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दवाइयाँ: जीवन रक्षक या जीवन संकट?

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मानव सभ्यता ने विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में जितनी प्रगति की है, वह अद्भुत है। कभी छोटी-सी चोट या संक्रमण भी मौत का कारण बन जाता था, वहीं आज हम हार्ट ट्रांसप्लांट और कैंसर जैसी जटिल सर्जरी कर पा रहे हैं। यह सब आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा की देन है। लेकिन यही सच का दूसरा पहलू यह भी बताता है कि दवाइयाँ अक्सर लाभ के साथ-साथ नुकसान भी करती हैं। एक गोली बुखार या दर्द को खत्म कर सकती है, मगर वही दवा लीवर या किडनी पर बोझ डाल सकती है। कई बार जिन दवाओं को इलाज के तौर पर दिया जाता है, वही इंसान के लिए मौत का सबब बन जाती हैं। यह विरोधाभास हमें हमेशा सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर चिकित्सा पद्धति का असली रास्ता कौन-सा होना चाहिए।

एलोपैथी: तेज़ असर, लेकिन छिपा खतरा

एलोपैथी की सबसे बड़ी ताक़त उसका वैज्ञानिक आधार और त्वरित असर है। आपातकालीन स्थिति में, जैसे दिल का दौरा, गंभीर संक्रमण, ब्रेन स्ट्रोक या दुर्घटना, एलोपैथी के बिना किसी भी दूसरी पद्धति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐंटीबायोटिक्स ने करोड़ों जिंदगियाँ बचाई हैं और वैक्सीन ने घातक बीमारियों को जड़ से खत्म किया है। पर इसके साथ ही एलोपैथी की एक सच्चाई यह भी है कि हर दवा एक ‘केमिकल इंटरवेंशन’ है। इसका असर केवल रोग पर नहीं बल्कि पूरे शरीर पर पड़ता है। यही कारण है कि दवाओं के साइड इफेक्ट्स अक्सर सामने आते हैं। डायबिटीज़, हाई ब्लड प्रेशर और थायरॉयड जैसी बीमारियों के मरीज सालों-साल दवाओं पर निर्भर रहते हैं और धीरे-धीरे अन्य अंगों पर उनके असर देखने को मिलते हैं। इसके अलावा फार्मा कंपनियों और स्वास्थ्य उद्योग के बीच का व्यावसायिक दबाव भी चिंता का विषय है, जहाँ इलाज से ज्यादा मुनाफ़े पर ध्यान दिया जाता है।

नैचुरोपैथी: शरीर की स्वाभाविक शक्ति पर भरोसा

इसके विपरीत नैचुरोपैथी और परंपरागत पद्धतियाँ शरीर की प्राकृतिक शक्ति पर भरोसा करती हैं। योग, प्राणायाम, उपवास, संतुलित आहार, सूर्य स्नान और प्राकृतिक जड़ी-बूटियाँ — इन सबका उद्देश्य शरीर को इस काबिल बनाना है कि वह खुद बीमारियों से लड़ सके। यह पद्धति रोग को दबाने के बजाय उसकी जड़ तक पहुँचने की कोशिश करती है। सबसे बड़ी बात, इसमें साइड इफेक्ट्स बहुत कम होते हैं। लोग इसे अपनाकर लंबे समय तक बिना किसी बड़े नुकसान के जीवनशैली सुधार सकते हैं। लेकिन इसकी कमजोरी यह है कि आधुनिक विज्ञान के लिहाज़ से इसका रिसर्च और डॉक्यूमेंटेशन बहुत कम है। इसके कारण कई बार गंभीर रोगों में लोग समय गंवा देते हैं और जब तक वे एलोपैथिक इलाज की ओर आते हैं, तब तक स्थिति बिगड़ चुकी होती है।

संघर्ष नहीं, संतुलन जरूरी है

सवाल यह नहीं कि एलोपैथी सही है या नैचुरोपैथी। असली सवाल यह है कि किस स्थिति में कौन-सी पद्धति अपनाई जाए। हार्ट अटैक, कैंसर की सर्जरी, गंभीर संक्रमण या एक्सीडेंट में एलोपैथी का विकल्प नहीं है। वहीं, जीवनशैली से जुड़ी बीमारियाँ — मोटापा, तनाव, नींद की कमी, पाचन संबंधी समस्या या शुरुआती डायबिटीज़ जैसी स्थितियों में नैचुरोपैथी और योग बेहतर परिणाम देते हैं। यदि कोई इंसान अपनी दिनचर्या और आहार संतुलित रखे, प्रकृति से जुड़ा रहे, तो दवाओं पर उसकी निर्भरता स्वाभाविक रूप से कम हो जाती है।

भविष्य की चिकित्सा: इंटीग्रेटिव हेल्थकेयर

दुनिया अब एक नए रास्ते की ओर बढ़ रही है, जिसे “इंटीग्रेटिव हेल्थकेयर” कहा जाता है। इसका मतलब है कि एलोपैथी और नैचुरोपैथी को प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि पूरक के रूप में देखा जाए। डॉक्टर और वैद्य मिलकर मरीज का इलाज करें। आपातकालीन स्थिति में एलोपैथी का इस्तेमाल हो और लंबी अवधि की सेहत बनाए रखने में नैचुरोपैथी का सहारा लिया जाए। यही मॉडल आने वाले समय का आदर्श होगा। हमें यह समझना होगा कि हर दवा का असली उद्देश्य रोग को मिटाना नहीं बल्कि जीवन को सुरक्षित बनाना है। जब तक हम इस सोच को अपनाएंगे नहीं, तब तक दवाइयाँ हमारे लिए वरदान के साथ-साथ अभिशाप भी बनी रहेंगी।

 

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