सिर्फ यौन झुकाव नहीं, एक पहचान और इंसान होने की गरिमा
LGBTQ+ शब्द का मतलब है — Lesbian, Gay, Bisexual, Transgender, Queer (और अन्य विविध पहचानें)। ये केवल यौन संबंधों की बात नहीं करते, बल्कि इंसान की आत्म-पहचान, उसकी भावनाएं, उसकी मानसिक स्थिति और समाज में उसके अधिकारों का सवाल भी उठाते हैं। भारत जैसे विविधता भरे देश में, जहां देवी-देवताओं से लेकर आम इंसान तक अनेक रूपों में पूजे और समझे जाते हैं, वहां भी आज तक LGBTQ+ समुदाय को सामाजिक स्वीकृति, संवेदनशीलता और सुरक्षा की पूरी गारंटी नहीं मिल सकी है। यह लेख न केवल लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल और होमोसेक्सुअल लोगों को समझने का प्रयास करता है, बल्कि समाज से यह आग्रह भी करता है कि इन्हें सामान्य मानव अधिकारों के साथ देखा जाए — न कि सिर्फ “अलग” समझ कर।
लेस्बियन: जब एक स्त्री को स्त्री से प्रेम होता है
लेस्बियन वह स्त्री होती है जिसे यौन और भावनात्मक आकर्षण किसी अन्य स्त्री की ओर होता है। यह कोई बीमारी नहीं, न ही कोई बगावत। यह भी एक वैसा ही प्रेम है जैसा एक पुरुष किसी स्त्री से करता है — बस यह स्त्री-से-स्त्री के बीच होता है। कई महिलाएं अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा यह स्वीकार करने में ही गुज़ार देती हैं कि वे लेस्बियन हैं, क्योंकि समाज की दबी आवाज़ें, घरवालों का डर और “लोग क्या कहेंगे” का दबाव उन्हें भीतर ही भीतर तोड़ता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि एक महिला की लैंगिक पसंद अगर प्राकृतिक है और वह दोनों व्यक्तियों की सहमति से जुड़ी है, तो उसे न अपराध समझा जा सकता है, न पाप। लेस्बियन महिलाओं को समाज में अक्सर मज़ाक, तिरस्कार और चुप्पी से देखा जाता है — जबकि उन्हें उतना ही प्यार, सम्मान और आज़ादी मिलनी चाहिए जितनी किसी भी अन्य स्त्री को मिलती है।
गे और होमोसेक्सुअल: समान लिंग में प्रेम की स्वीकृति की लड़ाई
गे पुरुष वे होते हैं जो अन्य पुरुषों की ओर यौन या भावनात्मक रूप से आकर्षित होते हैं। इन्हें सामान्य जीवन जीने की अनुमति तो कानून ने दे दी है (भारत में 2018 में धारा 377 के अंत के बाद), लेकिन सामाजिक मानसिकता अभी तक पीछे चल रही है। जब कोई पुरुष कहता है कि वह समलैंगिक है, तो समाज में उसे ‘मर्दानगी की कमी’, ‘बीमारी’, ‘गंदगी’ या ‘पश्चिमी असर’ जैसे शब्दों से नवाज़ा जाता है। जबकि वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि होमोसेक्शुअलिटी जन्म से जुड़ी जैविक प्रवृत्ति है, जो व्यक्ति के हार्मोन और मस्तिष्क की संरचना से निर्धारित होती है। AIIMS और National Institute of Mental Health के विशेषज्ञों के अनुसार, समलैंगिक लोग मानसिक रूप से उतने ही स्वस्थ होते हैं जितने विषमलैंगिक। उन्हें ‘ठीक’ करने की कोई ज़रूरत नहीं होती, बल्कि उन्हें समझने और अपनाने की ज़रूरत होती है।
बायसेक्सुअल: जब प्रेम की सीमा लिंग पर नहीं टिकी होती
बायसेक्सुअल वह व्यक्ति होता है जिसे पुरुष और स्त्री दोनों की ओर यौन और भावनात्मक आकर्षण हो सकता है। यह पहचान सबसे ज़्यादा भ्रम और शंका का विषय बनी रहती है — कभी लोग इसे “निश्चित न होना”, तो कभी “मौकापरस्ती” समझ लेते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि बायसेक्सुअलिटी भी एक स्थिर लैंगिक झुकाव है, जिसमें इंसान केवल भावनाओं और जुड़ाव से जुड़ता है, न कि केवल लिंग के आधार पर। विशेषज्ञों के अनुसार, बायसेक्सुअल लोग मानसिक और भावनात्मक स्तर पर बेहद संवेदनशील होते हैं, लेकिन वे अपने झुकाव को समाज के डर से छिपाकर जीते हैं। उन्हें दोहरी पहचान के बोझ से मुक्त करने की ज़रूरत है — और समाज को यह समझने की भी कि प्रेम किसी बॉक्स या श्रेणी में कैद नहीं किया जा सकता।
समाज की सोच: कानूनी बदलाव तो हुए, पर मानसिकता कब बदलेगी?
