना जाता था। आज वही इमारत धूल और सन्नाटे में दबी है — यह इतिहास का एक कड़वा व्यंग्य है कि जिसने अनगिनत लोगों को आवाज़ दी, उसकी खुद की आवाज़ अब बंद हो गई है।

राजनीतिक भूल या सत्ता का प्रतिशोध: जब एक वाक्य ने साम्राज्य हिला दिया

हर साम्राज्य को गिराने के लिए बाहरी दुश्मन की नहीं, बल्कि अक्सर एक आत्मघाती वाक्य या राजनीतिक साजिश की ज़रूरत होती है। सुब्रत रॉय ने सार्वजनिक रूप से कहा था — “भारत का प्रधानमंत्री विदेशी मूल का नहीं होना चाहिए।” यह बयान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के संदर्भ में दिया गया था, और यही उनके जीवन का सबसे महंगा और विध्वंसक वाक्य साबित हुआ। सत्ता के गलियारों में तत्काल निर्देश गए — “सहारा की जांच करो।” इसके बाद सेबी (SEBI) के नोटिस, सुप्रीम कोर्ट की कड़ी सुनवाई, और OFCD पर रोक लगाना — सब कुछ एक सुनियोजित राजनीतिक प्रतिशोध की तरह दिखने लगा। सुब्रत रॉय ने जेल जाने के बाद कहा था: “मैंने किसी का पैसा नहीं खाया, लेकिन मैंने झुककर नमस्कार करने से इंकार किया — वही मेरी सबसे बड़ी गलती थी।” यहीं से भरोसे का साम्राज्य मुकदमों की उस भूलभुलैया में भटकने लगा, जहाँ से वापसी असंभव थी।

भीतर का पतन और विश्वासघात: जब घर के रखवाले ही लुटेरे बन गए

सहारा को बाहर की कानूनी और राजनीतिक लड़ाइयों ने जितना नुकसान पहुँचाया, उससे कहीं अधिक भीतर के विश्वासघात ने उसे लूटा और खोखला किया। यह सबसे बड़ा दर्द था — वर्षों तक सहारा को लूटने वाले लोगों की भी कमी नहीं रही। जो लोग कुर्सी पर अधिकारी बनकर बैठे, उन्होंने सुब्रत रॉय के भरोसे और उदारता का फायदा उठाया, अपनी जेबें भरीं और खुद का साम्राज्य खड़ा किया। इन तथाकथित अधिकारियों ने, जो खुद को वफादार कहते थे, अपनी शक्तियाँ और अधिकारों का दुरुपयोग किया। वो “संकट प्रबंधन” के नाम पर कंपनी के ठेकेदार, नई संपत्तियाँ और नई डीलें अपने नाम करते गए। जिन्हें परिवार का हिस्सा माना गया, वही परिवार की भरोसे की नींव खोखली करते रहे। सुब्रत रॉय के जेल जाने के बाद यह लालच और अराजकता और भी बढ़ गई, जिससे कंपनी भीतर से पूरी तरह जर्जर हो गई। एक वरिष्ठ अधिकारी ने बाद में स्वीकार किया: “अगर उन स्वार्थी लोगों को समय रहते रोका जाता, तो सहारा आज भी अडिग होता।” सच्चाई यह है कि सहारा को अदालतों ने नहीं, भीतर बैठे स्वार्थी अफ़सरों और लालची प्रबंधकों ने डुबोया। वो भरोसे की एक मज़बूत नाव थी, जिसे घर के ही लोगों ने छेद कर डुबो दिया। छोटे छोटे प्यादों ने भी करोड़ों लूट लिए। जिन लोगों की सैलरी रुकी, पैसे अटक गए, वो तो मजबूर थे, अपने काम में सच्ची लगन से जुटे रहे। लेकिन ऐसे लोगों के कंधों की सवारी कर के कई अधिकारियों ने अशर्फियां की लूट पाट में कोई कसर नहीं छोड़ी। 

जब अपने ही पराये हुए: एक पिता का सबसे अकेला और दर्दनाक अंत

सुब्रत रॉय की असली हार अदालत या जेल में नहीं, बल्कि उनके अपने परिवार में हुई। उनके दोनों बेटे — सुशांतो और सीमांतो — जिन पर उन्होंने जीवन भर भरोसा किया, वे संकट के समय विदेश चले गए और अपने पिता के संघर्ष से दूर रहे। 2023 में जब पिता की पार्थिव देह पंचतत्व में विलीन हो रही थी, वे दोनों लौटे तक नहीं। उनकी पत्नी स्वप्ना रॉय अब अकेली हैं, चारों ओर कानूनी नोटिस, ईडी, सेबी, कोर्ट, और बीच में एक औरत जो पति की विशाल विरासत बचाने की जद्दोजहद कर रही है। वह आज भी संघर्ष कर रही हैं। वो सिर्फ एक कंपनी नहीं, एक विश्वास बचाने में जद्दोजेहद कर रही थी” यह एक ऐसी कहानी रही जहाँ एक परिवार टूट गया, और उसके साथ भारतीय कॉर्पोरेट इतिहास का एक गौरवशाली युग खत्म हो गया।

नोएडा का मौन और पत्रकारिता की मृत्यु: जहाँ कभी खबरें बनती थीं, अब ताले जंग खा रहे हैं

