नई दिल्ली 16 सितम्बर 2025
2008 का मालेगांव ब्लास्ट भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के सामने आज भी एक खुला ज़ख्म है। उस धमाके में निर्दोष लोगों की जान गई, परिवार तबाह हुए, और पूरे देश में दहशत का माहौल फैला। ऐसे मामले में जब अदालत यह कहती है कि “हर कोई अपील नहीं कर सकता” या जब लोअर कोर्ट सबूतों की कमी बताकर आरोपियों को बरी कर देती है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या न्याय का तराज़ू वास्तव में संतुलित है या फिर साक्ष्यों और प्रक्रियाओं के बीच इंसाफ़ कहीं गुम हो जाता है।
कानून की किताबें कहती हैं कि “संदेह का लाभ आरोपी को मिलेगा।” लेकिन ज़रा सोचिए, क्या यह सिद्धांत आतंकवादी हमलों जैसे मामलों में भी आंख बंद करके लागू किया जा सकता है? क्या यह संभव नहीं कि जांच एजेंसियां कई बार कमज़ोर पड़ जाएं, सबूत सही ढंग से इकट्ठा न हों, या राजनीतिक दबाव में आरोप-पत्र का ढांचा हिल जाए? इतिहास गवाह है कि ऐसे कई मामले हैं जहां लोअर कोर्ट से बरी हुए आरोपी आगे चलकर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में दोषी करार दिए गए। और उतने ही उदाहरण ऐसे भी हैं जहां निचली अदालत में दोषी ठहराए गए लोग ऊपरी अदालतों में निर्दोष साबित हुए। इसका सीधा अर्थ है कि निचली अदालत का फैसला अंतिम सत्य नहीं है — वह मात्र एक पड़ाव है, मंज़िल नहीं।
मालेगांव जैसा मामला तो और भी संवेदनशील है। यहां केवल सात लोगों के बरी होने का सवाल नहीं है, बल्कि उन निर्दोष नागरिकों की आत्माओं का सवाल है जिनकी ज़िंदगी बिना किसी गुनाह के छीन ली गई। यह केवल परिवारों का नहीं, बल्कि पूरे समाज का मामला है। अगर अदालत कहे कि केवल गवाह बने लोग ही अपील कर सकते हैं तो यह व्यावहारिकता और न्याय की आत्मा, दोनों पर चोट है। क्या जो लोग अदालत में गवाह नहीं बने लेकिन जिनके परिवार तबाह हो गए, उन्हें न्याय मांगने का हक़ नहीं है? क्या किसी धमाके के पीड़ित सिर्फ़ इसलिए इंसाफ़ से वंचित रह जाएंगे क्योंकि प्रक्रिया के दौरान उन्हें गवाह के कटघरे में नहीं बुलाया गया?
यह भी सच है कि “संदेह का लाभ” का सिद्धांत आरोपी के पक्ष में है, लेकिन जनता के मन में यह धारणा क्यों बने कि हर बड़ा आरोपी अंततः बच ही जाएगा? क्या यह न्यायपालिका पर सवाल खड़े नहीं करता? मालेगांव जैसे मामले में अदालत को चाहिए था कि वह पीड़ितों की अपील सुनने के दायरे को और व्यापक बनाती। क्योंकि इस तरह के मामलों में केवल सबूत ही नहीं, बल्कि व्यापक जनहित और राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न भी जुड़ा होता है। अगर अपील का दरवाज़ा केवल “कानूनी गवाह” तक सीमित रहेगा तो कई पीड़ित परिवार हमेशा न्याय की चौखट तक पहुंच ही नहीं पाएंगे।
यहां सबसे बड़ा खतरा यह है कि ऐसे फैसले समाज को यह संदेश देते हैं कि आतंक के मामले भी सामान्य अपराधों की तरह तकनीकी प्रक्रियाओं में फंसकर हल्के हो सकते हैं। जबकि सच यह है कि आतंकवादी हमला किसी जेबकटी या सड़क हादसे की तरह साधारण अपराध नहीं है। यह देश और समाज पर सीधा हमला है। इसलिए ऐसे मामलों में न्यायालय को और ज़्यादा सख़्ती, संवेदनशीलता और व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
न्यायालयों को याद रखना होगा कि लोअर कोर्ट का फैसला अंतिम नहीं है। कई बार सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचते-पहुंचते तस्वीर पूरी तरह बदल जाती है। और अगर आज हम यह मान लें कि सबूतों की कमी के नाम पर आरोपियों को हमेशा फायदा मिलना चाहिए, तो कल यह सिलसिला इतना खतरनाक हो जाएगा कि समाज का विश्वास न्याय व्यवस्था से ही उठ जाएगा।
मालेगांव ब्लास्ट का मामला हमें चेतावनी देता है — अगर पीड़ितों की आवाज़ को दरकिनार किया गया, अगर अपील का दरवाज़ा केवल तकनीकी शर्तों तक सीमित रखा गया, तो यह केवल एक केस का नहीं बल्कि पूरे न्यायिक तंत्र की साख का सवाल बन जाएगा। सवाल यह है कि क्या भारत की अदालतें ऐसे मामलों में न्याय करेंगी, या फिर “प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं” के पीछे सच्चाई हमेशा दबती रहेगी?
कांग्रेस ने हमेशा मालेगांव ब्लास्ट केस को हिंदुत्व आतंकवाद का प्रतीक बताकर भाजपा पर तीखा हमला बोला और कहा कि इस केस ने भाजपा की कथित राष्ट्रवादी राजनीति का असली चेहरा उजागर कर दिया, वहीं भाजपा ने इसे एक “फर्जी मुकदमा” करार देकर अपने नेताओं को नायक और “राजनीतिक शिकार” बताने की कोशिश की; नतीजा यह हुआ कि पूरा मामला न्याय से ज़्यादा वोट बैंक की राजनीति का हथियार बन गया, अदालतों के फैसले और जांच एजेंसियों की रिपोर्टें राजनीतिक दलों की बयानबाज़ी में ढक गईं, और जनता के बीच यह संदेश गया कि अगर कोई मामला हिंदुत्व या राष्ट्रवाद की राजनीति से जुड़ा है तो उसका निपटारा कभी निष्पक्ष तरीके से नहीं हो सकता।
इस पूरे विवाद का सबसे रहस्यमय पहलू यह रहा कि मुंबई ATS के दिग्गज अधिकारी, जिन्होंने सबसे पहले हिंदू आतंकवाद की थ्योरी को उजागर किया और मालेगांव ब्लास्ट के आरोपियों को गिरफ्तार किया था—जैसे हेमंत करकरे और विजय सालस्कर—वे 26/11 मुंबई हमले में मारे गए। यह सवाल आज भी अधूरा है कि वे वास्तव में पाकिस्तानी आतंकियों के हाथों शहीद हुए या किसी बड़े षड्यंत्र का शिकार बने। और सबसे अहम यह कि जिस ब्लास्ट की जांच में उन्होंने बाइक तक को सबूत के तौर पर संदिग्ध माना था, उसी केस में आज आरोपी बरी हो रहे हैं। यह पूरा घटनाक्रम न्याय व्यवस्था और सुरक्षा एजेंसियों की विश्वसनीयता पर गहरे सवाल खड़े करता है और देश की जनता को यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या राजनीति और सत्ता की ताकतें न्याय की धारा को अपनी सुविधानुसार मोड़ देती हैं।
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