नई दिल्ली 7 अक्टूबर 2025
न्यायपालिका बनाम नफरत की राजनीति: लोकतंत्र की नींव पर खतरा
भारत में, न्यायपालिका को हमेशा संविधान का संरक्षक और लोकतंत्र का तीसरा, सबसे विश्वसनीय स्तंभ माना गया है। यह वह संस्था है जहाँ नागरिकों को अंतिम उम्मीद मिलती है। हालाँकि, 6 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट में हुई घटना ने इस विश्वास को एक गहरा सदमा पहुँचाया है। वकील राकेश किशोर द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई पर जूता फेंकने की कोशिश सिर्फ एक व्यक्तिगत हमला नहीं थी—यह एक सुनियोजित नफरत की राजनीति की चरम अभिव्यक्ति थी, जिसका पोषण वर्षों से डिजिटल मंचों पर किया जा रहा है।
यह घटना दर्शाती है कि समाज में बोए गए जहरीले और विभाजनकारी विचार अब अदालतों की पवित्र दीवारों तक पहुँच चुके हैं, जो लोकतंत्र की नींव के लिए एक गंभीर खतरे का संकेत है।
नफरत की आग में झुलसा न्याय का मंदिर: घटना की जड़ और उकसावे का अभियान
इस चौंकाने वाली घटना की जड़ें 16 सितंबर 2025 को CJI गवई द्वारा खजुराहो मंदिर से जुड़ी एक याचिका पर की गई टिप्पणी में निहित हैं: “जाओ और भगवान से खुद कुछ करने को कहो।” यह टिप्पणी, जो कि कानूनी कार्यवाही के संदर्भ में एक व्यंग्यपूर्ण युक्ति थी, उसे हिंदू दक्षिणपंथी समूहों ने तुरंत “सनातन धर्म का अपमान” घोषित कर दिया।
अजीत भारती, कौशलेश राय जैसे कई प्रभावशाली दक्षिणपंथी यूट्यूब चैनलों और सोशल मीडिया अकाउंट्स ने CJI गवई के विरुद्ध एक तीव्र अभियान छेड़ दिया, उन्हें “हिंदू विरोधी जज” करार दिया। भारती के शब्दों में, “जो जज हिंदू विरोधी फैसले देंगे, उनके साथ सड़क पर भी ऐसा ही होगा।”
इस उकसावे के परिणामस्वरूप, #ImpeachCJI और #SanatanInsulted जैसे हैशटैग्स हजारों बार ट्रेंड किए गए, और विश्व हिंदू परिषद तथा सनातन कथा वाचक परिषद जैसे संगठनों ने भी अपनी भड़काऊ बयानबाजी से आग में घी डालने का काम किया। यह स्पष्ट करता है कि हमला अचानक नहीं, बल्कि एक सुनियोजित डिजिटल घृणा अभियान की भौतिक परिणति थी।
डिजिटल ज़हर से भौतिक हिंसा तक: वैचारिक और जातिगत पूर्वाग्रह
यह हमला किसी एक व्यक्ति का पागलपन नहीं, बल्कि उस व्यापक डिजिटल नफरत तंत्र का विस्तार है जो पिछले एक दशक से धार्मिक ध्रुवीकरण को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। CAA-NRC विरोध, बुलडोज़र राजनीति, और ‘लव जिहाद’ जैसे नैरेटिव्स के माध्यम से समाज में विभाजन को गहरा करने के बाद, अब यह ज़हर न्यायपालिका को निशाना बना रहा है। CJI गवई को निशाना बनाए जाने के पीछे सिर्फ धार्मिक आक्रोश ही नहीं था; इसमें जातिगत और वैचारिक पूर्वाग्रह भी स्पष्ट रूप से झलकते हैं।
दलित पृष्ठभूमि से आने वाले और आंबेडकरवादी विचारधारा से जुड़े रहने वाले CJI गवई लंबे समय से दक्षिणपंथी समूहों की आलोचना के केंद्र में रहे हैं। उनकी माँ, कमलताई गवई, द्वारा हाल ही में RSS के कार्यक्रम में जाने से इनकार करते हुए यह कहना कि “हमारी आत्मा आंबेडकरवादी विचारों में बसती है,” को भी इन समूहों द्वारा “सनातन विरोध” के रूप में प्रचारित किया गया। यह घटना बताती है कि नफरत की यह फैक्ट्री धार्मिकता की आड़ में जातिवाद और वैचारिक विरोध को भी हथियार बना रही है।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएं: नफरत की खेती और जिम्मेदारी का अभाव
