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ताकत “राजा बाबू” बनने से नहीं, नीतियों से आती है

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ताकत “राजा बाबू” बनने से नहीं, नीतियों से आती है

एक अमीर आदमी का बेटा जो सिर्फ़ मज़े के लिए अलग-अलग वर्दियाँ पहनकर कैमरे के सामने पोज़ देता था — यही था गोविंदा का राजा बाबू। पांचवीं फेल, मगर फोटो खिंचवाने का बड़ा शौक़ीन! कभी पुलिस की वर्दी में, कभी वकील बनकर, तो कभी डॉक्टर के रूप में पोज़ देकर खुद को “सबकुछ” दिखाने की कोशिश करता था। देखने में मज़ेदार किरदार, लेकिन वाकई अपने समय से आगे की सोच वाली फ़िल्म थी — क्योंकि तब किसी ने नहीं सोचा था कि देश में एक असली “राजा बाबू” भी तैयार हो रहा है।आज सत्ता का हाल भी कुछ ऐसा ही है। असली नीतियों और ठोस काम की जगह अब दिखावे की तस्वीरें और वर्दी का आकर्षण हावी है। सत्ता का असली बल जनता की सेवा, पारदर्शिता और नीति के दम पर आता है — न कि वर्दी पहनकर कैमरे के सामने वीर बनने से। नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों ने कभी सेना की वर्दी नहीं पहनी, क्योंकि वे जानते थे कि सेना की ताकत देश की होती है, किसी व्यक्ति या पद की नहीं। लेकिन आज का “राजा बाबू” यह भूल गया है कि राष्ट्र का नेतृत्व सेल्फ़ी से नहीं, सोच और संवेदना से बनता है।

संवैधानिक दायित्व को सर्वोपरि, ना की कार्टूनपंती 

 भारत की समृद्ध राजनीतिक और लोकतांत्रिक परंपरा में यह एक गौरवपूर्ण सच्चाई रही है कि देश के शीर्ष नेतृत्व ने हमेशा लोकतांत्रिक मर्यादाओं, संस्थागत अनुशासन और संवैधानिक दायित्व को सर्वोपरि माना है। पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक—देश का नेतृत्व करने वाले कांग्रेस पार्टी के किसी भी प्रधानमंत्री ने कभी भी सेना की वर्दी पहनकर शक्ति प्रदर्शन करने की आवश्यकता महसूस नहीं की। इन नेताओं ने एक अटूट विश्वास व्यक्त किया कि भारत जैसे विशाल लोकतंत्र की वास्तविक ताकत उसके प्रधानमंत्री की पोशाक या व्यक्तिगत दिखावे में नहीं है, बल्कि देश के प्रति उनकी दूरदर्शिता, प्रभावी नीति, अडिग निर्णय क्षमता और लोकतांत्रिक मूल्यों में निहित है। उनका मानना था कि प्रधानमंत्री का पद सैन्य नायक का नहीं, बल्कि जनता के प्रतिनिधि का है, जो संविधान की मर्यादाओं के भीतर रहकर राष्ट्र का मार्गदर्शन करता है। इस परंपरा को कायम रखते हुए, इन प्रधानमंत्रियों ने यह रेखांकित किया कि नेतृत्व की असली शक्ति सत्ता नहीं, बल्कि सेवा की भावना से उत्पन्न होती है।

