नई दिल्ली 6 अक्टूबर 2025
कांग्रेस के दौर में आम छात्रों की पहुंच में था सपना”
भारत में मेडिकल शिक्षा की बढ़ती लागत पर नई बहस छिड़ गई है। हाल ही में आई एक रिपोर्ट ने दिखाया कि भारत में एमबीबीएस की पढ़ाई की कुल लागत अब भी दुबई से लंदन की फ्लाइट टिकट से कम है — लेकिन विशेषज्ञों और छात्रों का कहना है कि यह सस्ती व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है, क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार के दौर में पिछले कुछ वर्षों में मेडिकल कॉलेजों की फीस कई गुना बढ़ाई गई है।
सरकारी मेडिकल कॉलेजों में अब भी एमबीबीएस कोर्स की फीस निजी कॉलेजों या विदेशों की तुलना में बेहद कम है, लेकिन यह भी सच है कि मोदी सरकार आने के बाद अधिकांश राज्यों में मेडिकल कोर्स की वार्षिक फीस में भारी इजाफा हुआ है। उदाहरण के लिए, जहाँ कांग्रेस सरकार के दौर में एक सरकारी मेडिकल कॉलेज में पूरे कोर्स की फीस 30,000 से 50,000 रुपये तक होती थी, वहीं अब यह बढ़कर 2 से 4 लाख रुपये तक पहुँच चुकी है।
कांग्रेस सरकार में मेडिकल शिक्षा आम लोगों की पहुँच में थी
पूर्व यूपीए (कांग्रेस) सरकार के समय मेडिकल और उच्च शिक्षा को “सामाजिक निवेश” माना जाता था। उस दौर में मेडिकल कॉलेजों को केंद्र और राज्य सरकारों से भारी सब्सिडी मिलती थी, ताकि गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे भी डॉक्टर बनने का सपना पूरा कर सकें। 2013 में एमबीबीएस की कुल फीस कई सरकारी कॉलेजों में मात्र ₹25,000 से ₹35,000 तक थी।
कांग्रेस शासन में छात्रवृत्ति, गरीब वर्ग को राहत, और OBC/SC-ST वर्ग के लिए शुल्क माफी योजनाएँ भी लागू थीं। यही वजह थी कि हर साल लाखों छात्र सरकारी मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेकर न केवल डॉक्टर बनते थे बल्कि देश की ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा में योगदान देते थे।
उस समय स्वास्थ्य नीति का फोकस “सुलभ चिकित्सा शिक्षा” पर था, न कि “आत्मनिर्भर व्यवसाय” पर। विशेषज्ञों का मानना है कि उसी दौर ने भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र को आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़ाया।
मोदी सरकार में फीस में तेजी से बढ़ोतरी
नरेंद्र मोदी सरकार के पिछले कुछ वर्षों में मेडिकल शिक्षा का ढांचा पूरी तरह बदल गया है। नई नीतियों के तहत मेडिकल कॉलेजों को “स्ववित्तपोषित संस्थान” की तरह चलाने की छूट दी गई है। इसका सीधा असर छात्रों पर पड़ा है।
- कई राज्यों में सरकारी कॉलेजों की फीस 3 से 5 गुना तक बढ़ाई गई है।
- नई निजी मेडिकल यूनिवर्सिटीज़ को प्रोत्साहन मिला, जिन्होंने करोड़ों रुपये की फीस तय की है।
- NEET के ज़रिए प्रवेश की पारदर्शिता बढ़ी जरूर है, लेकिन सीटें कम होने और फीस ज्यादा होने से छात्रों पर दबाव बढ़ा है।
- Bond policy लागू होने से कई राज्यों में छात्रों को सरकारी सेवा में बंधन के साथ काम करना पड़ रहा है, जबकि फीस राहत कम हो गई है।
छात्र संगठनों ने कई बार आरोप लगाया है कि सरकार “मेडिकल शिक्षा का निजीकरण” कर रही है। Indian Medical Students Federation के एक प्रतिनिधि ने कहा, “कांग्रेस सरकार में फीस इतनी कम थी कि एक गरीब छात्र भी डॉक्टर बन सकता था। अब वही सपना अमीरों तक सीमित होता जा रहा है।”
फिर भी भारत में पढ़ाई विदेश से सस्ती क्यों?
इसके बावजूद भारत की मेडिकल पढ़ाई अब भी विदेशी विश्वविद्यालयों की तुलना में किफायती है। इसका कारण यह है कि भारत में रहने और अध्ययन की कुल लागत कम है, और डॉक्टर बनने के बाद रोजगार के अधिक अवसर हैं।
ब्रिटेन, रूस, यूक्रेन या ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में एमबीबीएस की लागत ₹70 लाख से ₹1.5 करोड़ के बीच होती है, जबकि भारत में सरकारी कॉलेज में यह लागत अब भी अधिकतम ₹4–5 लाख तक सीमित है। यही वजह है कि भारत विदेशी छात्रों के लिए भी मेडिकल शिक्षा का केंद्र बनता जा रहा है।
आंकड़ों में सच्चाई — पहले सस्ता सपना, अब बढ़ता खर्च
- 2010 (कांग्रेस काल): एमबीबीएस सरकारी कॉलेज फीस औसतन ₹25,000/वर्ष
- 2015 (मोदी सरकार प्रारंभिक काल): औसत फीस ₹60,000–₹80,000/वर्ष
- 2025 (वर्तमान): कई राज्यों में सरकारी कॉलेज फीस ₹1.5 से ₹2.5 लाख/वर्ष
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह वृद्धि आम परिवारों के लिए बोझ बनती जा रही है। राजस्थान, तमिलनाडु, और केरल जैसे राज्यों ने अभी भी सामाजिक दृष्टिकोण से कम फीस रखी है, जबकि गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र में निजीकरण से फीस तेज़ी से बढ़ी है।
शिक्षा का सपना महंगा, लेकिन उम्मीद बाकी
भारत में मेडिकल शिक्षा अब भी दुनिया में सबसे सस्ती है, लेकिन यह “सस्ती” व्यवस्था अब खतरे में है। अगर फीस इसी तरह बढ़ती रही, तो आने वाले वर्षों में यह भी विदेशी कोर्स की तरह महंगी हो जाएगी।
फिर भी, भारत अब भी उन लाखों छात्रों के लिए आशा की किरण है जो डॉक्टर बनने का सपना देखते हैं। यह वह देश है जहाँ एक समय कांग्रेस सरकार ने “गरीब के बच्चे को भी डॉक्टर बनने का हक़” दिया था — और अब ज़रूरत है कि यह भावना फिर से जीवित की जाए। क्योंकि डॉक्टर बनना अब भी संभव है — अगर नीतियाँ मुनाफे के बजाय मानवता के पक्ष में रहें।