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NDA सीट बंटवारे पर RJD का वार — मनोज झा बोले, “142-101 में बड़े भाई की भूमिका खत्म कर दी गई”

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पटना/ नई दिल्ली 13 अक्टूबर 2025

JDU-BJP सीट बंटवारे पर मचा सियासी हंगामा, विपक्ष का तीखा वार

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) द्वारा आखिरकार सीट शेयरिंग फार्मूले की आधिकारिक घोषणा कर दी गई, जिसके तहत भारतीय जनता पार्टी (BJP) 142 सीटों पर और जनता दल यूनाइटेड (JDU) 101 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी, लेकिन इस ऐलान के तुरंत बाद ही राष्ट्रीय जनता दल (RJD) ने इसे एक बड़ी राजनीतिक कमजोरी और अधीनता का प्रतीक बताते हुए तीखा और बड़ा हमला बोला। RJD के राष्ट्रीय प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद मनोज झा ने इस पर व्यंग्य करते हुए कहा — “इसे केवल 142-101 का अंकगणित मत कहिए, बल्कि यह कहिए कि बड़े सलीके और सुनियोजित तरीके से जेडीयू के ‘बड़े भाई’ की राजनीतिक भूमिका को पूरी तरह से नेस्तानाबूद कर दिया गया है।”

 उनका यह सीधा और स्पष्ट निशाना सिर्फ सीटों की संख्या पर नहीं था, बल्कि इस बात पर था कि बीजेपी ने न केवल सीटों की संख्या में जेडीयू को स्पष्ट रूप से पीछे छोड़ दिया है, बल्कि दशकों से गठबंधन के प्रमुख चेहरे रहे ‘बड़े भाई’ नीतीश कुमार की राजनीतिक हैसियत और मोलभाव की क्षमता को भी सार्वजनिक रूप से कमतर और गौण साबित कर दिया है, जिससे बिहार की सत्ता के समीकरणों में एक स्थायी बदलाव आ चुका है।

“नीतीश कुमार अब जूनियर पार्टनर हैं, बीजेपी ने सलीके से नींव हिला दी” — मनोज झा

आरजेडी के प्रवक्ता मनोज झा ने इस सीट बंटवारे को केवल सामान्य राजनीतिक गणित नहीं, बल्कि ‘सत्ता की एक रणनीतिक अधीनता’ का साक्षात उदाहरण बताया, जो बीजेपी की विस्तारवादी नीति को दर्शाता है। उन्होंने अपनी बात को और मजबूती देते हुए कहा — “बीजेपी ने अत्यंत सलीके और चुपके से जेडीयू की राजनीतिक रीढ़ को ही तोड़ दिया है। जो पार्टी (जेडीयू) कभी बिहार की राजनीति में ‘बड़े भाई’ की निर्णायक भूमिका में हुआ करती थी, आज उसे मात्र 101 विधानसभा सीटों तक सीमित कर दिया गया है। यह आंकड़ा केवल 142-101 का बंटवारा नहीं है, बल्कि यह बीजेपी के लिए ‘आज्ञापालन और समर्पण’ और जेडीयू के लिए ‘राजनीतिक अपमान’ का एक स्पष्ट फार्मूला है।” 

झा ने आगे जोर देकर कहा कि बिहार का जागरूक मतदाता इन सभी आंतरिक उठापटक को देख रहा है कि कैसे नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली पार्टी को बीजेपी धीरे-धीरे और व्यवस्थित तरीके से अपने नियंत्रण में ले रही है और अंततः निगलने की तैयारी कर रही है। उन्होंने तंज़ कसते हुए इस गठबंधन को “राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन” के बजाय अब ‘राष्ट्रीय दबाव गठबंधन’ (National Pressure Alliance) करार दिया, जिसका अर्थ है कि यह अब आपसी सहमति से नहीं, बल्कि दबाव और मजबूरी से चल रहा है।

जेडीयू कार्यकर्ताओं में निराशा, बीजेपी ने बढ़ाई चुनावी पकड़

बीजेपी और जेडीयू के बीच सीट बंटवारे को लेकर पिछले कई महीनों से जो लंबा और कड़ा गतिरोध चल रहा था, उसका परिणाम अंततः जेडीयू के लिए निराशाजनक रहा। जो फार्मूला अब सार्वजनिक रूप से सामने आया है, उसने जेडीयू के जमीनी कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ नेताओं के बीच असंतोष और निराशा को और भी गहरा कर दिया है। कई जिलों से पार्टी कार्यकर्ताओं ने खुले तौर पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के बढ़ते दबाव के आगे घुटने टेक दिए हैं और अपनी पार्टी की राजनीतिक जमीन को बचाने के बजाय सीटें छोड़ दी हैं। 

यह स्थिति इस बात से स्पष्ट होती है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में दोनों दलों ने सीटों का बंटवारा 50-50 के पूर्ण बराबरी के फार्मूले पर किया था, जबकि अब विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने एकतरफा ‘142-101’ का अनुपात तय कर दिया है, जिससे यह आधिकारिक रूप से साफ हो गया है कि भाजपा अब गठबंधन में निर्णायक रूप से ‘सीनियर पार्टनर’ बन चुकी है। राजनीतिक विश्लेषकों का व्यापक मत है कि बीजेपी ने यह पूरी रणनीति बहुत दूरगामी सोच के साथ अपनाई है, ताकि चुनाव के बाद यदि गठबंधन सरकार बनती है, तो सत्ता की बागडोर और निर्णय लेने की शक्ति पूरी तरह से उसके हाथों में सुरक्षित रहे और वह जेडीयू पर निर्भर न रहे।

