डॉ. शालिनी अली, समाजसेवी
नई दिल्ली 25 अगस्त 2025
भारत आज विज्ञान, तकनीक और अर्थव्यवस्था की दुनिया में नई उड़ान भर रहा है। मेट्रो शहरों की चमक, अंतरिक्ष में पहुँचते उपग्रह और डिजिटल इंडिया की तस्वीरें देखकर लगता है कि हम भविष्यगामी राष्ट्र में बदल चुके हैं। लेकिन इसी रोशनी के पीछे एक अंधेरा भी है, जो हर दिन हमारी सभ्यता की दीवारों को खोखला कर रहा है। यह अंधेरा है महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों का—दहेज हत्या, बलात्कार, घरेलू हिंसा और अपहरण का। यह संयोग नहीं कि आंकड़ों की मोटी फाइलों में दर्ज हर संख्या वास्तव में एक टूटी हुई ज़िंदगी, एक अधूरा सपना और एक परिवार की चीख है। सवाल यह है कि क्या यह वही भारत है, जिसकी कल्पना हमने आधुनिकता और समानता के साथ की थी, या यह एक ऐसा समाज बन चुका है जो अपनी ही बेटियों को मौत और लज्जा की आग में झोंकता है?
दहेज हत्या इसकी सबसे भयानक तस्वीर है। विवाह, जिसे जीवन का पवित्र संस्कार कहा जाता है, अब कई घरों में मौत का सौदा बन चुका है। एक युवा लड़की, जिसकी मुस्कान कभी उसके घर-आँगन को रौशन करती थी, शादी के बाद सिर्फ इसलिए चुपचाप जलती हुई मौत सहने को मजबूर हो जाती है क्योंकि वह नकद, कार या मकान नहीं ला पाई। NCRB की रिपोर्ट कहती है कि 2022 में 6,589 महिलाओं ने दहेज की भेंट चढ़कर अपनी जान गंवाई। क्या यह आंकड़ा ठंडी गिनती है, या यह हर उस कमरे की राख है जहाँ एक बेटी दिन-दिन भर जलती रही और दीवारें गूंगी बनीं रहीं? समाज का यह चेहरा घिनौना है कि हमारे मंदिरों-मस्जिदों में गूंजते मंत्र विवाह को पवित्र बताते हैं पर उसी विवाह की आड़ में लालच, हिंसा और हत्या का कारोबार चल रहा है।
घरेलू हिंसा का चेहरा और भयावह है। घर, जिसे स्त्री के लिए सबसे सुरक्षित स्थान माना जाना चाहिए, वही स्थान उसके लिए नरक साबित हो रहा है। 2022 में ही पति और ससुराल पक्ष की क्रूरता के 1,40,019 मामले दर्ज हुए, और यह केवल वे हैं जो पुलिस तक पहुंचे। असल सच्चाई कहीं ज्यादा खतरनाक है। कितनी ही महिलाएँ रोज़ मानसिक और शारीरिक यातना सहती हैं, पर “इज़्ज़त” के नाम पर चुप रहती हैं। यह कैसी सामाजिक संरचना है, जो स्त्री के दर्द को उसका भाग्य मान लेती है? एक लड़की, जिसने कभी फिल्मों में प्यार और समानता के सपने देखे थे, शादी के बाद थप्पड़ों, तानों और अपमान की गूँज में टूट जाती है—और उसे यह कहकर समझा दिया जाता है कि “यही शादीशुदा ज़िंदगी है, सहना सीखो।”
बलात्कार की बात करें, तो यह शब्द अकेले ही सभ्य समाज की आत्मा का गला घोंट देता है। हर 16 मिनट पर एक महिला, एक बच्ची, एक किशोरी बलात्कार की शिकार होती है। आँकड़े बताते हैं कि 2022 में 31,516 मामले दर्ज हुए, जिनमें से सैकड़ों मासूम बच्चियाँ थीं—वो बच्चियाँ जिनके लिए अभी दुनिया रंग-बिरंगे खिलौनों और अक्षरों से बनी होनी चाहिए थी। जिस देश में महिला को देवी का रूप मानने की घोषणा की जाती है, उसी देश में बच्चियों की अस्मिता रोज़ तार-तार की जाती है। कितना दर्दनाक है कि एक दस वर्षीय बच्ची, अपनी मासूम आँखों से पुलिस को बस इतना पूछती है—“मैंने क्या गुनाह किया था?” यह सवाल केवल उसकी मासूमियत का नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की विफलता का गवाह है।
