मोहम्मद मुदस्सिर अशरफ़ी
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मुस्लिम स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इंडिया
नई दिल्ली । 31 जुलाई 2025
वहाबी विचारधारा की बुनियाद: किताब अल-तौहीद और उसका प्रसार
18वीं सदी में मोहम्मद इब्न अब्दुल वह्हाब द्वारा लिखित किताब अल-तौहीद (एकेश्वरवाद की किताब) वहाबी विचारधारा की आधारशिला मानी जाती है। यह इस्लामी एकेश्वरवाद (तौहीद) की सख्त और शाब्दिक व्याख्या करती है। सलफी हलकों में इसे एक पुनर्जागरणकारी ग्रंथ माना जाता है, लेकिन यही किताब चरमपंथी संगठनों जैसे ISIS और अल-कायदा की विचारधारात्मक रीढ़ भी बन चुकी है। इस लेख में बताया गया है कि यह किताब कैसे उग्रवाद, हिंसा और युवाओं की ब्रेनवॉशिंग का ज़रिया बनी।
किताब अल-तौहीद और वहाबी सिद्धांत
अब्दुल वह्हाब का सिद्धांत उस समय सामने आया जब उन्होंने यह महसूस किया कि इस्लाम में तरह-तरह की “बिदअत” (नवाचार) और “गुमराहियां” फैल चुकी हैं। उस समय सूफ़ी संतों की दरगाहों और ख़ानक़ाहों पर लोगों का जाना और श्रद्धा दिखाना आम था, जिसे वह्हाब ने तौहीद के ख़िलाफ़ बताया। उनके अनुसार, सूफियों से दुआ मांगना या उन्हें अल्लाह और इंसान के बीच मध्यस्थ बनाना “शिर्क” यानी बहुदेववाद है, जो इस्लाम में एक गंभीर पाप है।
वह्हाबी दृष्टिकोण के अनुसार, दरगाहों पर जाना या वहाँ श्रद्धा दिखाना मूर्तिपूजा के समान है। उनकी विचारधारा ने सबसे पहले अरब के क़बीलों में जगह बनाई और फिर मुहम्मद इब्न सऊद के साथ गठबंधन के ज़रिए सऊदी अरब की नींव पड़ी। इसके बाद वहाबी विचारधारा को संस्थागत रूप दिया गया। किताब अल-तौहीद में मुसलमानों को दो हिस्सों में बाँटा गया — सच्चे एकेश्वरवादी और भटके हुए। इसी सोच ने तकफीरी विचारधारा को जन्म दिया, जिसके अनुसार जो मुसलमान “शुद्ध तौहीद” से हट जाएं, वे दीन से बाहर हैं और उन्हें मारना जायज़ है।
कट्टर विचारधारा और तकफीरी मानसिकता
किताब अल-तौहीद की सबसे बड़ी खामी उसकी विचारधारात्मक कठोरता है। बिना गहराई से शोध के यह किताब एक लंबी फतवे की तरह लगती है, जिसमें अनेक संदिग्ध उद्धरण और व्याख्याएं हैं। यह हर उस कार्य को जो सूफ़ी परंपरा से जुड़ा है — शिर्क घोषित कर देती है और उसकी सज़ा मौत तक बताती है। इसी सोच का सहारा लेकर ISIS जैसे संगठन अपने विरोधियों को काफिर कहकर कत्ल करने को जायज़ ठहराते हैं।
इस किताब की “वला और बरा” की अवधारणा — यानी सिर्फ एकेश्वरवादियों से प्रेम और बाक़ी सब से अलगाव — को कट्टरपंथियों ने युद्ध की आज्ञा की तरह लिया है। इस सोच में सहिष्णुता या विविधता के लिए कोई स्थान नहीं होता।
कैसे ISIS ने किताब अल-तौहीद को हिंसा के हथियार में बदला
ISIS के प्रचार और ट्रेनिंग मटेरियल में अक्सर किताब अल-तौहीद का हवाला दिया जाता है। नए भर्ती किए गए युवाओं को समझाया जाता है कि “शुद्ध एकेश्वरवाद” के नाम पर काफिरों और सूफ़ियों को मारना जरूरी है:
