नई दिल्ली 1 अक्टूबर 2025
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने गाज़ा संकट को सुलझाने के लिए 20 बिंदुओं पर आधारित एक शांति प्रस्ताव रखा है। कागज़ पर यह योजना भले ही “आशा” जैसी दिखे, लेकिन ज़मीन पर इसे लागू करना उतना ही कठिन है जितना रेगिस्तान में नखलिस्तान खोजना। कारण साफ़ है — यह योजना वास्तविकताओं से दूर और राजनीतिक जटिलताओं से घिरी हुई है।
हकीकत और योजना का टकराव
किसी भी शांति प्रस्ताव की सफलता इस पर निर्भर करती है कि वह सभी पक्षों को समान रूप से बाध्य कर सके। ट्रम्प का प्रस्ताव इज़रायल को सुरक्षा की पूरी स्वतंत्रता देता है, लेकिन हामास को हथियार छोड़ने और बंधक रिहा करने पर मजबूर करता है। सवाल यह है कि क्या हामास इतनी आसानी से हथियार छोड़ेगा? और क्या नेतन्याहू की सख़्तपंथी सरकार कभी फ़िलिस्तीनियों को वास्तविक अधिकार देने को तैयार होगी?
राजनीतिक बाधाएँ सबसे बड़ी रुकावट
यह प्रस्ताव ऐसे समय में आया है जब नेतन्याहू की कैबिनेट में इटमार बेन-ग्विर और स्मोट्रिच जैसे कट्टरपंथी मंत्री हैं, जिनकी राजनीति ही “कोई समझौता नहीं” पर आधारित है। दूसरी तरफ हामास अपनी “प्रतिरोध की राजनीति” से पीछे हटने को तैयार नहीं। ऐसे में यह योजना उस घर जैसी है जिसके चारों खंभे ही कमजोर हों।
अतीत से सबक लेना होगा
2002 का “रोड मैप टू पीस” भी कागज़ पर शानदार था लेकिन राजनीति और कट्टरपंथ ने उसे निगल लिया। ट्रम्प की यह योजना भी कहीं उसी किस्मत का शिकार न हो जाए। इतिहास हमें सिखाता है कि जब तक सभी पक्षों के दिलों में भरोसा न पैदा हो और ज़मीन पर पारदर्शी तंत्र न बने, कोई भी समझौता टिकता नहीं।
अरब देशों का समर्थन: उम्मीद या औपचारिकता?
सऊदी अरब, क़तर, UAE, तुर्की और पाकिस्तान जैसे देशों ने इस योजना का समर्थन किया है। लेकिन समर्थन और अमल में फर्क होता है। अरब देशों की राजनीति अक्सर अवसरवाद से भरी रही है। सवाल यह है कि क्या ये देश वास्तव में गाज़ा को स्थायी शांति दिलाना चाहते हैं या केवल कूटनीतिक औपचारिकता निभा रहे हैं?
ट्रम्प की रणनीति: शांति या राजनीति?
ट्रम्प का यह शांति प्रस्ताव जितना गाज़ा के लिए है, उतना ही अमेरिकी राजनीति और अंतरराष्ट्रीय छवि बचाने के लिए भी है। ट्रम्प जानना चाहते हैं कि वे वैश्विक मंच पर “शांति दूत” के रूप में दिखें, भले ही उनकी योजना की बुनियाद कमजोर हो।
गाज़ा में शांति की ज़रूरत सबसे अधिक है, लेकिन ट्रम्प की यह 20 बिंदु योजना तभी सफल हो सकती है जब यह केवल दिखावा न रह जाए। शांति का रास्ता सिर्फ़ दस्तावेज़ों और भाषणों से नहीं, बल्कि ज़मीन पर विश्वास, बराबरी और न्याय से बनेगा। वरना यह योजना भी इतिहास के पन्नों में अधूरे सपनों की तरह गुम हो जाएगी।