महागठबंधन ने साधा निशाना: “बिहार के स्वाभिमान पर प्रहार”

महागठबंधन के नेताओं ने इस असमान सीट बंटवारे को केवल एक आंतरिक राजनीतिक समझौता नहीं, बल्कि “बिहार के राजनीतिक स्वाभिमान और आत्मसम्मान पर किया गया एक गहरा प्रहार” करार दिया है। राजद नेता और गठबंधन के प्रमुख चेहरे तेजस्वी यादव ने इस पर हमलावर होते हुए कहा कि “नीतीश कुमार ने बिहार की राजनीति में आत्मसमर्पण कर दिया है। जो नेता कभी खुद को ‘सुशासन बाबू’ कहकर सुशासन का प्रतीक बताते थे, वे अब बीजेपी के सामने ‘सहमति बाबू’ बनकर खड़े हो गए हैं।” 

 कांग्रेस के प्रवक्ता अजय कपूर ने बीजेपी की इस रणनीति की तुलना अन्य राज्यों से करते हुए कहा कि बीजेपी ने पहले महाराष्ट्र में शिवसेना को राजनीतिक रूप से कमज़ोर किया, फिर पंजाब में अकाली दल को किनारे किया, और अब वह ठीक उसी पैटर्न पर नीतीश कुमार की पार्टी को धीरे-धीरे राजनीतिक रूप से समाप्त कर रही है। वाम दलों के नेताओं ने भी इस घटनाक्रम पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि भाजपा गठबंधन के सहयोगियों को जानबूझकर कमज़ोर करके देश भर में ‘एकदलीय तानाशाही’ और राजनीतिक केंद्रीकरण की दिशा में खतरनाक तरीके से आगे बढ़ रही है, जिससे क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खतरे में है।

क्या जेडीयू की “बड़े भाई” की भूमिका खत्म?

राजनीतिक पर्यवेक्षकों और विशेषज्ञों का सर्वसम्मति से यह मानना है कि 142-101 का यह सीट बंटवारा बिहार की सत्ता के समीकरणों को न केवल अस्थायी रूप से, बल्कि स्थायी रूप से बदलने जा रहा है। एक तरफ, 2010 तक के गठबंधन काल में नीतीश कुमार जेडीयू को ‘मुख्य चेहरा’ बनाए रखते हुए हमेशा गठबंधन में प्रमुख भूमिका निभाते थे, वहीं अब 2025 में वही जेडीयू ‘भाजपा के राजनीतिक साए’ में सिमटती हुई दिखाई दे रही है। बीजेपी की रणनीति अब स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी है — “पहले धीरे-धीरे साथ चलो, फिर समय आने पर पूरा रास्ता खुद तय करो और सहयोगी को पीछे छोड़ दो।” 

यह वही सोची-समझी रणनीति है जिसे महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड जैसे प्रमुख राज्यों में भी सफलतापूर्वक आजमाया गया था। जेडीयू का इस असमान बंटवारे को मौन स्वीकार कर लेना इस बात का निर्णायक संकेत है कि पार्टी अब गठबंधन के भीतर ‘निर्णायक शक्ति’ की भूमिका से हटकर केवल ‘अनुपालक’ या ‘सहायक’ की भूमिका निभाने को मजबूर हो चुकी है, जिसने बिहार की राजनीतिक शक्ति का केंद्र पूरी तरह से पटना से दिल्ली स्थानांतरित कर दिया है।

बिहार की राजनीति में बदलते समीकरण और ‘बड़े भाई’ की विदाई

आरजेडी नेता मनोज झा का तीखा और सटीक व्यंग्य बिहार की बदलती राजनीतिक सच्चाई को बहुत संक्षेप में बयां करता है — “142-101 सिर्फ़ अंक नहीं हैं, बल्कि ये सत्ता के स्थायी संतुलन के प्रतीक हैं।” यह असंतुलित फार्मूला अब निर्णायक रूप से यह बताता है कि बीजेपी अब देश के किसी भी राज्य में अपने क्षेत्रीय सहयोगी को बराबरी का या बड़े भाई का दर्जा देने के मूड में बिल्कुल नहीं है। 

नीतीश कुमार के लिए यह गठबंधन अब जितना राजनीतिक रूप से अनिवार्य हो गया है, उतना ही उनके व्यक्तिगत और पार्टीगत भविष्य के लिए जोखिम भरा भी साबित हो सकता है — क्योंकि अब हर सीट के टिकट वितरण और सरकार के हर बड़े निर्णय पर भाजपा की मुहर और अंतिम स्वीकृति अनिवार्य होगी। 

महागठबंधन इस पूरे घटनाक्रम को “राजनीतिक अधीनता” का उदाहरण बनाकर बिहार की जनता के बीच एक बड़ा और भावनात्मक चुनावी मुद्दा बनाने की तैयारी में है। आने वाले हफ्तों में, यह ‘142-101’ का अनुपात बिहार की राजनीति में महज़ एक सीट बंटवारा नहीं रहेगा — बल्कि यह शक्ति समीकरण का एक नया और निर्णायक अध्याय साबित होगा, जहाँ बिहार के ‘बड़े भाई’ की राजनीतिक विदाई अब लगभग सुनिश्चित होती दिख रही है।

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