नोएडा सेक्टर-11 का सहारा टीवी ऑफिस आज भी खड़ा है, लेकिन किसी बंद और वीरान मंदिर की तरह। कभी यहाँ से देश की सबसे सशक्त और निष्पक्ष खबरें निकलती थीं, आज वही इमारत पतन का प्रतीक है। 80 दिनों से कर्मचारी अपने वेतन, पीएफ और भविष्य की अनिश्चितता के लिए धरने पर हैं, उनके घरों में अंधेरा है, बच्चों की फीस बकाया है। एक वरिष्ठ पत्रकार के शब्द आज भी गूँजते हैं: “पहले हम दूसरों की आवाज़ थे, अब हम खुद खबर बन गए हैं।” कभी रोज़ एक टैंकर डीज़ल आता था ताकि कैमरे बंद न हों और स्टूडियो की रोशनी न बुझे, आज वहाँ दरवाज़ों पर ताले जंग खा रहे हैं। यह सिर्फ सहारा का आर्थिक पतन नहीं है, यह भारत में मिशन-आधारित पत्रकारिता की मृत्यु है।

कॉर्पोरेट कब्ज़ा और भू-संपत्ति विस्तार: अडानी की नज़र, नया खेल, नई चाल

अब जब सहारा की राख ठंडी पड़ रही है, कॉर्पोरेट जगत की भूख चरम पर है। अडानी ग्रुप ने सहारा की 88 संपत्तियों पर अपनी पैनी नज़र गड़ाई है। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी गई है कि सहारा की संपत्तियाँ एक ही विशाल सौदे में अडानी प्रॉपर्टीज को बेची जाएँ। एंबी वैली, लखनऊ का सहारा सिटी, गोवा, पुणे, अहमदाबाद — ये सभी बेशकीमती भू-संपत्तियाँ इस सौदे में शामिल हैं। बताया जा रहा है कि यह ₹2.59 लाख करोड़ का सौदा हो सकता है। NDTV अधिग्रहण के बाद यह अडानी का मीडिया नियंत्रण और भू-संपत्ति विस्तार की दिशा में एक और बड़ा कदम होगा। “निवेशकों को पैसा लौटाने” की आड़ में असल खेल मीडिया पर नियंत्रण और भारत की प्राइम संपत्तियों पर कब्ज़ा करना है। यह सौदा एक भावना की नहीं, बल्कि एक युग की नीलामी है।

पर्दे के पीछे के खिलाड़ी: “तोड़ो और कब्ज़ा करो” (Destroy and Acquire) का नया मॉडल
राजनीतिक लॉबियाँ, भ्रष्ट नौकरशाही और कॉर्पोरेट सलाहकारों की एक सुनियोजित मिलीभगत ने पहले सहारा को जानबूझकर कानूनी उलझनों में फँसाया, फिर उसे आर्थिक रूप से पंगु बनाया, और अब उसके अधिग्रहण की राह खोली है। भारत में अब यह एक नया और खतरनाक कॉर्पोरेट मॉडल बन चुका है — “पहले तोड़ो, फिर खरीदो।” सहारा इसका सबसे जीवंत और मार्मिक उदाहरण है — एक भावनात्मक साम्राज्य को पहले कानूनी रूप से तोड़ा गया, और अब उसे आर्थिक रूप से बेचा जा रहा है। यह सिर्फ व्यापार नहीं, यह सार्वजनिक भरोसे की संस्थागत हत्या है।
 निवेशकों का दर्द और भरोसे की हत्या: जब गाढ़ी कमाई राख में बदल गई
हज़ारों वृद्ध और मध्यमवर्गीय निवेशक आज भी अदालतों के बाहर पंक्तिबद्ध हैं। किसी ने बेटी की शादी के लिए अपनी गाढ़ी कमाई बचाई थी, किसी ने रिटायरमेंट के लिए जीवन भर की पूंजी लगाई थी। अब न उनके पास पैसा है, न उस विश्वास का सहारा। एक वृद्ध निवेशक की आवाज़ आज भी गूँजती है: “हमने सहारा को परिवार समझा था, अब वो कोर्ट की सिर्फ एक फाइल बन गया है।” यह सिर्फ एक वित्तीय चूक नहीं है। जब इस तरह एक बड़े स्तर पर भरोसा टूटता है, तो समाज में लोगों की इंसानियत और व्यवस्था पर से विश्वास की आखिरी साँस भी साथ चली जाती है।
राख में चिंगारी: क्या विश्वास फिर जन्म लेगा?
भले ही सहारा की भौतिक दीवारें गिर गई हों, लेकिन उसकी स्थापना की भावना अब भी ज़िंदा है। कहीं कोई नौजवान अब भी सोच रहा होगा — “सपने मरते नहीं, वे बस समय का इंतज़ार करते हैं।” शायद कोई नया सहारा फिर उठेगा — जो मुनाफ़े को नहीं, भरोसे को पूंजी बनाएगा, और इंसानियत को निवेश। क्योंकि सहारा सिर्फ एक कंपनी नहीं — वह एक विचार था, एक भरोसे की क्रांति थी। और इतिहास गवाह है कि जब कोई विचार राख से उठता है, तो दुनिया की सबसे बड़ी और अमूल्य पूंजी — “विश्वास” — फिर से जन्म लेती है।

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