अपहरण और छेड़छाड़ के मामले इस असुरक्षा को और गहरा करते हैं। खुले मैदान, व्यस्त सड़कें और भीड़-भाड़ वाले मोहल्ले तक महिलाओं के लिए अब सुरक्षित नहीं रहे। NCRB कहता है 2022 में 85,310 अपहरण और 83,344 छेड़छाड़ के मामले सामने आए। लेकिन हम सब जानते हैं, कितनी घटनाएँ पुलिस थानों में कभी दर्ज ही नहीं होतीं। कितनी किशोरियाँ चुपचाप घरवालों के मुँह बंद कर देने से मर जाती हैं, या फिर लापता फ़ाइलों में उनकी जिंदगियाँ दफन हो जाती हैं।
और अगर यह सब काफी नहीं था, तो आधुनिक तकनीक ने एक नया खतरा पैदा कर दिया है—साइबर अपराध। अब महिलाएँ सिर्फ गली-मोहल्लों में नहीं, अपने मोबाइल और लैपटॉप तक पर असुरक्षित हैं। सोशल मीडिया पर होने वाले उत्पीड़न, डीपफेक वीडियो और ऑनलाइन ब्लैकमेलिंग ने हर उस लड़की को शक और डर की परछाई में धकेल दिया है, जो कभी आज़ाद होकर अपनी आवाज़ बुलंद करना चाहती थी।
कानून की बात करें, तो हमारे पास दहेज निषेध अधिनियम से लेकर POSH और POCSO तक ठोस प्रावधान हैं, लेकिन कागजों में लिखे कानून और जमीनी हकीकत में फर्क साफ है। पुलिस के थाने में पीड़िता की आवाज़ बंद हो जाती है क्योंकि उसे सलाह दी जाती है कि “परिवार की इज़्ज़त के लिए समझौता कर लो।” अदालतों में मुकदमे वर्षों तक चलते हैं, और इंसाफ़ की आस लगाए हुए पीड़िता समाज और न्यायपालिका दोनों से थककर हार जाती है। सच तो यह है कि हमारे कानूनी ढांचे ने उसे सिर्फ इंतज़ार और अपमान का बोझ दिया है, न्याय नहीं।
तो सवाल यह है कि आखिर इस भयावह तस्वीर की जड़ कहाँ है? जवाब उतना ही सख्त और असुविधाजनक है—हमारे समाज की मानसिकता में। यह मानसिकता है, जहाँ स्त्री आज भी दोयम दर्जे की मानी जाती है। जहाँ पितृसत्ता उसे बोझ, जिम्मेदारी या परिवार की “इज़्ज़त” के नाम पर सजाए जाने वाले ताबूत का रूप बना देती है। महज़ आर्थिक निर्भरता ही नहीं, बल्कि सामाजिक चुप्पी भी अपराधियों को ताकत देती है।
इसलिए बात सिर्फ कानून या रिपोर्ट की नहीं है, बात उस चुपचाप सहने की आदत को तोड़ने की है, जो हमारी बेटियों को विरासत में दी जा रही है। बदलाव तभी संभव है, जब हम बच्चों को बचपन से ही लैंगिक समानता सिखाएँ, जब हम बेटी को उसकी आवाज़ और बेटों को उसका सम्मान करना सिखाएँ। जब समाज अपराधियों का बहिष्कार करे और अदालतें तुरंत व निर्णायक सज़ा दें। जब दहेज जैसी कुप्रथा पर शादी-ब्याहों में खुलकर “ना” कहा जाए और इसे शर्मसार करने वाला अपराध माना जाए।
यह कोई भावुक अपील नहीं है, यह सच्चाई है कि अगर समाज अब भी चुप रहा तो हमारी सभ्यता सचमुच अपनी ही बेटियों की चिताओं पर बैठकर राख ओढ़ लेगी। हमें यह तय करना है कि भारत का भविष्य एक आधुनिक, सुरक्षित और समानता पर आधारित राष्ट्र बनेगा या फिर यह वही स्थान होगा जहाँ नवविवाहित दुल्हनें राख में बदलती रहेंगी और मासूम बच्चियों की आँखों से सवाल टपकते रहेंगे।
अंततः यही सवाल गूँजता है: क्या हम केवल आँकड़ों को देखते रहेंगे, या उन आँकड़ों के पीछे दबे दर्द को सुनेंगे? क्या हम अपनी बेटियों को सचमुच सुरक्षित करेंगे, या उन्हें जलती चिताओं और टूटे सपनों के हवाले कर देंगे?
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