विधेयक का विस्फोट: लोकतंत्र के चेहरे पर वार
केंद्र सरकार बुधवार को लोकसभा में एक ऐसा विधेयक पेश करने जा रही है जिसने पूरे देश की राजनीतिक ज़मीन हिला दी है। यह विधेयक कहता है कि अगर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या कोई मंत्री गंभीर अपराध में गिरफ्तार होकर लगातार 30 दिन जेल में रहता है तो उसे पद से हटा दिया जाएगा। पहली नज़र में यह प्रावधान लोकतंत्र को अपराधियों से मुक्त करने जैसा लगता है, लेकिन असली खेल भीतर छिपा है। अंतिम निर्णय राष्ट्रपति नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री की सलाह पर होगा। यानी प्रधानमंत्री तय करेंगे कि कौन मंत्री सत्ता में रहेगा और कौन बाहर जाएगा। विपक्ष का आरोप है कि यह विधेयक लोकतंत्र को अपराधमुक्त नहीं बल्कि विपक्षमुक्त करने की योजना है।
‘प्रधानमंत्री की सलाह’ या लोकतंत्र का गला घोंटने का हथियार?
सबसे बड़ा विवाद इसी एक लाइन पर है – राष्ट्रपति को कार्रवाई केवल प्रधानमंत्री की सलाह पर करनी होगी। इसका मतलब साफ है: प्रधानमंत्री अपने विरोधी मंत्रियों को, यहां तक कि मुख्यमंत्रियों को भी, अपने इशारे पर पद से हटवा सकते हैं। राष्ट्रपति को कठपुतली की तरह आदेश मानना होगा। सुप्रीम कोर्ट के वकील अनिल कुमार सिंह श्रीनेत ने तीखा हमला करते हुए कहा, “यह विधेयक प्रधानमंत्री को संवैधानिक तानाशाह बना देगा। राष्ट्रपति की स्वतंत्रता खत्म होगी और मंत्रियों की कुर्सी अब कानून नहीं, प्रधानमंत्री की मर्जी पर टिकेगी।”
विपक्ष का हमला: लोकतंत्र के ताबूत में आखिरी कील
विपक्षी दलों ने इसे लोकतंत्र पर सीधा हमला बताया है। एक विपक्षी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “यह विधेयक लोकतंत्र की हत्या का आधिकारिक एलान है। प्रधानमंत्री अब जेल भेजकर और अपनी ‘सलाह’ देकर किसी भी विरोधी को पद से बाहर करवा सकते हैं। यह सत्ता का दुरुपयोग नहीं, बल्कि तानाशाही की वैधानिक घोषणा है।” कांग्रेस, वामदल और क्षेत्रीय पार्टियों ने साफ कर दिया है कि वे इस विधेयक का संसद के भीतर और बाहर कड़ा विरोध करेंगे। उनके मुताबिक यह विधेयक आने वाले वक्त में विपक्ष को खत्म कर प्रधानमंत्री को ‘सर्वशक्तिमान शासक’ बनाने का रास्ता खोल देगा।
सरकार का दावा: पारदर्शिता या छलावा?
सरकार का कहना है कि यह कदम राजनीति को अपराधमुक्त करने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए उठाया गया है। सत्ता पक्ष के मुताबिक, “भ्रष्ट और अपराध में लिप्त नेताओं को सत्ता में रहने का कोई हक नहीं। यह विधेयक ईमानदार राजनीति की दिशा में हमारी प्रतिबद्धता का सबूत है।” लेकिन विपक्ष पूछ रहा है कि अगर ईमानदारी ही लक्ष्य है, तो प्रधानमंत्री की सलाह को सर्वोपरि क्यों बनाया गया? क्या भ्रष्टाचार और अपराध से लड़ने का कोई और तरीका नहीं बचा कि प्रधानमंत्री को ही अंतिम न्यायाधीश बना दिया जाए? सवाल उठ रहा है कि क्या यह विधेयक लोकतंत्र की सफाई है या विरोधियों की सफाई?
कानून विशेषज्ञों की चेतावनी: संविधान का संतुलन टूटा
संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह प्रावधान संविधान की आत्मा पर हमला है। विशेषज्ञों के अनुसार “राष्ट्रपति को केवल प्रधानमंत्री की सलाह पर बाध्य करना, शक्ति संतुलन की पूरी अवधारणा को ध्वस्त कर देगा। राष्ट्रपति अब सिर्फ़ औपचारिक मोहरा रह जाएंगे और प्रधानमंत्री के पास निरंकुश अधिकार आ जाएंगे।” विशेषज्ञों का कहना है कि अगर यह प्रावधान लागू हुआ, तो भविष्य में कोई भी प्रधानमंत्री देश को अपनी व्यक्तिगत जागीर की तरह चलाने में सक्षम होगा।
आने वाले दिन: संसद में महाभारत तय
यह विधेयक आज लोकसभा में पेश होगा और संभावना है कि इसे संसदीय समिति के पास भेजा जाएगा। लेकिन विपक्ष के सुर साफ हैं – वे इसे किसी भी हाल में पारित नहीं होने देंगे। संसद से लेकर सड़क तक इसका विरोध होगा। आने वाले दिनों में यह विधेयक लोकतंत्र और तानाशाही के बीच सीधी जंग का प्रतीक बन सकता है। सवाल सिर्फ़ इतना है कि क्या जनता की आवाज़ संसद की दीवारों के भीतर गूंज पाएगी या प्रधानमंत्री की सलाह ही संविधान की नई गीता बना दी जाएगी।
लोकतंत्र या तानाशाही – जनता करेगी फैसला
यह विधेयक अब महज़ कानूनी बहस का मुद्दा नहीं है, बल्कि लोकतंत्र और तानाशाही की लड़ाई का नया रणक्षेत्र बन गया है। सरकार इसे भ्रष्टाचार विरोधी कदम बता रही है, जबकि विपक्ष इसे तानाशाही की आधिकारिक मुहर मान रहा है। असली सवाल यह है कि भारत का लोकतंत्र किस ओर जाएगा – जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की आज़ादी की तरफ या प्रधानमंत्री की सलाह के बंधन में जकड़े हुए तानाशाही शासन की ओर। यह फैसला अब संसद ही नहीं, पूरे देश को करना होगा।
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