यरूशलम/गाज़ा सिटी 4 अक्टूबर 2025
एक बार फिर मध्य पूर्व ने साबित कर दिया कि यहाँ शांति केवल घोषणाओं में होती है, ज़मीन पर नहीं। डोनाल्ड ट्रंप के नए “शांति प्रस्ताव” की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि इजरायल ने गाज़ा पर भीषण हवाई हमला कर दिया। इस बार की विडंबना यह है कि हमास ने, तमाम दबावों और ऐतिहासिक अविश्वास के बावजूद, ट्रंप की योजना को स्वीकार करने की घोषणा की थी। यह पहली बार था जब किसी अमेरिकी पहल को गाज़ा ने “संवाद के आधार” पर मानने की बात कही थी। मगर इजरायल ने इसे कमजोर पड़ने का संकेत मान लिया — और रात होते-होते आसमान में मिसाइलें चमक उठीं। गाज़ा में फिर वही चीखें, वही मलबे के नीचे दबी ज़िंदगियाँ, और वही सवाल: आखिर “शांति” का अर्थ कब तक युद्ध ही रहेगा?
गाज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, इजरायली हमलों में 46 से अधिक लोग मारे गए, जिनमें कई महिलाएँ और बच्चे शामिल हैं। तीन अस्पताल पूरी तरह नष्ट हो गए, और सैकड़ों परिवार बेघर हो चुके हैं। हवाई हमले का निशाना तथाकथित “हमास कमांड सेंटर” बताया गया, लेकिन मलबे से जो निकला, वह सैन्य ठिकाने नहीं — घर, स्कूल और किराने की दुकानें थीं। संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि “गाज़ा अब दुनिया की सबसे घनी आबादी वाला खुला कब्रिस्तान बन चुका है।” पर इजरायली सेना के प्रवक्ता का बयान उतना ही ठंडा था जितनी किसी मशीन की आवाज़ — “हमने आतंक के ठिकानों को निशाना बनाया।” दुनिया यह झूठ पिछले दो दशकों से सुन रही है, लेकिन हर बार “आतंकी” की जगह एक बच्चा मरता है, एक माँ दहशत में सिसकती है, और एक शहर राख हो जाता है।
ट्रंप का यह तथाकथित “शांति प्रस्ताव” अब शांति का नहीं, राजनीतिक उपहास का प्रतीक बन गया है। अमेरिका ने जो योजना पेश की थी, वह सतही तौर पर एक आर्थिक साझेदारी और सीमित स्वायत्तता की बात करती थी। गाज़ा को कुछ हद तक स्वतंत्र आर्थिक जोन के रूप में विकसित करने की बात कही गई थी, जबकि वेस्ट बैंक में “सुरक्षा नियंत्रण” का अधिकार इजरायल को सौंपा गया था। यह कोई न्यायपूर्ण योजना नहीं थी, लेकिन हमास ने संवाद की इच्छा दिखाकर एक अप्रत्याशित मोड़ दिया था। मगर इजरायल ने उस संवाद को कमजोरी समझ लिया और हमला कर दिया — जैसे किसी ने बातचीत की मेज़ पर बैठने की कोशिश की, और सामने वाले ने कुर्सी ही उड़ा दी।
हवाई हमलों की भयावहता शब्दों में बयान करना मुश्किल है। गाज़ा सिटी, खान यूनिस और रफ़ा जैसे इलाकों में बमबारी इतनी तीव्र थी कि पूरा शहर रात भर दहशत में डूबा रहा। कई इलाकों की बिजली व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। अस्पतालों में न दवाइयाँ हैं, न बिजली, और न ही कोई ठिकाना। Doctors Without Borders के एक चिकित्सक ने कहा — “हम अब घाव नहीं सिल रहे, बस बची हुई ज़िंदगियों की गिनती कर रहे हैं।” एक और स्थानीय महिला ने कैमरे के सामने अपने बच्चे की लाश गोद में लेकर कहा — “उन्होंने कहा था कि शांति आने वाली है, पर अब हमारे घरों में सिर्फ राख है। बताइए, यह कैसी शांति है?”
