नरक चतुर्दशी का दिवाली से सीधा संबंध नहीं, यह है पृथ्वी पुत्र की अंतिम इच्छा पूरी करने का दिन
आज का दिन जिसे हम रूप चौदस या नरक चतुर्दशी के रूप में मनाते हैं, वह दरअसल एक शक्तिशाली राक्षस, नरकासुर, की स्मृति और उसकी अंतिम इच्छा को पूरा करने का दिन है। इस दिन का सीधे तौर पर दिवाली के मुख्य उत्सव से कोई धार्मिक संबंध नहीं है, सिवाय इसके कि दोनों की तिथियाँ हिंदू कैलेंडर के अनुसार एक साथ पड़ती हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, आज ही के दिन इस भयानक राक्षस का वध हुआ था, जिसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उसके बंदी बनाए हुए 16,000 लड़कियों को मुक्त कराया और उनसे विवाह किया था।
नरकासुर की घृणित प्रकृति और स्नान का महत्व
यह राक्षस नरकासुर अपनी क्रूरता के साथ-साथ अपनी अत्यंत घिनौनी प्रकृति के लिए भी जाना जाता था। कथाओं में इसका उल्लेख मिलता है कि उसके शरीर, उसके साम्राज्य और उसके आसपास हर जगह मवाद, कीचड़, मल-मूत्र जैसी गंदगी व्याप्त थी। जब भगवान कृष्ण ने इसका वध किया, तो इस घोर गंदगी से मुक्ति पाने के लिए उन्हें स्वयं खूब नहाना पड़ा और शरीर पर तेल लगाना पड़ा, ताकि वे इस अपवित्रता से छुटकारा पा सकें। रूप चौदस या नरक चतुर्दशी के पीछे यही मुख्य कारण है—शरीर को शुद्ध और सुंदर बनाना।
वध का रहस्य: धरती माँ और कृष्ण की ‘राजनीति’
जैसा कि हर महाशक्तिशाली राक्षस के साथ होता है, नरकासुर को भी एक विशिष्ट और विपरीत परिस्थिति में ही मारा जा सकता था। उसे यह वरदान प्राप्त था कि उसे उसकी माँ (धरती) ही मार सकती थी। इस वरदान के कारण नरकासुर को पृथ्वी-पुत्र भी कहा जाता था। चूंकि स्वयं पृथ्वी उसे मारने नहीं आ सकती थी, देवताओं ने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की, क्योंकि नरकासुर ने इंद्र के ऐरावत हाथी और अप्सराओं तक का अपहरण कर लिया था।
इस वरकासुर को मारने के लिए कृष्ण ने एक रणनीतिक चाल चली, जिसे कुछ कथाओं में ‘राजनीति’ भी कहा जाता है। उन्होंने सत्यभामा से विवाह किया। सत्यभामा कोई साधारण स्त्री नहीं थीं, बल्कि उन्हें पृथ्वी का अवतार या साक्षात पृथ्वी माना जाता था। कृष्ण ने नरकासुर के साथ युद्ध लड़ा और सत्यभामा की सहायता ली। अंततः, सत्यभामा ने ही कृष्ण के साथ मिलकर नरकासुर का वध किया, जिससे यह वरदान भी पूरा हुआ कि उसे उसकी मां ही मार सकती है, और कृष्ण को भी इसका श्रेय मिला।
नरकासुर की अंतिम इच्छा और प्रकाश का पर्व
जब नरकासुर मरने लगा, तो उसने अपनी अंतिम इच्छा प्रकट की। उसने प्रार्थना की कि लोग उसे कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन याद करें। उसका उद्देश्य था कि लोग यह याद रखें कि गंदे, दूषित और अनैतिक जीवन जीने वाले (यानी ‘नरक’ में रहने वाले) लोगों का क्या अंजाम होता है। हिंदू धर्म सदियों से इस परंपरा को निभाकर उसकी अंतिम इच्छा पूरी करता आया है।
इसके वध के उपलक्ष्य में, उस रात असुरों के अंधकार से मुक्ति मिली और चारों ओर प्रकाश फैल गया। लोगों ने खुशी में दिये जलाए। यही कारण है कि इस दिन दिये जलाए जाते हैं—यह उस अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है।
नरक चतुर्दशी: ‘हाईजीन डे’ या स्वास्थ्य दिवस
मूल रूप से, नरक चतुर्दशी का शाब्दिक अर्थ ही गंदगी और नरक से मुक्ति पाना है। इसे आधुनिक संदर्भ में हम एक प्रकार का ‘हाइजीन डे’ (स्वच्छता दिवस) मान सकते हैं। यह दिन हमें याद दिलाता है कि हमें नरकासुर की तरह शारीरिक और आत्मिक गंदगी को त्यागना चाहिए। इसलिए शास्त्रों में इस दिन स्नान करने, शरीर पर तेल लगाने (उबटन सहित) और सफाई करने का विधान है। लेखक गिरिजेश वशिष्ठ कहते हैं कि जो लोग रोज़ ही अपनी स्वच्छता का पूरा ध्यान रखते हैं, उनके लिए इस दिन क्या अतिरिक्त करना है, इसका स्पष्ट उल्लेख शास्त्रों में नहीं है। यह पर्व बाहरी और आंतरिक शुद्धि और प्रकाश को अपनाने का संदेश देता है।