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मोदी के घर के मेहमान थे PK, अब ‘BJP दबाव’ पर शोर क्यों?

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नई दिल्ली / पटना  22 अक्टूबर 2025

विशेष राजनीतिक विश्लेषण

जन सुराज अभियान के संस्थापक प्रशांत किशोर (PK) ने बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले यह दावा करके राजनीतिक गलियारों में एक नई सनसनी फैला दी है कि “BJP दबाव” के कारण उनकी पार्टी के तीन प्रमुख उम्मीदवारों को नामांकन वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा है। हालांकि, यह बयान एक तीखे सवाल को जन्म देता है: क्या वही प्रशांत किशोर, जो कभी चार साल तक नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री आवास पर रहकर उनकी राजनीतिक रणनीति तैयार करते थे, अब अपने ही बनाए राजनीतिक जाल या तंत्र के दबाव की शिकायत कर रहे हैं? प्रशांत किशोर का ‘मोदी युग’ कनेक्शन एक जगजाहिर पृष्ठभूमि है; वे 2011 से 2014 तक गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री निवास पर रहे थे, जहाँ उन्होंने ‘ब्रांड मोदी’ की राजनीतिक रणनीति गढ़ने और बीजेपी को “विकास पुरुष” की छवि देने में एक अहम भूमिका निभाई थी। 

कई राजनीतिक विश्लेषक आज यह आरोप लगाते हैं कि जिस प्रचार तंत्र और शक्ति केंद्र से वे अब शिकायत कर रहे हैं, उसी तंत्र की नींव रखने और उसे मजबूत करने में प्रशांत किशोर की अपनी भागीदारी रही है। इस ऐतिहासिक संबंध को देखते हुए, उनकी मौजूदा पीड़ित होने की शिकायत को विपक्ष और सियासी जानकार संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं।

राजनीतिक पहेली: जन सुराज एक ‘स्वतंत्र विकल्प’ है, या BJP की ‘बी टीम’?

प्रशांत किशोर ने हाल ही में अपने तीन उम्मीदवारों—अखिलेश साहा, डॉ. सत्य प्रकाश तिवारी और शशि शेखर सिन्हा—पर बीजेपी नेताओं द्वारा दबाव बनाए जाने और “रिश्तेदारों या दोस्तों के ज़रिए डराए जाने” का आरोप लगाते हुए कहा कि “बीजेपी मेरे उम्मीदवारों से डरती है।” लेकिन सियासी जानकार इस दावे को ‘नैरेटिव बनाने’ की पुरानी रणनीति का हिस्सा मान रहे हैं। राजनीतिक गलियारों में अब यह गंभीर सवाल उठ रहा है कि क्या जन सुराज वास्तव में एक “स्वतंत्र और वैकल्पिक विकल्प” है, या फिर बिहार में भाजपा की “बी टीम” के रूप में काम कर रहा है? यह संदेह इसलिए भी गहरा रहा है क्योंकि प्रशांत किशोर ने अपने अभियान के दौरान बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व या प्रधानमंत्री मोदी पर कभी सीधा हमला नहीं किया है, और न ही उन्होंने मोदी के कार्यकाल की नीति-आधारित कोई बड़ी आलोचना की है। 

इसके बजाय, उनके अभियान का मुख्य निशाना हमेशा “नितीश कुमार” और महागठबंधन ही रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों का स्पष्ट कहना है कि “यह वही पुराना प्लान है—विपक्ष को कमजोर करना और बिहार में BJP का रास्ता साफ़ रखना।” सोशल मीडिया पर भी यह आक्रोश और संदेह दिखाई दे रहा है, जहाँ यूजर्स व्यंग्य कर रहे हैं कि “पीके वही कर रहे हैं जो मोदी के राजनैतिक मॉडल में फिट बैठता है—‘नैरेटिव बनाओ, फिर खुद को पीड़ित दिखाओ’।”

 ‘ब्रांड पॉलिटिक्स’ के जाल में फंसा रणनीतिकार या ‘मास्टर मूव’?

प्रशांत किशोर इस चुनावी माहौल में खुद को “बीजेपी के खिलाफ खड़ी हुई एक नई ताकत” के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि, वर्तमान समीकरण और रणनीति में निहित मौन कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। उनका यह कहना कि बीजेपी दबाव डाल रही है, विरोधाभासी है क्योंकि उन्होंने वर्षों तक बीजेपी के रणनीतिक केंद्र में काम किया है। यह परिस्थिति एक जटिल राजनीतिक पहेली खड़ी करती है: क्या प्रशांत किशोर अब खुद अपने ही बनाए ‘ब्रांड पॉलिटिक्स’ के जाल में उलझ गए हैं, जहाँ उनके अतीत ने उनके वर्तमान के दावों को संदिग्ध बना दिया है?

 या, इसके विपरीत, यह बिहार में बीजेपी के लिए एक “मास्टर मूव” हो सकता है—जहाँ जन सुराज का अभियान और उसका विरोध भी अंततः बीजेपी के चुनावी लाभ के लिए ही काम कर रहा है। इस पूरी घटना का निष्कर्ष यही है कि लोकतंत्र में रणनीतिकार जब विचारधारा से ज़्यादा सौदेबाजी और व्यक्तिगत ब्रांडिंग पर टिके होते हैं, तो उनके हर कदम पर संदेह होना स्वाभाविक है। बिहार की राजनीति में यह ‘दबाव’ एक बड़ी खबर है, लेकिन इसका स्रोत और उद्देश्य अभी भी गहन राजनीतिक विश्लेषण की मांग करता है।

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