लेखक: अशोक वर्मा, वरिष्ठ पत्रकार
नई दिल्ली 26 सितंबर 2025
लद्दाख — यह नाम केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि हिमालय की गोद में बसा वह क्षेत्र है जो भारत की आत्मा और सीमा सुरक्षा का प्रहरी है। 97 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासी समुदायों की है। पूर्वोत्तर के जिन आदिवासी बहुल राज्यों को संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वही संवैधानिक सुरक्षा लद्दाख को अब तक क्यों नहीं मिली? जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बाँटा था, तब लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का वादा किया गया था। लेकिन यह वादा आज भी अधूरा है। न छठी अनुसूची का लाभ मिला, न राज्य का दर्जा। यह सिर्फ वादाखिलाफी नहीं, एक गंभीर अन्याय है।
लद्दाख के गांधीवादी नेता और रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित सोनम वांगचुक वर्षों से शांतिपूर्ण आंदोलन चला रहे हैं। उन्होंने शिक्षा से लेकर पर्यावरण तक लद्दाख को नई पहचान दी। लेकिन जब उन्होंने दिल्ली तक पदयात्रा की, तो उन्हें रास्ते में रोका गया, जबरन बस में बैठाया गया, राजघाट जाने से रोका गया और मीडिया से मिलने तक की अनुमति नहीं दी गई। यह उस लोकतंत्र में हुआ जो दुनिया को अहिंसा और सत्याग्रह की सीख देने का दावा करता है।
लेह में जब उनका उपवास जारी था, तब सैकड़ों लोग उनके साथ खड़े थे। सोलहवें दिन जब दो बुजुर्ग अनशनकारियों की हालत बिगड़ी, तब युवा भड़क उठे। गुस्से की आग सड़कों पर फैल गई। बीजेपी कार्यालय में आग लगा दी गई, पुलिस फायरिंग में चार युवाओं की मौत हो गई और दर्जनों घायल हो गए। पूरे लद्दाख में कर्फ्यू लगाना पड़ा। यह हिंसा किसी को भी स्वीकार्य नहीं हो सकती, लेकिन यह भी सच है कि यह आक्रोश वर्षों से उपेक्षित जनता के दिल में जमा दर्द का विस्फोट है।
सोनम वांगचुक ने हिंसा से आहत होकर अपना उपवास तोड़ दिया। उन्होंने कहा कि यह निर्णय आगे और खूनखराबा रोकने के लिए लिया गया। लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार इस संदेश को समझेगी? क्या केंद्र सरकार इस अवसर को संवाद के लिए इस्तेमाल करेगी या इसे दमन के बहाने के रूप में? फिलहाल संकेत यही हैं कि वांगचुक को गिरफ्तार करने, उनके संगठन को तोड़ने और उन्हें “विदेशी एजेंट” या “देशद्रोही” बताने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं।
आज लद्दाख उसी मोड़ पर खड़ा है जहाँ कभी मणिपुर खड़ा था। मणिपुर आज भी हिंसा की आग में जल रहा है और सरकार ने वहाँ भी समाधान के बजाय केवल बल प्रयोग का रास्ता चुना है। क्या हम चाहते हैं कि लद्दाख भी मणिपुर की तरह एक स्थायी जख्म बन जाए?
यह समय है जब पूरा राष्ट्र लद्दाख के साथ खड़ा हो। सोनम वांगचुक और लद्दाख के लोग जो माँग कर रहे हैं, वह न तो असंवैधानिक है, न अव्यावहारिक। वे केवल वही चाहते हैं जो उन्हें वर्षों पहले वादा किया गया था — संवैधानिक सुरक्षा और राज्य का दर्जा। यदि हम अब भी चुप रहे तो यह चुप्पी केवल लद्दाख ही नहीं, पूरे राष्ट्र के लोकतांत्रिक चरित्र पर सवाल खड़ा करेगी।