बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के दिन एनडीए (NDA) पर गंभीर आरोपों का तूफान उठ खड़ा हुआ है। विपक्षी दलों ने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार पर आचार संहिता के खुले उल्लंघन का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग से तुरंत कार्रवाई की मांग की है। दरअसल, 6 नवंबर 2025 को ‘दैनिक जागरण’ के पटना संस्करण में एनडीए का फुल-पेज विज्ञापन छपा, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तस्वीरें थीं और मतदाताओं से विकास और स्थिरता के नाम पर वोट देने की अपील की गई थी। लेकिन समस्या यह है कि यह विज्ञापन उस समय छापा गया जब 48 घंटे का मौन अवधि (silence period) लागू था — यानी चुनाव प्रचार और मतदाता प्रभावित करने वाले किसी भी प्रकार के अभियान पर पूर्ण प्रतिबंध था।
विपक्ष ने इस कदम को “लोकतंत्र के खिलाफ सुनियोजित साजिश” बताया है। कांग्रेस, राजद, और वाम दलों ने एकजुट होकर चुनाव आयोग से पूछा है — “क्या यह विज्ञापन सिर्फ गलती है या सत्ता के अहंकार का प्रदर्शन?” राजद के नेताओं ने कहा कि यह सिर्फ आचार संहिता का उल्लंघन नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सीधा प्रहार है। उन्होंने सवाल उठाया कि अगर यही काम विपक्षी दलों ने किया होता, तो क्या चुनाव आयोग इतनी चुप्पी साधे रहता? कांग्रेस प्रवक्ता ने तीखा बयान देते हुए कहा, “एनडीए अब सत्ता की ताकत का इस्तेमाल लोकतंत्र को कुचलने के लिए कर रही है। यह विज्ञापन नहीं, यह प्रचार का पाप है।”
विज्ञापन को लेकर बवाल इसलिए और बढ़ गया क्योंकि यह बिहार के सबसे बड़े और प्रभावशाली अखबार में छपा, जिसकी पहुंच ग्रामीण मतदाताओं तक है। विपक्ष का दावा है कि यह विज्ञापन जानबूझकर छपवाया गया ताकि मतदान वाले दिन ही लोगों के मन में भाजपा-जेडीयू गठबंधन के पक्ष में माहौल बनाया जा सके। उन्होंने कहा कि यह न केवल चुनावी आचार संहिता का खुला उल्लंघन है बल्कि चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता पर गहरा प्रश्नचिह्न है। कांग्रेस नेता अजय कपूर ने कहा, “जब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री खुद इस तरह के विज्ञापन में शामिल हों, तो यह सिर्फ गलती नहीं, सत्ता का दुरुपयोग है।”
वहीं एनडीए समर्थकों ने सफाई देते हुए कहा कि यह विज्ञापन पहले चरण के लिए नहीं बल्कि दूसरे चरण के मतदान (11 नवंबर) के लिए लक्षित था। लेकिन यह तर्क भी विरोधियों को रास नहीं आया। आरजेडी प्रवक्ता मनोज झा ने पलटवार करते हुए कहा, “अगर विज्ञापन दूसरे चरण के लिए था, तो फिर उसे ऐसे वक्त में क्यों छापा गया जब पहले चरण की वोटिंग चल रही थी? यह चुनाव को प्रभावित करने की सोची-समझी चाल है।” उन्होंने चुनाव आयोग से मांग की कि तत्काल विज्ञापन देने वाले और प्रकाशित करने वाले दोनों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाए।
गौरतलब है कि चुनाव आयोग की गाइडलाइन के अनुसार किसी भी दल या उम्मीदवार को मतदान से 48 घंटे पहले किसी भी प्रकार का प्रचार या प्रचार-संबंधी सामग्री प्रकाशित करने की अनुमति नहीं होती। यह ‘मौन अवधि’ इसलिए होती है ताकि मतदाता बिना किसी दबाव या प्रचार के प्रभाव के अपने विवेक से मतदान कर सके। लेकिन एनडीए का यह कदम पूरे नियम-कायदों की धज्जियां उड़ाता नजर आया। विपक्षी नेताओं ने यहां तक कहा कि अगर इस बार चुनाव आयोग ने कार्रवाई नहीं की, तो यह “चुनाव प्रक्रिया पर विश्वास का अंत” होगा।
चुनाव आयोग अब तक इस विवाद पर आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दे पाया है, लेकिन सूत्रों का कहना है कि आयोग ने इस मामले की प्राथमिक जांच शुरू कर दी है और दैनिक जागरण के पटना कार्यालय से रिपोर्ट मांगी गई है। वहीं विपक्ष ने चुनाव आयोग की निष्क्रियता पर भी सवाल उठाते हुए कहा है कि “जब सत्ताधारी दल नियम तोड़ता है, तो आयोग मूकदर्शक बन जाता है, और जब विपक्ष बोलता है, तो नोटिस बरसने लगते हैं!”
यह पूरा विवाद एक बार फिर इस सवाल को केंद्र में लाता है कि क्या भारत में चुनाव अब भी निष्पक्ष और बराबरी के आधार पर हो रहे हैं, या फिर सत्ता पक्ष के पास नियमों से ऊपर उठकर चलने का विशेषाधिकार है। लोकतंत्र की जड़ें तब ही मजबूत होंगी जब नियम सब पर समान रूप से लागू होंगे — चाहे वह प्रधानमंत्री हों या एक साधारण प्रत्याशी। पर फिलहाल जो तस्वीर बिहार से सामने आई है, वह लोकतंत्र के माथे पर कलंक का टीका है।
बिहार के इस चुनावी बवाल ने यह साफ कर दिया है कि सत्ता पाने की होड़ में आचार संहिता अब केवल किताबों तक सीमित रह गई है। जनता अब यह पूछने लगी है — “क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ सत्ता का प्रचार है, या फिर जनता की निष्ठा और नैतिकता भी कुछ मायने रखती है?”
विज्ञापन के इस तूफान ने ना सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश की निगाहें चुनाव आयोग की ओर मोड़ दी हैं — अब देखना है कि आयोग लोकतंत्र की मर्यादा बचाता है या सत्ता के दबाव में खामोश रहता है।




