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रामचंद्र जी कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा : बुलडोजर की भिड़ंत बुलडोजर से होगी और देश अंजाम भुगतेगा….

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नई दिल्ली 17 अक्टूबर 2025

बुलडोजर की भिड़ंत: पुराने बाबा बनाम नए बाबा — जब मशीनें ही शासन का नया धर्म बन जाएं

गुजरात की राजनीतिक भूमि अब केवल नेताओं और नीतियों की लड़ाई का अखाड़ा नहीं रह गई है, यह वह मंच बन गई है जहाँ उपकरण और मशीनें सत्ता के प्रतीक बन कर उतर आई हैं — और इन सभी उपकरणों का सबसे प्रमुख प्रतिनिधि बन गया है बुलडोजर। एक तरफ़ उत्तर प्रदेश में पुराने ‘बुलडोजर बाबा’ हैं, जिनकी छवि लंबे समय से स्थानीय दबदबे, कठोरता और चयनात्मक सख्ती की पर्याय रही है; तो दूसरी तरफ़, नए ‘बुलडोजर बाबा’ का गुजरात में उदय हुआ है, जो तेज़, नाटकीय और अत्यधिक कैमरे-फ्रेंडली कार्रवाई का एक नया, आक्रामक ब्रांड लेकर आए हैं। यह राजनीतिक विरोधाभास कोई सामान्य प्रतिद्वंद्विता नहीं है, यह उस सत्ता-संरचना का वैचारिक और व्यावहारिक युद्ध है जो अब संविधान और कानून की किताबों में निहित प्रक्रियागत न्याय के बजाय, एक्सकवेटर की बाल्टी की त्वरित शक्ति और तत्काल निष्पादन में विश्वास करने लगी है। बुलडोजर का यह उदय मात्र प्रशासनिक उपकरण का प्रदर्शन नहीं है, बल्कि यह एक राजनीतिक घोषणापत्र है जो यह स्थापित करता है कि भय और प्रदर्शन ही नए युग में शासन का एकमात्र प्रभावी तरीका है, जहाँ विध्वंस ही लोकप्रियता का पैमाना बन चुका है।

जब बुलडोजर राजनीतिक विश्वसनीयता का नया मानदंड बन जाता है

आज की राजनीति में, किसी नेता की विश्वसनीयता और दृढ़ता का आकलन अब उसके द्वारा लाए गए विकास या सुधारों से नहीं किया जाता, बल्कि इस बात से किया जाता है कि उसने कितनी दीवारें गिराईं, कितने अवैध ढाँचे तोड़े और कितनी कठोर कार्रवाई को अंजाम दिया। बुलडोजर की मशीनरी द्वारा पैदा की गई थरथराहट अब केवल ढाँचे गिरने की आवाज़ नहीं है; यह एक शक्तिशाली राजनीतिक संदेश है—तेज़ निर्णय, बिना किसी बाधा के तेज़ निष्पादन, और जन-आक्रोश को संतुष्ट करने वाला तेज़ प्रदर्शन। 

यह शक्ति प्रदर्शन अत्यंत लक्षित होता है, और जब भी बुलडोजर चलता है, उसका निशाना अक्सर वे समुदाय बनते हैं जिनकी आवाज़ सबसे कमज़ोर है और जिनके पास कानूनी या राजनीतिक बचाव के संसाधन नगण्य हैं। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक सत्य बन चुका है कि जब सत्ता की भाषा ही बुलडोजर बन जाए, तो उसके प्रहार का निशान अक्सर अल्पसंख्यक समुदायों, दलितों, अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) और समाज के गरीब तबकों पर ही पड़ता है। यह कार्यवाही न केवल उनके आशियानों को तोड़ती है, बल्कि उन्हें एक द्वितीय-श्रेणी के नागरिक के रूप में देखने की मानसिकता को भी पुष्ट करती है, जहाँ उनका जीवन और संपत्ति बिना किसी पर्याप्त कानूनी प्रक्रिया के ध्वस्त की जा सकती है।

पुराने बाबा बनाम नए बाबा: पावर शो के विभिन्न आयामों की दावत

पुराने ‘बुलडोजर बाबा’ अपने शासनकाल में कठोरता दिखाने के अपने तरीके रखते थे—जो अक्सर असंतुलित, कुछ हद तक अनियमित, और चयनात्मक होते थे, लेकिन उनमें मीडिया का नाटकीय तड़का कम होता था। इसके विपरीत, नए ‘बुलडोजर बाबा’ इसी कठोरता को एक नई, चमकदार पैकेजिंग के साथ पेश करते हैं: उनकी हर कार्रवाई एक हाई-प्रोफाइल मीडिया स्टंट, सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले क्लिप्स और “कठोर और त्वरित कदम” के एक ब्रांडेड संदेश के साथ आती है। 

