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अब एक और बड़ी डील अडानी के हाथों में, “सैंया कोतवाल तो डर काहे का…

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नई दिल्ली, 16 अक्टूबर 2025

भारत में एक बार फिर वही कहानी दोहराई गई — विदेशी कंपनी आई, अरबों डॉलर का निवेश हुआ, और डील की डोर आखिरकार अडानी के हाथों में आ गई। इस बार मंच है आंध्र प्रदेश का विशाखापट्टनम, और कहानी का नाम — Google AI Hub। गूगल ने ऐलान किया कि वह भारत में अगले पांच वर्षों में $15 बिलियन (₹1.25 लाख करोड़) का निवेश करेगा, और यह प्रोजेक्ट किसी और के साथ नहीं, बल्कि अडानी समूह के साथ साझेदारी में बनेगा। यानी दुनिया का सबसे बड़ा डेटा सेंटर हब — अमेरिका के बाहर का सबसे बड़ा गूगल निवेश — अब अडानी के अधीन होगा। इस डील के बाद यह सवाल फिर से ज़िंदा हो गया है कि — आखिर क्यों भारत की हर बड़ी रणनीतिक डील का ठिकाना एक ही घर बन चुका है? क्यों हर विदेशी निवेश की आखिरी मंज़िल अडानी के दरवाज़े पर आकर रुकती है? यह पैटर्न अब इतना स्पष्ट हो चुका है कि यह सिर्फ एक कारोबारी साझेदारी नहीं, बल्कि एक राजनीतिक-आर्थिक रणनीति का प्रदर्शन प्रतीत होता है।

गूगल की डील या सत्ता की डील?

कागज़ों पर यह एक टेक्नोलॉजी प्रोजेक्ट है — गूगल भारत के डिजिटल भविष्य में निवेश कर रहा है। पर सियासी नज़र से देखें तो यह सिर्फ एक आर्थिक साझेदारी नहीं, बल्कि एक रणनीतिक कब्ज़ा है। AI हब, डेटा सेंटर, क्लीन एनर्जी, और फाइबर नेटवर्क — सब कुछ अडानी समूह के दायरे में आएगा। यह वही समूह है जिसने पिछले दशक में बंदरगाहों से लेकर हवाई अड्डों तक, बिजली से लेकर मीडिया तक, और अब डिजिटल डेटा तक — हर क्षेत्र में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है। अब सवाल यह नहीं कि अडानी हर जगह क्यों हैं, सवाल यह है कि कहीं और कोई क्यों नहीं है? गूगल जैसी वैश्विक दिग्गज जब भारत में कदम रखती है, तो वह खुद कोई जोखिम नहीं लेती। उसे भरोसा चाहिए, सुरक्षा चाहिए, मंजूरी चाहिए — और भारत में वह भरोसा सिर्फ एक नाम से मिलता है: अडानी। यह भरोसा सिर्फ कारोबारी नहीं, बल्कि राजनीतिक संरक्षण का भी है। इसलिए यह डील जितनी टेक्नोलॉजी की है, उतनी ही सत्ता की भी है। लोग कहते हैं — जब सैंया खुद कोतवाल हो जाए, तो डर काहे का! और यही तो आज भारत के बिज़नेस ईकोसिस्टम की असली स्थिति है। यहां पर “सैंया कोतवाल” भी हैं, “निवेशक” भी, और “ठेकेदार” भी — एक ऐसा केंद्रीकृत मॉडल जो प्रतिस्पर्धा और पारदर्शिता पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है।

कौन चला रहा है खेल, किसके इशारे पर?

गूगल के CEO सुंदर पिचाई ने इसे “भारत के भविष्य में ऐतिहासिक निवेश” कहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे “AI for All” और “Viksit Bharat” की दिशा में बड़ा कदम बताया। लेकिन विपक्षी और नीति विश्लेषक इसको “AI for Adani” कहकर तंज कस रहे हैं। क्योंकि अब यह पैटर्न इतना साफ़ हो चुका है कि हर रणनीतिक सौदे का केंद्र कहीं न कहीं अडानी ही निकलते हैं। अमेरिका से आए निवेश हों, सऊदी अरब के ऊर्जा सौदे हों, या ऑस्ट्रेलिया की कोयला परियोजनाएं — हर डील की मंज़िल वही। अब AI, डेटा और डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे संवेदनशील सेक्टर में भी वही सबसे बड़ा खिलाड़ी बन गया है। सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या यह डील वास्तव में भारत की डिजिटल संप्रभुता को मजबूत करेगी, या किसी एक कॉर्पोरेट साम्राज्य को और विशाल बना देगी? क्योंकि डेटा अब सिर्फ तकनीकी संपत्ति नहीं, बल्कि राजनीतिक हथियार बन चुका है। और जब यह हथियार किसी एक हाथ में केंद्रित हो, तो खतरा सिर्फ प्रतिस्पर्धा का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की पारदर्शिता का भी है।

“Ease of Doing Business” या “Ease of Doing Business with Adani”?

