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रात भी अब महिलाओं की: दिल्ली का ऐतिहासिक कदम और बदलती सामाजिक चेतना का घोषणापत्र

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निपुणिका शाहिद, असिस्टेंट प्रोफेसर मीडिया स्ट्डीज, स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, क्राइस्ट यूनिवर्सिटी, दिल्ली NCR

नई दिल्ली
30 जुलाई 2025

दिल्ली की नई मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता द्वारा लिया गया यह निर्णय कि अब महिलाएं रात 7 बजे से सुबह 6 बजे तक वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में काम कर सकेंगी, केवल एक कानूनी संशोधन नहीं बल्कि सामाजिक सोच की जड़ताओं को तोड़ने वाला निर्णायक कदम है। यह फैसला उस देश में आया है जहाँ महिला सशक्तिकरण की बातें तो बहुत हुई हैं लेकिन जब बात कार्यस्थलों पर बराबरी की आती है, विशेष रूप से समय की आज़ादी की, तो महिलाएं अब तक एक अदृश्य दायरे में बंधी रहीं। यह नीति महिलाओं को यह अधिकार देती है कि वे कब और कैसे काम करें, और सबसे बड़ी बात, यह तय करने की शक्ति अब सिर्फ पुरुष नियोक्ताओं या सामाजिक मान्यताओं के पास नहीं, बल्कि स्वयं महिलाओं के पास होगी। यह निर्णय महिला स्वतंत्रता को भाषणों और घोषणाओं से निकाल कर व्यवहारिकता की ज़मीन पर लाता है, जहाँ अब रात का समय भी महिला की आज़ादी का हिस्सा होगा।

इस ऐतिहासिक कदम की जड़ें 1954 के दिल्ली शॉप्स एंड एस्टैब्लिशमेंट एक्ट में हैं, जिसने महिलाओं को रात में कार्य करने से रोका था। यह कानून, जो उस समय महिलाओं की सुरक्षा के उद्देश्य से लाया गया था, दशकों में सामाजिक संरचनाओं और कार्यस्थल की परिस्थितियों के बदलने के बावजूद बना रहा। यह प्रतिबंध धीरे-धीरे एक ऐसे संकेत में बदल गया कि महिलाएं रात में काम करने लायक नहीं हैं, या समाज उन्हें सुरक्षित वातावरण देने में असमर्थ है। यह मानसिकता, जो सुरक्षा की चिंता के पीछे महिलाओं को कमजोर और असहाय मानती है, लंबे समय से समानता के रास्ते में बाधा बनी हुई थी। लेकिन अब जब महिलाएं स्पेस मिशन, सेना, मीडिया, न्यायपालिका और हर क्षेत्र में नेतृत्व कर रही हैं, तो यह पाबंदी न केवल अप्रासंगिक हो चुकी थी, बल्कि यह उनके अधिकारों का हनन भी बन चुकी थी। मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता का यह निर्णय केवल कानून में बदलाव नहीं, बल्कि उस मानसिकता के विरुद्ध एक चुनौती है जो महिलाओं को रात्रिकालीन कार्य से दूर रखकर उन्हें सीमित करती है।

आज के वैश्विक कार्य परिवेश में, विशेषकर दिल्ली जैसे महानगर में, कई उद्योग और सेवाएं 24×7 काम करती हैं—बीपीओ, हेल्थकेयर, मीडिया, ई-कॉमर्स, रिटेल, ट्रांसपोर्ट, होटल और सुरक्षा सेवाएं ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें महिलाओं की भागीदारी पहले से है, लेकिन रात के समय उन्हें कानूनी रूप से रोक दिया जाता था। इस वजह से उन्हें उन पदों और अवसरों से भी वंचित होना पड़ता था जिनके लिए वे पूरी तरह सक्षम थीं। कई मामलों में, महिलाओं की पदोन्नति या चयन इसी कारण नहीं हो पाता था कि वे नाइट शिफ्ट में काम नहीं कर सकतीं। दिल्ली सरकार के इस फैसले ने इस बाधा को तोड़ते हुए महिलाओं के लिए समान प्रतिस्पर्धा और पदोन्नति का मार्ग प्रशस्त किया है। अब कोई यह तर्क नहीं दे सकता कि महिला सक्षम होते हुए भी इसलिए चयन के योग्य नहीं कि वह रात में काम नहीं कर सकती।

