नई दिल्ली 12 अगस्त 2025
2011 वर्ल्ड कप भारतीय क्रिकेट के इतिहास का एक ऐसा सुनहरा अध्याय है, जिसे करोड़ों भारतीय आज भी गर्व से याद करते हैं। लेकिन उस जीत की राह में मैदान पर जितनी चुनौतियाँ थीं, उतनी ही बड़ी जंग मैदान के बाहर मानसिक और भावनात्मक स्तर पर लड़ी गई थी। हाल ही में स्टार ऑलराउंडर युवराज सिंह ने इस ऐतिहासिक सफर के पीछे की एक अहम कहानी साझा की। उन्होंने बताया कि उस समय टीम को जिस तरह की आलोचना और दबाव का सामना करना पड़ा, वह किसी के लिए भी आसान नहीं था। खासकर दक्षिण अफ्रीका से मिली हार के बाद माहौल बेहद तनावपूर्ण हो गया था। इसी दौरान टीम के सबसे अनुभवी बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर और कोच गैरी कर्स्टन ने खिलाड़ियों को एक खास मंत्र दिया—“कोई टीवी नहीं देखेगा, कोई अख़बार नहीं पढ़ेगा; जब मैदान में जाएं तो हेडफ़ोन पहनें, और जब वापस कमरे लौटें तो फिर से हेडफ़ोन पहनें; बाहर की सारी आवाज़ें काट दें और सिर्फ जीत पर ध्यान दें।” यह कोड वाक्य टीम की मानसिक मजबूती का आधार बन गया और खिलाड़ियों को बाहरी शोर से दूर रखकर लक्ष्य पर केंद्रित करने में मददगार साबित हुआ।
युवराज सिंह ने याद किया कि 2011 वर्ल्ड कप में टीम इंडिया पर सिर्फ क्रिकेट खेलने का दबाव नहीं था, बल्कि करोड़ों भारतीयों की उम्मीदों का बोझ भी था। हर मैच में प्रदर्शन को लेकर मीडिया की पैनी निगाहें थीं, और छोटी-सी गलती पर भी आलोचना होना तय था। सचिन तेंदुलकर और गैरी कर्स्टन की यह रणनीति, जिसमें खिलाड़ियों को अपने कमरे में जाकर खुद को दुनिया से अलग कर लेने की सलाह दी गई थी, असल में मानसिक सुरक्षा कवच का काम कर रही थी। युवराज ने कहा कि इस माहौल में टीम के अंदर का आपसी भरोसा और सीनियर खिलाड़ियों का मार्गदर्शन ही सबसे बड़ा सहारा था। उन्होंने खुद भी कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से अनजान रहते हुए पूरे टूर्नामेंट में दमदार प्रदर्शन किया और ‘मैन ऑफ द टूर्नामेंट’ का खिताब जीता।
उन्होंने आगे कहा कि उस समय टीम में युवा और अनुभवी खिलाड़ियों का शानदार मिश्रण था। लेकिन हर किसी पर अपने-अपने तरीके से दबाव था—कुछ के लिए यह आखिरी वर्ल्ड कप हो सकता था, तो कुछ के लिए यह खुद को साबित करने का मौका। ऐसे में बाहरी नकारात्मकता से बचकर सिर्फ खेल पर ध्यान देना ही सफलता की कुंजी थी। सचिन और कर्स्टन का यह मार्गदर्शन, साथ ही खिलाड़ियों का अनुशासन और फोकस, आखिरकार टीम को उस ऐतिहासिक जीत तक ले आया। युवराज ने माना कि 2011 की ट्रॉफी सिर्फ मैदान पर बनाए गए रन या लिए गए विकेट का परिणाम नहीं थी, बल्कि यह मानसिक शक्ति, एकजुटता और सही समय पर मिले नेतृत्व का नतीजा थी।