रिपोर्ट्स के मुताबिक, विशाखापट्टनम में यह डील असामान्य तेजी से मंजूर हुई। जहां आम निवेशकों को महीनों की फाइलिंग, मंजूरी और क्लियरेंस में अटकना पड़ता है, वहां यह डील “सिंगल-विंडो स्पीड” में पारित हो गई — और वो भी अरबों डॉलर की। सरकार इसे “Ease of Doing Business” कह रही है, पर उद्योग जगत में इसे कहा जा रहा है — “Ease of Doing Business with Adani.” क्योंकि अब लगता है, भारत में बड़ा कारोबार तभी संभव है जब उसके पीछे अडानी जैसा “सुरक्षित साझेदार” खड़ा हो। यानी बिज़नेस भी चलता है, और सत्ता भी खुश रहती है, जिससे सरकारी तंत्र और कॉर्पोरेट हित एक दूसरे के साथ पूर्ण तालमेल में काम करते दिखाई देते हैं। गौतम अडानी का साम्राज्य अब ऊर्जा से लेकर डेटा तक फैल चुका है। उनकी कंपनी अब ग्रीन एनर्जी, डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर, मीडिया, बंदरगाह, हवाई अड्डे और डिफेंस सेक्टर — हर क्षेत्र में सक्रिय है। अब जब गूगल जैसी कंपनी भी उन्हीं के साथ साझेदारी कर रही है, तो यह स्पष्ट संदेश है — भारत में अगर किसी को स्थिरता, मंजूरी और सरकारी समर्थन चाहिए, तो रास्ता अडानी के घर से होकर ही जाता है। यानी, “जो दिल्ली के करीब है, वही दुनिया के करीब है।”

जनता समझती है खेल और डिजिटल भारत या कॉर्पोरेट भारत?

जनता अब सब समझ रही है। वो जानती है कि जब कोई विदेशी कंपनी भारत में निवेश करती है, तो उसके पीछे सिर्फ अर्थशास्त्र नहीं, बल्कि राजनीति का समीकरण भी छिपा होता है। हर बड़ी डील में “पारदर्शिता” की जगह “परिचय” काम करता है। यह डील भी उसी पुरानी पटकथा की नई कड़ी है। आख़िरकार, जब सैंया कोतवाल है, तो डर कैसा? नीतियां भी वही बनाते हैं, मंजूरी भी वही देते हैं, और ठेका भी उन्हीं के पास पहुंचता है। कानूनी ढांचा भी उनके हित में, और सरकारी नीति भी उनके हिसाब से ढलती है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि “यह AI हब भारत की डिजिटल अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाई देगा।” सही कहा — पर ऊंचाई किसकी? भारत की जनता की, या एक कॉर्पोरेट घराने की? क्योंकि जब हर अवसर, हर संसाधन और हर निवेश एक ही केंद्र में सिमट जाए, तो “डिजिटल इंडिया” धीरे-धीरे “कॉर्पोरेट इंडिया” बन जाता है। यह वह मॉडल है जिसमें जनता दर्शक है, और अडानी संचालक हैं।

सब जानते हैं, बस कोई बोलता नहीं

गूगल और अडानी की यह डील आर्थिक दृष्टि से बड़ी है, पर राजनीतिक रूप से यह प्रभाव के केंद्रीकरण का एक और उदाहरण है। AI, डेटा और डिजिटल पावर — सब एक ही छत्रछाया में आ रहे हैं। सवाल पूछने वाले कम हैं, पर जवाब सबके पास है। क्योंकि अब हर कोई समझता है — “जब सैंया कोतवाल हो, तो डर काहे का?” और जब कोतवाल भी वही, अदालत भी वही, और ठेका भी वही — तो फिर बिज़नेस भी उसी का, सत्ता भी उसी की, और भविष्य भी उसी के नाम लिखा हुआ।

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