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राहुल गांधी का “वोट चोरी” पर बड़ा खुलासा: लोकतंत्र की रक्षा के लिए सियासी रणभूमि में उतरे कांग्रेस नेता

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नई दिल्ली। भारतीय राजनीति में कई बार चुनावी धांधली के आरोप गूंजे हैं, लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी का ताज़ा आरोप इसे एक अभूतपूर्व और गंभीर स्तर पर ले आया है। राहुल गांधी ने शुक्रवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में न सिर्फ चुनावी प्रक्रिया पर सवाल उठाए, बल्कि ठोस आंकड़ों और जांच रिपोर्ट के आधार पर यह दावा किया कि देश में संगठित तरीके से “वोट चोरी” की जा रही है। उनके शब्दों में, यह “महान आपराधिक षड्यंत्र” है, जो सिर्फ विपक्ष को हराने के लिए नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करने के लिए रचा गया है।

राहुल गांधी ने साफ कहा कि यह कोई तकनीकी गलती या मामूली लापरवाही का मामला नहीं है, बल्कि चुनाव आयोग और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बीच मिलीभगत से चलाया जा रहा एक सुनियोजित अभियान है। उन्होंने अपने आरोप महज़ बयानबाज़ी तक सीमित नहीं रखे, बल्कि बेंगलुरु सेंट्रल लोकसभा के तहत आने वाली महादेवपुरा विधानसभा सीट का एक विस्तृत केस स्टडी भी प्रस्तुत किया। कांग्रेस की 40 सदस्यीय टीम द्वारा छह महीने में की गई इस जांच में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए — 6.5 लाख वोटों में से लगभग 1,00,250 वोट फर्जी या संदिग्ध पाए गए।

राहुल ने विस्तार से समझाया कि “वोट चोरी” किस तरह की जाती है। उनके मुताबिक, इसमें पाँच प्रमुख तरीके इस्तेमाल हुए —

  1. डुप्लीकेट वोटर: एक ही व्यक्ति का नाम अलग-अलग सूचियों में दर्ज, ऐसे 11,965 नाम पाए गए।
  2. फर्जी और अमान्य पते: 40,009 वोटरों का कोई वास्तविक पता या अस्तित्व ही नहीं था।
  3. एक ही पते पर असामान्य संख्या में वोटर: 10,452 संदिग्ध नाम ऐसे थे जो किसी एक ही पते पर दर्ज थे।
  4. अमान्य या संदिग्ध फ़ोटो: 4,132 मतदाता ऐसे थे जिनकी पहचान ही संदिग्ध थी
  5. फॉर्म-6 का दुरुपयोग: 33,692 नए वोटरों के नाम जोड़े गए, जबकि उनकी पात्रता संदिग्ध थी।

राहुल गांधी का आरोप है कि यह सिर्फ एक निर्वाचन क्षेत्र की तस्वीर है, जबकि इसी पैटर्न पर देश भर में गड़बड़ियां की गई हैं। उन्होंने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां लगभग 40 लाख संदिग्ध वोटर सूची में जोड़े गए हैं — जिनमें मृत व्यक्ति, सत्यापन रहित नाम और अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में दोहराए गए मतदाता शामिल हैं। कर्नाटक में भी हजारों फर्जी नाम जोड़कर चुनावी परिणामों को प्रभावित करने की कोशिश की गई।

कांग्रेस नेता का कहना है कि यह धांधली किसी स्थानीय स्तर की गलती नहीं, बल्कि डेटा ऑपरेटर कंपनियों, निजी एजेंसियों और राजनीतिक आईटी सेल के गठजोड़ का नतीजा है, जो एक संगठित नेटवर्क के तहत काम कर रहा है। उनका तर्क है कि भाजपा ने इस पूरी मशीनरी को अपने चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल किया और चुनाव आयोग ने पारदर्शिता दिखाने के बजाय इस प्रक्रिया पर पर्दा डालने का काम किया।

राहुल ने एक और गंभीर आरोप लगाया — कि कई मतदान केंद्रों के सीसीटीवी फुटेज जानबूझकर नष्ट कर दिए गए ताकि वास्तविकता सामने न आ सके। उन्होंने कहा कि जब चुनाव कराने वाली संवैधानिक संस्था ही निष्पक्षता खो दे, तो लोकतांत्रिक ढांचा टूटने के कगार पर पहुंच जाता है।

इन आरोपों के बाद चुनाव आयोग ने तुरंत राहुल गांधी को नोटिस भेजा और Rule 20(3)(b) के तहत उनसे शपथपत्र में संदिग्ध वोटरों की पूरी सूची मांगी। आयोग ने यह भी चेतावनी दी कि आरोप झूठे पाए गए तो भारतीय दंड संहिता की धारा 227 के तहत सात साल तक की सजा हो सकती है। लेकिन राहुल गांधी का कहना है कि वह सबूतों के साथ तैयार हैं और अदालत से लेकर संसद तक इस मुद्दे को उठाने से पीछे नहीं हटेंगे।

भाजपा ने इन आरोपों को खारिज करते हुए इसे कांग्रेस की “राजनीतिक हताशा” का परिणाम बताया, लेकिन राहुल का कहना है कि यह लड़ाई सिर्फ कांग्रेस की नहीं, बल्कि हर उस भारतीय की है जो अपने वोट के अधिकार पर भरोसा करता है। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर इस मामले में जल्द ही स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच नहीं हुई, तो कांग्रेस देशव्यापी आंदोलन छेड़ेगी।

विशेषज्ञ मानते हैं कि राहुल गांधी का यह कदम एक बड़े राजनीतिक नैरेटिव को जन्म दे सकता है। अगर उनके आरोप सही साबित होते हैं, तो यह भारतीय लोकतंत्र में पारदर्शिता और निष्पक्षता की बहाली के लिए ऐतिहासिक क्षण होगा। वहीं, यह मामला विपक्षी एकजुटता को भी मजबूती दे सकता है, क्योंकि “वोट चोरी” का मुद्दा केवल एक पार्टी का नहीं, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक ढांचे का सवाल है।

राहुल गांधी का यह रुख उन्हें सिर्फ एक विपक्षी नेता से बढ़ाकर लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में स्थापित करने की कोशिश भी है। वह यह संदेश देना चाहते हैं कि सत्ता चाहे जिसके पास हो, अगर लोकतांत्रिक संस्थाओं की निष्पक्षता खतरे में है, तो आवाज़ उठाना हर नागरिक का कर्तव्य है। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह मुद्दा एक कानूनी और संस्थागत बदलाव की ओर ले जाएगा, या फिर यह भी भारतीय राजनीति के शोर में दबकर रह जाएगा।

 

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