नई दिल्ली 3 नवंबर 2025
लोकसभा चुनावों के बीच एक बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है। तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद और प्रसार भारती के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी जवाहर सरकार ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने दावा किया है कि बिहार की उन सीटों पर, जहां मुकाबला बेहद करीबी है, चुनाव आयोग ने जानबूझकर गुजरात कैडर के IAS और IPS अधिकारियों को पर्यवेक्षक के रूप में तैनात किया है। उनका प्रश्न है—“आख़िर क्यों?” उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा—“मैं कसम खाकर कहता हूँ—70 साल के इतिहास में इतना पक्षपाती चुनाव आयोग कभी नहीं देखा।”
जवाहर सरकार का आरोप है कि गुजरात कैडर के अधिकारियों को दो ही रास्ते चुनने पड़ते हैं—या तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के प्रति पूर्ण निष्ठा दिखाएँ, या फिर पुराने मामलों में जेल जाने का खतरा उठाएँ। उन्होंने इशारा किया कि क्या यह तैनाती सिर्फ इसलिए की गई है ताकि भारतीय जनता पार्टी इन सीटों पर किसी भी तरह से जीत सुनिश्चित कर सके?
सिर्फ IAS-IPS की तैनाती पर ही नहीं, जवाहर सरकार ने पुलिस पर्यवेक्षकों के चयन पर भी तीखा सवाल उठाया है। उनका कहना है कि अधिकांश पुलिस ऑब्ज़र्वर अमित शाह के नियंत्रण वाले AGMUT कैडर से भेजे गए हैं, जिनके पास सत्ताधारी शीर्ष नेतृत्व के आदेश मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं। यह चुनावों की सुरक्षा व्यवस्था और निष्पक्षता पर सीधा सवाल है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जवाहर सरकार ने इन आरोपों की बुनियाद के तौर पर अपने दीर्घ प्रशासनिक अनुभव को रखा है। उन्होंने कहा कि वे टी.एन. शेषन सहित कई मजबूत मुख्य चुनाव आयुक्तों के अधीन काम कर चुके हैं और दो लोकसभा चुनावों का सफल संचालन करने वाले शीर्ष प्रबंधक रहे हैं। साथ ही वे स्वयं भी चुनाव पर्यवेक्षक के रूप में कार्य कर चुके हैं। इस पृष्ठभूमि के साथ उनका बयान और भी गंभीर माना जा रहा है।
उन्होंने यह भी कहा कि चुनाव आयोग का दायित्व सिर्फ़ मतदान कराना भर नहीं है, बल्कि जनता के विश्वास को बनाए रखना भी है। यदि मतदाता को यह लगने लगे कि चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की कोशिश हो रही है, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को कमजोर कर देता है।
विपक्षी दलों का कहना है कि यह मामला चेतावनी का संकेत है और आयोग को इन आरोपों पर पारदर्शी एवं तथ्यपूर्ण स्पष्टीकरण देना चाहिए। वहीं सरकारी पक्ष की ओर से अब तक इन आरोपों पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। लोकतंत्र में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता सबसे बड़ी पूंजी होती है—और इसी पर अब राजनीतिक सवालों की तेज़ रोशनी पड़ चुकी है।
 

 