सुप्रीम कोर्ट ने भले ही समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया हो, लेकिन सड़कों, परिवारों और कार्यस्थलों पर अभी भी LGBTQ+ लोगों को ताने, भेदभाव, हिंसा और बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। आज भी माता-पिता अपने गे या लेस्बियन बच्चों को “सुधारने” के लिए उन्हें जबरन शादी, डॉक्टर या धर्मगुरु के पास भेजते हैं। स्कूलों और कॉलेजों में LGBTQ+ छात्र अक्सर मानसिक उत्पीड़न का शिकार होते हैं। भारत में अभी तक same-sex marriage को कानूनी मान्यता नहीं मिली है — और न ही ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा और अवसर उपलब्ध हैं।
समाज को यह समझना होगा कि सेक्सुअलिटी कोई “चॉइस” नहीं होती — यह व्यक्ति की पहचान होती है। किसी के झुकाव को बदलने की कोशिश करना, उसे शर्मिंदा करना या उससे दूरी बनाना, सीधे तौर पर मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
विशेषज्ञों की राय: यौन झुकाव नहीं, मानसिक संतुलन और आत्मस्वीकृति ज़रूरी
मनोवैज्ञानिकों, सेक्सोलॉजिस्ट और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि LGBTQ+ समुदाय के लोग तब तक समाज में आत्मविश्वास से नहीं जी सकते, जब तक उन्हें सम्मान, समावेश और सुरक्षा का वातावरण न मिले।
डॉ. श्रद्धा शाह (क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट, मुंबई) के अनुसार, “किसी की लैंगिक पहचान को ‘ठीक’ करने की कोशिश करना वैसा ही है जैसे किसी बाएं हाथ से लिखने वाले को दाएं से लिखने पर मजबूर करना — यह अस्वाभाविक और अमानवीय है।”
डॉ. विपिन कौशल (सेक्सोलॉजिस्ट, दिल्ली) कहते हैं, “होमोसेक्शुअल या बायसेक्सुअल लोग मानसिक रूप से अस्वस्थ नहीं होते, बल्कि समाज उन्हें बीमार मानकर मानसिक तनाव में डाल देता है।”
इसलिए ज़रूरी है कि शिक्षा प्रणाली में यौन शिक्षा को सम्मानपूर्वक शामिल किया जाए, मीडिया इनकी छवि को सकारात्मक रूप में दिखाए, और सरकारें इन्हें स्वास्थ्य, रोजगार और विवाह जैसे मूल अधिकार दें।
इज़्ज़त और समझ — यही असली ‘Straight Thinking’ है
LGBTQ+ समुदाय को स्वीकृति देना कोई विशेष कृपा नहीं है, बल्कि यह इंसानियत की पहली शर्त है। यह याद रखना ज़रूरी है कि कोई व्यक्ति कैसे सोचता है, किससे प्रेम करता है या किस शरीर में सहज महसूस करता है — यह उसका निजी अधिकार है।
समाज को अब सिर्फ “नॉर्मल” की परिभाषा बदलने की ज़रूरत नहीं, बल्कि उसे इंसान को पहले देखने की ज़रूरत है — पहचान बाद में। लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल या ट्रांसजेंडर होना अपराध नहीं, कमजोरी नहीं, बल्कि एक जीवन की सच्चाई है — और उस सच्चाई को गले लगाना ही सबसे बड़ा साहस और सभ्यता है।
प्रेम का रंग, रूप और नाम भले बदलता हो — उसकी गरिमा हमेशा एक-सी होती है। जो इंसान अपने जैसा बनने की आज़ादी चाहता है, उसे दूसरों की पहचान को भी समझना और सम्मान देना होगा।