लेखक : डॉ. शालिनी अली, समाजसेवी | नई दिल्ली 3 सितम्बर 2025
प्रकृति की कठोर मार और मानव जीवन की नाजुकता
उत्तर भारत के कई हिस्सों—जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड—ने हाल ही में प्रकृति का ऐसा विकराल रूप देखा, जिसने मानव अस्तित्व को झकझोर कर रख दिया। पहाड़ों से बरसती अथाह बारिश, अचानक फटते बादल और उफनती नदियों का तीव्र प्रवाह यह स्पष्ट कर गया कि इंसान चाहे कितनी भी प्रगति क्यों न कर ले, प्रकृति की शक्ति के सामने उसकी स्थिति बेहद असुरक्षित और नाजुक है। इस भीषण आपदा ने सिर्फ भौगोलिक संरचनाओं को नहीं, बल्कि लाखों परिवारों के जीवन, घर, पशु, फसलें और सुखमय भविष्य के सपनों तक को भी निगल लिया। बीते कुछ दिनों की लगातार त्रासदियों ने इस क्षेत्र में ऐसी तबाही मचाई है कि राहत और बचाव कार्य अपने आप में सरकारों और प्रशासन के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गए हैं।
मौत और मातम की घनी परछाई
इस त्रासदी का सबसे दर्दनाक पहलू वे लोग हैं, जिन्हें इस आपदा में अपने प्रियजन खोने पड़े। जम्मू-कश्मीर के पहाड़ी इलाक़ों में बादल फटने और तीव्र बारिश ने गाँव के गाँव उजाड़ दिए। घर बह गए, परिवार बिखर गए और जीवन की डोर अचानक टूट गई। एक छोटे से बस्ती में पूरा परिवार बाढ़ में समा गया—उनकी चीखें, टूट चुकी निगाहें और अपनों को खो देने की पीड़ा पूरे गाँव में मातम की तरह गूँज रही है। पंजाब में कई परिवारों ने अपने घरों के साथ जीवन की सारी यादें और उम्मीदें बहा दीं। वहीं हिमाचल और उत्तराखंड में पुल टूटने, सड़कें धंस जाने और मकान गिर जाने के समाचार निरंतर मिल रहे हैं। इस सबके बीच गाँवों और कस्बों में मातम का सामूहिक शोक पसरा हुआ है। यह केवल व्यक्तिगत विछोह नहीं, बल्कि सामूहिक त्रासदी का वह दृश्य है जिसने इंसानियत के हर संवेदनशील व्यक्ति को भीतर तक हिला दिया है।
बेघरी और आश्रय की तलाश
लाखों लोग अपने सिर पर छत खो चुके हैं। बारिश और बाढ़ के कारण उनके घर या तो बह गए या रहने योग्य नहीं रहे। उत्तराखंड के कई गाँवों में परिवार खुले आसमान के नीचे रातें गुजारने को मजबूर हैं। बुजुर्ग अपने बच्चों को किसी तरह सुरक्षित ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि माताएँ शिविरों में बच्चों को भूख और प्यास से तड़पते हुए देख कर असहाय महसूस कर रही हैं। श्रीनगर और आसपास के क्षेत्रों में लोग ऊंची जगहों पर शरण ले रहे हैं, लेकिन वहाँ भी भोजन और पानी का पर्याप्त इंतजाम नहीं हो पा रहा। राहत शिविरों में पीड़ित परिवार राहत सामग्री का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। उनके चेहरों पर झलकती हताशा और असुरक्षा यह बताती है कि संकट की इस घड़ी में आश्रय पाना भी उनके लिए सबसे कीमती वरदान है।
पशुओं की मौन त्रासदी
बाढ़ केवल इंसानी जीवन को तबाह नहीं करती, यह पशुओं की दुनिया में भी कहर बरपाती है। जिन मवेशियों पर किसान की रोज़ी-रोटी टिकी होती है, वही मवेशी बाढ़ की उफनती लहरों में बह गए। जम्मू-कश्मीर के कई किसानों ने बताया कि उनकी भैंसें और बकरियाँ बाढ़ की धारा में बह गईं। उनके लिए यह केवल आर्थिक हानि नहीं, बल्कि अपने परिवार का हिस्सा खो देने का गहरा दुःख है। पंजाब और हिमाचल प्रदेश के किसान भी इसी तरह की त्रासदी से जूझ रहे हैं। जब किसी किसान की गाय या बैल मरता है, तो सिर्फ एक पशु नहीं, बल्कि उसकी आजीविका और परंपरा का सहारा टूट जाता है। यही कारण है कि कई गाँवों में पशुओं की मौत ने किसानों को पूरी तरह से हताश और निराश कर दिया है।
जीवन की अस्थिरता और टूटते सपने