यह तस्वीर न सिर्फ इजरायल के सैन्य रवैये की है, बल्कि पूरी वैश्विक राजनीति के पाखंड की भी। अमेरिका ने तुरंत बयान जारी किया कि “इजरायल को आत्मरक्षा का अधिकार है।” यही वह पंक्ति है जिसने हर युद्ध को वैधता दी है। हर बार यही कहा जाता है, हर बार यही होता है — और हर बार वही लोग मरते हैं जिनका कोई वॉइस नोट भी इतिहास में नहीं सुना जाता। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने आपात बैठक बुलाई, लेकिन नतीजा शून्य रहा। अरब देशों की भूमिका भी वैसी ही रही जैसी हमेशा रहती है — बयान जारी करो, निंदा करो, और फिर चुप हो जाओ। मिस्र, सऊदी अरब और जॉर्डन ने केवल “संयम बरतने की अपील” की है। वहीं, ईरान ने इसे “फिलिस्तीन पर घोषित युद्ध” कहा, लेकिन उसकी आवाज़ भी ड्रोन के शोर में खो गई। यह दुनिया अब “मौन की कूटनीति” के दौर में जी रही है।
सवाल यह नहीं है कि गाज़ा में कौन सही है या गलत। सवाल यह है कि दुनिया ने “शांति” शब्द को इतना हल्का बना दिया है कि अब वह युद्ध का पर्याय बन गया है। ट्रंप का प्रस्ताव “Peace Revival Plan” नहीं था, बल्कि एक Power Management Deal थी — जिसमें ताकतवर को और ताकत मिलती है और पीड़ित को वादा। इजरायल जानता है कि उसे जवाबदेही का डर नहीं है, क्योंकि दुनिया की सबसे ताकतवर ताकत उसके साथ खड़ी है। अमेरिका की “मध्यस्थता” दरअसल मध्य धारा में पत्थर फेंकने जैसा काम करती है — लहरें शांति की नहीं, विनाश की पैदा करती हैं।
यह स्थिति हमें एक गहरे प्रश्न की ओर ले जाती है: क्या “Peace” अब एक हथियार बन चुका है? इजरायल के लिए “सुरक्षा” एक स्थायी कारण बन चुका है, जैसे किसी नशे की लत। हर हमले के बाद कहा जाता है कि यह आत्मरक्षा थी, और हर बार वह आत्मरक्षा किसी और की ज़िंदगी छीन लेती है। दुनिया के सबसे तकनीकी रूप से उन्नत देश का यह “नैतिक पतन” अब किसी स्पष्टीकरण की ज़रूरत नहीं रखता। अब तो केवल दृश्य ही पर्याप्त हैं — टूटे घर, जलते अस्पताल, और वो बच्चे जिनके पास अब कोई भविष्य नहीं बचा।
सच कहा जाए तो, ट्रंप का “Peace Plan” और इजरायल की “Defence Strategy” दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं — एक हाथ में मुस्कान और दूसरे में मिसाइल। शांति अब एक ब्रांड है, जिसे ताकतवर राष्ट्रों ने अपने हथियारों के विज्ञापन की तरह इस्तेमाल करना सीख लिया है। इजरायल की बमबारी ने साबित कर दिया कि दुनिया का सबसे बड़ा झूठ यही है कि युद्ध कभी “न्यायपूर्ण” हो सकता है। और इस झूठ की कीमत गाज़ा के लोग हर दिन अपनी ज़िंदगी से चुका रहे हैं।
गाज़ा में अब सिर्फ मलबा नहीं, बल्कि विश्वास की राख भी बिखरी पड़ी है। हर ईंट यह कहती है कि “शांति” शब्द का अर्थ अब बदल गया है — अब इसका मतलब है “जब बम गिरना बंद हो जाए, पर अन्याय चलता रहे।” ट्रंप ने जिस “शांति सौदे” का एलान किया था, वह आज राख में बदल गया है। और इजरायल ने यह साबित कर दिया है कि जब शक्ति जवाबदेही से मुक्त हो जाती है, तो संवाद की कोई गुंजाइश नहीं बचती। आज गाज़ा में जो जल रहा है, वह सिर्फ शहर नहीं — वह दुनिया का विवेक है। और अगर यह विवेक बुझ गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ सिर्फ यह याद रखेंगी कि हमारे समय में “शांति” नाम का शब्द बमों के साथ मर गया था।