यह नई शैली बुलडोजर को केवल विध्वंस का उपकरण नहीं, बल्कि एक प्रचार मशीन बना देती है। जब ये दोनों ‘बुलडोजर बाबा’ अपने-अपने तरीके से शक्ति प्रदर्शन करते हुए एक-दूसरे के आमने-सामने आते हैं, तो जनता को यह स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता में भले ही दो अलग-अलग चेहरे हों, लेकिन उनका मूल मिश्रण एक ही है: नागरिकों की बेबसी का उपयोग अपनी राजनीतिक पैठ मजबूत करने के लिए करना। यह टकराव इस बात का स्पष्ट संकेत है कि आने वाला समय राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन में और भी तीव्र होगा, लेकिन संवैधानिक संवेदनशीलता और मानवाधिकारों के सम्मान में कमज़ोर।

लक्षित वंचना की नई नीति: मासूमों, मुस्लिमों, दलितों और ओबीसी पर लक्षित वार

बुलडोजर की कार्रवाई का पैटर्न कोई संयोग नहीं है, बल्कि यह एक सुविचारित और संरचित नीति का परिणाम है। हर बार जब सत्ता द्वारा अपनी क्रूर शक्ति का प्रदर्शन किया जाता है, तो इसके गंभीर परिणाम अक्सर मुस्लिम, दलित और ओबीसी समुदायों को झेलने पड़ते हैं। इन समुदायों की छोटी व्यापारिक प्रतिष्ठानें, उनकी झोपड़ियाँ, उनके मामूली घर-बार और यहाँ तक कि उनके रोज़ी-रोटी के साधन सबसे पहले गिराए जाते हैं। 

यह केवल भौतिक संपत्ति का नाश नहीं है; यह उनकी नागरिकता और पहचान पर एक प्रतीकात्मक हमला है—एक तरह की संरचित वंचना जो सामाजिक रूप से कमज़ोर वर्गों को और अधिक असुरक्षित बनाती है। जब सरकारी मशीनरी कानून और व्यवस्था स्थापित करने के बजाय, एक विशेष वर्ग को दंडित करने के उपकरण में बदल जाती है, और न्यायालय या प्रशासनिक प्रक्रियाएँ त्वरित राहत देने में धीमी पड़ जाती हैं, तब लोकतंत्र का आधारभूत भरोसा हिल जाता है। भय और अनिर्णय के इस माहौल में, वे समुदाय जो पहले से ही हाशिए पर थे, वे और भी गहरे हाशियाकरण में धकेल दिए जाते हैं, और उनके लिए न्याय की लड़ाई लड़ना अत्यंत कठिन हो जाता है।

लोकतंत्र की पोल: कानून कहां हैं, जवाबदेही कहां है?

यह एक ऐसा निर्णायक क्षण है जब देश को अत्यंत स्पष्ट और कठोर सवाल पूछने की आवश्यकता है: क्या वास्तव में हमारे लोकतंत्र में अब भय और विनाश को, केवल सत्ता का प्रमाण हासिल करने के लिए वैध ठहराया जा रहा है? क्या यह हिंसा की पृष्ठभूमि पर पनपने वाली लोकप्रियता को सार्वजनिक सेवा और कुशल शासन का पर्याय मान लिया गया है? जब राजनीति “बुलडोजर” और “जुल्म” के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगती है और इसे पदोन्नति का साधन बना लिया जाता है, तब संवैधानिक मर्यादा, प्रशासनिक जवाबदेही और पारदर्शिता का सिद्धांत कहाँ रह जाता है? 