सूफियों और पारंपरिक सुन्नियों को निशाना बनाना: दरगाहों पर हमले और सूफी उलेमाओं की हत्या को वहाबी सिद्धांतों से सही ठहराया जाता है।
नवयुवकों की ब्रेनवॉशिंग: इस्लामी परंपराओं की विविधता से अनजान युवाओं को इस किताब की सरलीकृत और उग्र व्याख्या देकर कट्टरता की ओर धकेला जाता है।
धार्मिक विरासत का विनाश: ISIS द्वारा धार्मिक स्थलों को ध्वस्त करने की जड़ भी यही विचारधारा है, जिसमें दरगाहों और मजारों को “मूर्तिपूजा” का प्रतीक बताया जाता है।
विचारधारात्मक कब्ज़ा और विविधता का बहिष्कार
किताब अल-तौहीद का असली खतरा इसकी मौजूदगी में नहीं, बल्कि इसके एकमात्र “सही इस्लामी व्याख्या” के रूप में प्रचार में है। पारंपरिक सुन्नी और सूफ़ी विद्वानों ने हमेशा तौहीद को मानते हुए फिक़्ह और मज़हबी विविधता को सम्मान दिया। लेकिन वहाबी-सलफी समूह इस विविधता को ख़ारिज कर सिर्फ एक ही व्याख्या को थोपते हैं, जिससे सदियों पुरानी इस्लामी सभ्यता का विनाश होता है।
डिजिटल सलफ़ियत और भारतीय मुस्लिम युवाओं का कट्टरपंथी बनना
हाल के वर्षों में डिजिटल सलफ़ियत का प्रभाव भारतीय मुस्लिम युवाओं पर बढ़ा है। यूट्यूब, टेलीग्राम, और व्हाट्सऐप जैसे प्लेटफॉर्म पर किताब अल-तौहीद के सरल अनुवाद और वीडियो भरमार की तरह फैलाए जा रहे हैं। इन प्लेटफॉर्म्स पर पारंपरिक इस्लामी आस्थाओं जैसे सूफियों की मजार पर जाना, उर्स मनाना या तवज्जोह करना — सबको शिर्क कहा जा रहा है। इसका परिणाम यह है कि कई युवा भारत की बहुलतावादी इस्लामी विरासत से कटते जा रहे हैं, और उनमें पहचान को लेकर भ्रम, सांप्रदायिक द्वेष और असहिष्णुता बढ़ रही है।
इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए सूफ़ी संस्थानों को आगे आना होगा — उन्हें डिजिटल माध्यमों, ख़ानक़ाहों, शिक्षा और समाजसेवा के ज़रिए युवाओं को एक ऐसी इस्लामी पहचान देनी होगी जो भारतीय मूल्यों में रची-बसी हो, इस्लामी नैतिकता के अनुरूप हो और उग्रवाद से दूर हो।
कट्टरपंथ का जवाब: भारतीय सूफी इस्लाम
भारतीय मुस्लिम युवाओं पर वहाबी साहित्य के असर को रोकने के लिए भारत के सूफी इस्लाम को अपने संदेश को और मज़बूती से फैलाना होगा। भारतीय सूफी परंपरा सहिष्णुता, प्रेम, और सेवा का रास्ता दिखाती है। ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, इमाम अहमद रज़ा, शाह मीना जैसे संतों की शिक्षाएं हमें बताती हैं कि कैसे इस्लामी आस्था को स्थानीय संस्कृति और मानव सेवा के साथ जोड़ा जा सकता है।
युवाओं को बताना होगा कि सूफ़ी इस्लाम कोई “पुरानी बात” नहीं, बल्कि आज के समय में उग्रवाद और नफ़रत के ख़िलाफ़ एक प्रभावशाली ढाल है। यह सिर्फ हमारी विरासत नहीं, हमारी आत्मा है — और यही भारत के युवाओं को कट्टरता से बचाने का सबसे मजबूत रास्ता है।