शक्ति का प्रदर्शन नहीं, विजन और नीतिगत दृढ़ता: इंदिरा और नेहरू की विरासत

कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों ने हमेशा ही सैन्य दिखावे से दूर रहकर यह साबित किया कि राजनीतिक इच्छाशक्ति किसी भी वर्दी या प्रतीक से कहीं अधिक शक्तिशाली होती है। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लगभग 17 वर्षों तक देश का नेतृत्व करते हुए एक नए भारत की नींव रखी, पंचशील सिद्धांत दिया और औद्योगिक विकास की दूरगामी नीति बनाई। यहाँ तक कि भारत-चीन युद्ध जैसी कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था की गरिमा बनाए रखी और कभी भी सेना की वर्दी नहीं पहनी। इसी तरह, इंदिरा गांधी, जिन्होंने लगभग 16 वर्षों तक देश का नेतृत्व किया और जिन्हें भारतीय इतिहास की सबसे निर्णायक नेताओं में गिना जाता है, ने यह दिखाया कि उनकी ताकत उनके विजन में थी। 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बांग्लादेश का निर्माण कराने वाली इंदिरा गांधी ने बिना किसी सैन्य वेशभूषा के ही भारत को परमाणु शक्ति बनाया, हरित क्रांति से देश को आत्मनिर्भरता दिलाई और विदेशी दबावों को ठुकराते हुए राष्ट्र की गरिमा को सर्वोपरि रखा। इन नेताओं ने यह स्थापित किया कि वास्तविक शक्ति शोर से नहीं, बल्कि सोच और निर्णायक कार्रवाई से पैदा होती है।

राजीव गांधी से मनमोहन सिंह तक: संवैधानिक दायित्व और मौन नेतृत्व

कांग्रेस की राजनीतिक संस्कृति ने प्रधानमंत्री पद को हमेशा जनसेवक के रूप में देखा, न कि प्रचार के मंच के रूप में। राजीव गांधी, देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री, ने पाँच वर्षों के अपने कार्यकाल में भारत को तकनीकी क्रांति की दिशा दी; उनके द्वारा कंप्यूटर, टेलीकॉम और शिक्षा के क्षेत्र में लाए गए बदलावों ने भारत को 21वीं सदी की दहलीज तक पहुँचाया। उन्होंने भी सुरक्षा के मोर्चे पर देश को मजबूती दी, लेकिन कभी भी स्वयं को सेना का प्रतीक नहीं, बल्कि राष्ट्रनिर्माण का सिपाही बताया। इसी परंपरा को डॉ. मनमोहन सिंह ने आगे बढ़ाया, जिन्होंने दस वर्षों तक प्रधानमंत्री रहते हुए भारत की अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई। 2008 के मुंबई हमलों के बाद भी उन्होंने संयम और दृढ़ता से काम लिया और कूटनीति के ज़रिए भारत की साख को बचाया। डॉ. सिंह ने कभी भी शक्ति का प्रदर्शन नहीं किया, बल्कि नीतिगत फैसलों और मौन लेकिन मज़बूत नेतृत्व से यह साबित किया कि देश का नेतृत्व संविधान की मर्यादा और जनता के विश्वास पर टिका होता है। नेहरू, इंदिरा, राजीव और मनमोहन—इन सभी प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में देश ने युद्ध और शांति दोनों ही देखे, लेकिन नेतृत्व और सैन्य बल के बीच की संवैधानिक रेखा कभी धुंधली नहीं हुई।

लोकतांत्रिक आत्मा की शक्ति और आज के दौर में तुलना का सवाल

वर्तमान दौर में जब कुछ नेताओं के लिए कैमरे के सामने सेना की वर्दी पहनना या सैन्य वेशभूषा का प्रदर्शन करना “देशभक्ति का प्रतीक” माना जाने लगा है, तब यह ऐतिहासिक तथ्य हमें याद दिलाता है कि वास्तविक देशभक्ति दिखावे में नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक दायित्व और संस्थागत ईमानदारी में होती है। भारत के इन पूर्व प्रधानमंत्रियों ने यह उदाहरण देकर बताया कि नेतृत्व की ताकत जनता के विश्वास, संविधान की मर्यादा और लोकतांत्रिक परंपरा में निहित होती है, न कि किसी सैन्य वेशभूषा में। कांग्रेस की यह राजनीतिक संस्कृति यह साबित करती है कि भारत की असली शक्ति उसकी लोकतांत्रिक आत्मा है। नेहरू से लेकर मनमोहन तक, हर कांग्रेस प्रधानमंत्री ने यह सिद्ध किया कि उन्हें कभी भी सेना की वर्दी पहनने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई, क्योंकि उन्हें मालूम था कि “राष्ट्र का नेता तब सबसे मज़बूत होता है, जब वह सत्ता नहीं, सेवा की वर्दी पहनता है।”

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