हालांकि यह अनुमति अपने साथ एक ज़िम्मेदार संरचना भी लेकर आती है। दिल्ली सरकार ने यह भी सुनिश्चित किया है कि नाइट शिफ्ट की अनुमति केवल तब दी जाएगी जब संबंधित कार्यस्थलों पर सुरक्षा के उच्चतम मानक लागू होंगे। इनमें महिला गार्ड की उपस्थिति, सीसीटीवी निगरानी, स्वच्छ और सुरक्षित शौचालय, विश्राम स्थल, POSH समिति की स्थापना, पिक और ड्रॉप सुविधा और वेतन की पारदर्शिता जैसी व्यवस्थाएँ शामिल हैं। इन उपायों से यह स्पष्ट होता है कि सरकार इस फैसले को केवल नीतिगत बदलाव तक सीमित नहीं रखना चाहती, बल्कि वह उसे ज़मीन पर लागू करने के लिए संपूर्ण सामाजिक और भौतिक ढांचा तैयार कर रही है। यह बदलाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह कंपनियों को भी जवाबदेह बनाता है, और कार्यस्थलों को महिला अनुकूल बनाने की दिशा में बाध्य करता है।

फिर भी असली लड़ाई कानून से नहीं, मानसिकता से है। महिलाओं के रात में काम करने को लेकर अब भी समाज का एक बड़ा हिस्सा दकियानूसी सोच रखता है। यह सोच उन्हें ‘घर की लक्ष्मी’ तो मानती है लेकिन ‘रात की कर्मचारी’ नहीं। उनके देर रात बाहर रहने को ‘चरित्र’, ‘मर्यादा’, और ‘सामाजिक छवि’ से जोड़ दिया जाता है। यही मानसिकता उन्हें न केवल अवसरों से वंचित करती है, बल्कि अपराधबोध और आत्मसंकोच में भी धकेलती है। यह निर्णय इस सोच को सीधी चुनौती देता है और कहता है कि महिला का आत्मसम्मान, उसकी योग्यता और स्वतंत्रता समाज के ढांचे से कहीं बड़ी है। सवाल यह नहीं होना चाहिए कि महिलाएं रात में काम क्यों करें, बल्कि यह होना चाहिए कि हम उन्हें सुरक्षित, सम्मानजनक और सहयोगी वातावरण कैसे दें ताकि वे अपनी क्षमता को पूरी तरह सामने ला सकें।

हालांकि कानूनी और नीतिगत परिवर्तन पर्याप्त नहीं होंगे यदि उन्हें पारिवारिक और सामाजिक समर्थन न मिले। बहुत-सी महिलाएं कानूनी रूप से भले अब नाइट शिफ्ट करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन क्या उनका परिवार उन्हें अनुमति देगा? क्या समाज उन्हें बिना शक और संदेह के देखेगा? क्या कोई सास, माँ या पति उन्हें प्रोत्साहित करेगा या रोकने की कोशिश करेगा? इस निर्णय की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि हम अपने सामाजिक ताने-बाने में संवाद और जागरूकता का नया अध्याय कैसे जोड़ते हैं। ज़रूरत है कि स्कूल, कॉलेज, कॉलोनियाँ और कार्यस्थल ऐसे प्लेटफ़ॉर्म बनें जहाँ पुरुष और महिलाएं मिलकर इस नई व्यवस्था को ‘सामान्य’ मानें और महिला सहयोगियों को समान सम्मान दें। मीडिया, सोशल मीडिया और शैक्षणिक संस्थान इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं।