सुप्रीम कोर्ट पर हुए इस हमले पर राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ स्पष्ट रूप से विभाजित थीं। कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने इसे “पागलपन” करार दिया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस नफरत की फसल के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया। TMC सांसद सागरिका घोष ने भी भाजपा की ऑनलाइन आर्मी और “डिजिटल फैक्ट्री” को दोषी ठहराते हुए कहा कि इन्होंने ही आग को सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचाया है।
वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने इसे “अदालत की आपराधिक अवमानना” बताया, जबकि सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने “सोशल मीडिया की असंगत प्रतिक्रियाओं” पर चिंता व्यक्त की। प्रधानमंत्री मोदी ने घटना की निंदा करते हुए एक औपचारिक बयान दिया कि “हर भारतीय इससे आहत है,” लेकिन यह बयान केवल राजनीतिक शिष्टाचार तक सीमित रहा। असली सवाल यह है कि क्या सरकार इस नफरत की फैक्ट्री और सोशल मीडिया पर धार्मिक उकसावे के खिलाफ कोई ठोस कानूनी कार्रवाई करेगी, या क्या यह जिम्मेदारी का अभाव नफरत की खेती को जारी रहने देगा?
न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर संकट: एक संवैधानिक चेतावनी
यदि न्यायिक संस्थाओं को किसी राजनीतिक या धार्मिक विचारधारा के तराजू पर तौला जाने लगे और उनके फैसलों को धर्म या जाति के चश्मे से देखा जाए, तो न्याय का संतुलन टूट जाएगा। सुप्रीम कोर्ट की सुरक्षा में सेंध लगना केवल एक सुरक्षा विफलता नहीं है, बल्कि यह संवैधानिक स्थिरता पर सीधा हमला है।
बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने वकील राकेश किशोर का लाइसेंस रद्द कर दिया है, जो एक आवश्यक कदम है, लेकिन यह जानना आवश्यक है कि उनके पीछे कौन-सा संगठन या विचारधारा सक्रिय थी। यह घटना एक स्पष्ट चेतावनी है कि यदि डिजिटल नफरत के अभियानों पर तत्काल और कठोरता से लगाम नहीं लगाई गई, तो अगला हमला किसी व्यक्ति पर नहीं, बल्कि सीधे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर होगा।
लोकतंत्र की अंतिम चेतावनी: संविधान की रक्षा सबकी जिम्मेदारी
CJI गवई का यह संयमित और अडिग बयान कि “इन बातों से विचलित न हों, हम विचलित नहीं हैं,” व्यक्तिगत संयम का नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा की पुकार का प्रतीक है। आज सवाल केवल यह नहीं है कि जूता क्यों फेंका गया, बल्कि यह है कि ऐसा विषाक्त माहौल क्यों बनाया गया जो संवैधानिक संस्थाओं को निशाना बनाने की हिम्मत रखता है। भारत को अपनी उस पुरानी पहचान को बचाना होगा जहाँ धर्म, न्याय और संविधान सह-अस्तित्व में रहते थे। सरकार को चाहिए कि वह सोशल मीडिया पर धार्मिक उकसावे के खिलाफ कड़े और प्रभावी कानून बनाए, और राजनीतिक दलों को अपनी ध्रुवीकरण की राजनीति पर विराम लगाना होगा।
अन्यथा, यह जूता फेंकना सिर्फ एक शुरुआत होगी—और अगला निशाना शायद लोकतंत्र की पूरी इमारत होगी। भारत को अब तय करना है—न्याय के साथ खड़ा होना है या नफरत की राजनीति करने वालों के साथ; संविधान के साथ खड़ा होना है या नफरत की आग में उकसाई गई भीड़ की हिंसा के साथ।