बाढ़ ने यह संदेश और भी स्पष्ट कर दिया है कि इंसान चाहे अपनी योजनाओं और संघर्षों में कितना भी आगे क्यों न बढ़े, जीवन की स्थिरता कभी भी टूट सकती है। पानी की धाराओं में घरों का सामान, बच्चों की किताबें, दवाइयाँ, चूल्हे और बर्तन तक बह गए। उत्तराखंड और हिमाचल में कई पुल और राजमार्ग बाढ़ के पानी में बह गए, जिससे राहत कार्य बेहद कठिन हो गया। लोग अपनों की तस्वीरें, थोड़ी-बहुत बची चीज़ें या टूटे-फूटे फर्नीचर को समेट कर सुरक्षित रखने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु इस असहाय दृश्य ने साबित कर दिया कि बाढ़ केवल आर्थिक नुकसान ही नहीं करती, यह जीवन की धुरी और सपनों की जड़ों को भी बहा ले जाती है।
भोजन और पीने के पानी की त्राहि-त्राहि
हर आपदा में सबसे बड़ी समस्या होती है खाने-पीने की व्यवस्था। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में स्वच्छ पानी और पर्याप्त भोजन का मिलना सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। कई परिवारों को पीने योग्य पानी पाने के लिए मीलों चलना पड़ रहा है। बच्चों और बुजुर्गों पर इसका सबसे ज़्यादा असर हो रहा है। राहत शिविरों में भोजन तो पहुँच रहा है, परंतु कम मात्रा में। कहीं केवल चावल की खिचड़ी मिल रही है, कहीं दूध तक की कमी है। भोजन का यह संकट न केवल भूख बल्कि स्वास्थ्य संबंधी खतरों और बीमारियों को भी जन्म दे रहा है।
किसानों की तबाही और आर्थिक संकट
उत्तर भारत की यह बाढ़ किसानों के लिए जीवन भर की मेहनत को लील कर ले गई है। सेब, धान, गेहूँ, सब्जियाँ और दलहन की पूरी-की-पूरी फसल बर्बाद हो गई। जम्मू-कश्मीर में सेब की बाग़वानी पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है। पंजाब के धान और गेहूँ के खेत जलसमाधि ले चुके हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में सब्ज़ियाँ और दालें मिट्टी में मिल गई हैं। यह केवल आर्थिक संकट नहीं, बल्कि किसानों के सपनों की हत्या है। जिन खेतों में हरा-भरा भविष्य खड़ा था, अब वहां सिर्फ गाद और मलबा बचा है। कई किसान आत्महत्या की कगार पर खड़े हैं क्योंकि उनकी जीवनरेखा ही पूरी तरह टूट गई है।
सरकार और राजनीतिक जवाबदेही
आपदा के समय राजनीति का मतभेद गौण हो जाना चाहिए, लेकिन सच्चाई यह है कि हर राज्य का अपना प्रशासन अलग-अलग प्रयास कर रहा है। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस, हिमाचल में कांग्रेस, पंजाब में आम आदमी पार्टी और उत्तराखंड में बीजेपी सत्तारूढ़ हैं, जबकि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार है। यही समय है जब सभी सरकारों को अपनी सीमाएँ और मतभेद भूलकर, जनता की तकलीफ़ों को प्राथमिकता देनी चाहिए। यह सिर्फ प्रशासनिक दायित्व नहीं, बल्कि मानवीय जिम्मेदारी है कि affected क्षेत्रों तक त्वरित राहत पहुँचाई जाए और पुनर्वास योजनाओं को पूरी गंभीरता के साथ लागू किया जाए।
जनता से अपील और सामूहिक प्रयास की जरूरत
इस समय सबसे बड़ी आवश्यकता है सामूहिक सहयोग की। सरकार के साथ-साथ सामाजिक संस्थाएँ, स्वयंसेवी संगठन और आम नागरिकों को भी मदद का हाथ बढ़ाना होगा। पीड़ित परिवारों को स्वच्छ पानी, भोजन, अस्थायी घर और चिकित्सा सुविधाएँ तुरंत उपलब्ध कराई जानी चाहिए। साथ ही मवेशियों के लिए सुरक्षित आश्रय और किसानों के नुकसान की उचित भरपाई के उपाय किए जाने चाहिए। यह घड़ी हमें यह याद दिलाती है कि जब इंसानिता खतरे में हो, तो हर नागरिक की भूमिका एक संवेदनशील सहयोगी के रूप में महत्वपूर्ण हो जाती है।
आपदा का संदेश और भविष्य की तैयारी
उत्तर भारत की यह भीषण बाढ़ केवल एक प्राकृतिक त्रासदी न होकर एक चेतावनी भी है। यह हमें संदेश देती है कि मानव जीवन कितना नाजुक है और हमारी तैयारियाँ कितनी अधूरी हैं। मरते हुए लोग, रोते परिवार, बहते पशु और बर्बाद खेत यह सब इस ओर इशारा करते हैं कि आपदा प्रबंधन केवल कागज़ी योजना नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु का प्रश्न है। आने वाले समय में हमें न केवल आधुनिक तकनीक और संसाधनों के माध्यम से आपदा पूर्व-तैयारियों को मजबूत करना होगा, बल्कि सामुदायिक सहयोग और मानवता को भी केंद्र में लाना होगा। यही इस त्रासदी से सबसे बड़ा सबक है—मानवता राजनीति से ऊपर है और प्रत्येक जीवन की रक्षा ही सर्वोच्च धर्म।