यह निर्णय महिलाओं के लिए सिर्फ आज़ादी ही नहीं, आत्मनिर्भरता की राह भी खोलता है। खासकर वे महिलाएं जो दिन में घरेलू जिम्मेदारियों में बंधी होती हैं, बच्चों की देखभाल करती हैं, उनके लिए नाइट शिफ्ट आय के एक नए स्त्रोत के रूप में सामने आती है। यह नौकरी अब केवल पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में नहीं रहेगी। यह महिलाओं को अतिरिक्त कमाई, आत्मनिर्भरता, और आत्मसम्मान देने का माध्यम बन सकती है। आर्थिक स्वतंत्रता का मतलब सिर्फ वेतन नहीं, बल्कि निर्णय लेने की शक्ति भी है। और जब एक महिला तय कर सके कि वह कब, कैसे और किस शर्त पर काम करेगी, तो वह सशक्त नहीं बल्कि समाज की निर्माता बन जाती है।

फिर भी हमें यह नहीं मानना चाहिए कि बदलाव सिर्फ कानून से आएगा। असली चुनौती उसके क्रियान्वयन की है। दिल्ली सरकार को चाहिए कि वह एक सशक्त “महिला कार्यबल निगरानी प्रकोष्ठ” बनाए जो कार्यस्थलों पर निरीक्षण करे, शिकायतों को सुने, और उल्लंघन पर त्वरित कार्यवाही करे। डिजिटल हेल्पलाइन, मोबाइल ऐप, चौबीसों घंटे चालू शिकायत पोर्टल और गुप्त रिपोर्टिंग की सुविधा इस निर्णय को और व्यावहारिक बना सकती है। अगर महिला कर्मचारी यह समझें कि उनके साथ कोई अन्याय हुआ तो वे सुरक्षित, सम्मानपूर्वक और तुरंत शिकायत कर सकती हैं—तो यह फैसला सशक्तिकरण का असली उपकरण बनेगा।

जो लोग इसे ‘राजनीतिक स्टंट’ या ‘कंपनियों को सस्ती श्रमशक्ति दिलाने का ज़रिया’ कहकर खारिज करना चाहते हैं, उन्हें सोचना चाहिए—अगर महिला अधिकार और आर्थिक ज़रूरतें एक साथ पूरी हो रही हैं, तो इसमें आपत्ति क्यों? क्या महिलाओं को अधिकार देना सिर्फ इसलिए बंद कर देना चाहिए कि कंपनियों को इससे भी लाभ होगा? यह तर्क उल्टा है। असल सवाल यह है कि क्या यह नीति महिलाओं को अधिक अवसर, अधिक सुरक्षा, और अधिक सम्मान देती है—और इसका जवाब है, हाँ। इसी तरह यह कहना कि यह महिला सुरक्षा को खतरे में डालेगा, यह मानना होगा कि सुरक्षा का हल है उन्हें घरों में बंद करना। असल में सुरक्षा देने की ज़िम्मेदारी समाज और व्यवस्था की है, न कि महिला की स्वतंत्रता की कीमत पर।

मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता का यह कदम दिल्ली को महिला सशक्तिकरण के नए मानचित्र पर स्थापित करता है। यह दिखाता है कि जब नेतृत्व में राजनीतिक इच्छाशक्ति और समावेशी दृष्टि हो, तो दशकों पुरानी सामाजिक धारणाओं को बदला जा सकता है। यह पहल सिर्फ दिल्ली की नहीं, बल्कि देश की हर उस महिला की है जो अब तक समय की जंजीरों में बंधी रही है। यह कदम केवल कानून में नहीं, लोगों के मन में बदलाव लाएगा। और जब कानून, समाज और परिवार एक दिशा में चलें—तो नारी सशक्तिकरण केवल सपना नहीं, हक़ बन जाता है।

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