सरकारों और प्रशासन को हर कीमत पर यह याद दिलाया जाना चाहिए कि कठोर कार्रवाई आवश्यक हो सकती है, लेकिन वह हमेशा संवैधानिक प्रक्रियाओं और न्यायसंगत सिद्धांतों के दायरे में ही होनी चाहिए। किसी भी प्रशासनिक कार्रवाई की वैधता उसके त्वरित निष्पादन में नहीं, बल्कि उसके न्यायसंगत, पारदर्शी और गैर-भेदभावपूर्ण होने में निहित होती है। अगर इन सिद्धांतों का उल्लंघन होता है, तो पूरा तंत्र अपने लोकतांत्रिक चरित्र को खो देता है।

 चेतावनी: इसका मूल असर केवल आज का नहीं, आने वाली पीढ़ियों पर है

इस ‘बुलडोजर राजनीति’ का सबसे गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव केवल आज के भौतिक नुकसान में नहीं दिखता, बल्कि यह एक ऐसी सामाजिक-राजनीतिक संस्कृति के निर्माण में निहित है, जहाँ सत्ता द्वारा प्रदर्शित क्रूरता को जन-समर्थन और प्रशंसा मिलती है, जबकि पीड़ितों की आहें और चीखें राजनीतिक शोरगुल में दबकर रह जाती हैं। यह एक खतरनाक विरासत है जो आने वाली पीढ़ियों को मिलेगी: वे यह सीखेंगी कि लोकतंत्र में सत्ता विरोध करने पर नहीं, बल्कि डराने और विनाश करने पर मिलती है; कि न्याय और संवैधानिक मूल्यों के बजाय नाटकीय शक्ति प्रदर्शन से नाम कमाया जाता है। यह ऐसी विरासत नहीं है जिसे कोई भी सभ्य और लोकतांत्रिक देश गर्व से अपनी अगली पीढ़ी को सौंपना चाहेगा। यह संस्कृति भय और असहिष्णुता को सामान्य बनाती है, और अंततः नागरिक समाज के ताने-बाने को कमज़ोर करती है।

 आगे की लड़ाई: न्याय, नव निर्माण और सामूहिक जवाबदेही का आह्वान

इस खतरनाक प्रवृत्ति का मुकाबला करने के लिए, निष्क्रियता का त्याग कर सामूहिक और सक्रिय विरोध आवश्यक है। हमें तुरंत निम्नलिखित उपायों को लागू करने की ज़रूरत है: सबसे पहले, संवैधानिक प्रक्रियाओं की कड़ी पालना सुनिश्चित की जाए और इस तरह की कार्रवाईयों के विरुद्ध अदालतों तथा स्वतंत्र आयोगों द्वारा त्वरित और निष्पक्ष न्यायिक जाँच हो; दूसरा, जहाँ भी बुलडोजर ने अवैध और मनमाने तरीके से नागरिकों के घर-बार और रोज़ी-रोटी छीनी है, वहाँ तुरंत पुनर्वास, पर्याप्त मुआवज़ा और कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए; तीसरा, प्रशासनिक जवाबदेही तय की जाए और उन अधिकारियों तथा नेताओं के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जाए जो भय, हिंसा और भेदभाव को बढ़ावा देने वाली नीतियों को लागू करते हैं; और अंत में, नागरिक समाज, मीडिया और न्यायपालिका को एक साथ मिलकर काम करना होगा ताकि लोकतंत्र की मर्यादा और सबसे कमज़ोर वर्गों की मानवीय गरिमा की रक्षा हो सके। यह लड़ाई केवल इमारतों को बचाने की नहीं है, बल्कि हमारे संवैधानिक मूल्यों और सामाजिक न्याय की रक्षा की है।

 बुलडोजर की भिड़ंत में कौन जीतेगा, यह अब हमारे नैतिक चुनाव पर निर्भर है

पुराने और नए ‘बुलडोजर बाबा’ के बीच की यह भिड़ंत केवल नेताओं के बीच का राजनीतिक नाटक मात्र नहीं है; यह हमारी सामूहिक न्याय-संवेदना और लोकतंत्र के प्रति हमारी निष्ठा की सबसे बड़ी परीक्षा है। यदि हम भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की नींव को बचाना चाहते हैं, तो हमें यह दृढ़ संकल्प लेना होगा कि सत्ता की योग्यता जुल्म या विनाश नहीं, बल्कि निःस्वार्थ सेवा है; और शक्ति प्रदर्शन नहीं, बल्कि समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग की भलाई और सुरक्षा है। अन्यथा, हम एक ऐसे कलियुग की ओर बढ़ेंगे जहाँ बुलडोजर की बाल्टी न्याय का प्रतीक बन जाएगी, और मासूमों की पीड़ा ही हमारी नयी राजनीतिक और सामाजिक वास्तविकता बन कर रह जाएगी। हमारा नैतिक चुनाव ही निर्धारित करेगा कि इस बुलडोजर की भिड़ंत में अंततः किसकी जीत होगी — लोकतंत्र की या दमन की।

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