नई दिल्ली । 28 जुलाई 2025
पृष्ठभूमि: एक आग, एक जांच और उठते सवाल
दिल्ली में 14-15 मार्च 2025 की रात को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास में आग लगने की घटना ने देश की न्यायिक व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया। इस हादसे के बाद जब पुलिस और दमकल विभाग मौके पर पहुंचे, तो गले हुए नोटों के बंडल उस मकान के एक स्टोररूम से मिले। यह एक ऐसा दृश्य था जिसने मीडिया और संसद दोनों में तहलका मचा दिया।
जांच में यह बात सामने आई कि उस समय जस्टिस वर्मा और उनकी पत्नी भोपाल में छुट्टी पर थे। इसके बावजूद सवाल उठे कि आखिर उनके घर में इतनी बड़ी मात्रा में नकदी कैसे पहुंची और क्या यह भ्रष्टाचार से जुड़ा हुआ मामला है? इसी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना ने एक इन-हाउस जांच समिति का गठन किया।
इन-हाउस जांच समिति और रिपोर्ट का प्रभाव
मुख्य न्यायाधीश की गठित तीन सदस्यीय इन-हाउस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि न्यायमूर्ति वर्मा के सरकारी आवास के स्टोर में नकदी मिली थी और दिल्ली पुलिस व दमकल विभाग ने गंभीर लापरवाही बरती। समिति ने साफ किया कि मौके पर एफआईआर दर्ज नहीं की गई, न ही किसी तरह की जब्ती सूची तैयार की गई।
इस रिपोर्ट के आधार पर सीजेआई खन्ना ने मई 2025 में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को सिफारिश भेजी कि जस्टिस वर्मा को न्यायिक पद से हटाया जाए। वर्मा ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया और इस सिफारिश को अदालत में चुनौती दी।
संसद की सक्रियता और राजनैतिक संकेत
इस मामले ने राजनीति में भी उबाल ला दिया। लोकसभा में 152 सांसदों ने जस्टिस वर्मा की बर्खास्तगी के लिए प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए — जिनमें सत्तारूढ़ गठबंधन और विपक्ष दोनों के सदस्य शामिल हैं। दूसरी ओर, राज्यसभा में विपक्ष द्वारा दिया गया प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया।
केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि यह निर्णय पूरी तरह संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है और इसमें सरकार की कोई सीधी भूमिका नहीं है। उन्होंने कहा, “यह मुद्दा सभी दलों की सहमति से उठाया गया है, जो न्यायपालिका में संभावित भ्रष्टाचार के खिलाफ एक संयुक्त प्रयास है।”
सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई और गूंजते सवाल
28 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट की बेंच — जस्टिस दीपांकर दत्ता और ए.जी. मशी — ने इस याचिका पर सुनवाई की। याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने दलील दी कि इन-हाउस जांच रिपोर्ट को बुनियाद बनाकर बर्खास्तगी की सिफारिश करना पूरी तरह संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन है। उन्होंने कहा कि जजों के खिलाफ कार्रवाई का तरीका स्पष्ट रूप से Judges Inquiry Act और संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत ही किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कई गंभीर सवाल उठाए:
- क्या न्यायमूर्ति वर्मा जांच समिति के सामने पेश हुए?
- यदि रिपोर्ट की कानूनी वैधता नहीं है, तो उससे आपत्ति क्यों?
- क्या जांच रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजना गैरकानूनी है?
कपिल सिब्बल की संवैधानिक दलीलें
कपिल सिब्बल ने कोर्ट को अनुच्छेद 124 और 217 का हवाला देते हुए बताया कि किसी भी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को केवल तभी हटाया जा सकता है जब दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित हो और राष्ट्रपति को भेजा जाए।
उन्होंने कहा, “जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती, किसी जज के आचरण पर न तो संसद और न ही मीडिया में चर्चा की जा सकती है। लेकिन यहां मीडिया ट्रायल हुआ, टेप लीक किया गया, और देशभर में चर्चा शुरू कर दी गई। यह न्यायपालिका की गरिमा और निष्पक्षता पर सीधा प्रहार है।”
अदालत का रुख और अगली दिशा
सुप्रीम कोर्ट ने सिब्बल से कहा कि अगर वह जांच रिपोर्ट पर बहस करना चाहते हैं, तो उसे रिकॉर्ड पर लाएं। कोर्ट ने यह भी कहा कि मामले को गंभीरता से लिया जा रहा है, लेकिन बिना सभी दस्तावेजों के वह कोई आदेश पारित नहीं कर सकता।
कोर्ट ने अगली सुनवाई 30 जुलाई को तय की है, जहां यह तय होगा कि याचिका को संवैधानिक रूप से किस दिशा में आगे बढ़ाया जाए।
क्या यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला है या लोकतांत्रिक पारदर्शिता की मांग?
जस्टिस यशवंत वर्मा का यह तर्क कि सुप्रीम कोर्ट की इन-हाउस जांच प्रक्रिया संसद के अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन करती है, भारतीय न्यायपालिका के भीतर ही एक संवैधानिक टकराव को दर्शाता है। यह मामला अब न केवल एक न्यायाधीश के आचरण पर है, बल्कि इस सवाल पर भी है कि संविधान के तहत शक्तियों का संतुलन कैसे बनाए रखा जाए।
संवैधानिक बहस का केंद्रबिंदु बना एक न्यायिक विवाद
इस पूरे घटनाक्रम ने भारतीय लोकतंत्र की तीनों संस्थाओं — न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका — के बीच सीमाओं और संतुलन की गंभीर बहस को जन्म दिया है। आगामी सुनवाई में यह स्पष्ट होगा कि क्या न्यायपालिका संसद के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है या क्या संसद एक न्यायाधीश को हटाने के नाम पर न्यायिक स्वतंत्रता पर अतिक्रमण कर रही है। 30 जुलाई की सुनवाई अब न केवल जस्टिस वर्मा के भविष्य के लिए, बल्कि भारत की संवैधानिक व्यवस्था की साख के लिए भी निर्णायक होगी।