भारत की सामाजिक विज्ञान और शैक्षणिक स्वतंत्रता के इतिहास में यह एक काला अध्याय है, जहाँ देश के एक प्रतिष्ठित संस्थान—टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ (TISS)—के दस छात्रों पर मुक़दमा दर्ज कर दिया गया है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने इस कार्रवाई के माध्यम से यह स्पष्ट संदेश दिया है कि उनके शासनकाल में सोचने, बोलने और यहाँ तक कि किसी की याद में मौन श्रद्धा सुमन अर्पित करने की आज़ादी भी अब एक गंभीर अपराध की श्रेणी में आती है। इन छात्रों का ‘गुनाह’ महज़ इतना था कि उन्होंने दिवंगत प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा की पहली पुण्यतिथि के अवसर पर एकजुट होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी, और उनकी स्मृति को जीवित रखने का नैतिक साहस दिखाया।
इस घटना पर देश भर के विपक्षी दलों, विशेषकर कांग्रेस ने, कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे ‘बीजेपी की राजनीतिक नीचता और गहरे डर का प्रतीक’ बताया है। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने सवाल किया है कि जिस सरकार को छात्रों की एक शांतिपूर्ण श्रद्धांजलि सभा से भी ख़तरा महसूस होता हो, वह न तो लोकतंत्र की बुनियादी भावना को समझती है और न ही इंसाफ़ के मायने जानती है; उसका लोकतंत्र अब सिर्फ पुलिस थाने की चारदीवारी में सिमट चुका है।
साईबाबा की कहानी: सत्ता की क्रूरता का आईना और न्याय की अंतिम जीत का अपमान
प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा का जीवन और उनकी मृत्यु के बाद उन पर हो रही कार्रवाई की यह पूरी गाथा, सत्ता के दमनकारी चरित्र का एक दर्दनाक आईना है। साईबाबा, जो स्वयं 90% दिव्यांग थे, को राज्य के ख़िलाफ़ ‘युद्ध छेड़ने’ जैसे भयंकर और विवादित आरोपों में सालों तक जेल की सलाखों के पीछे यातना सहनी पड़ी। बाद में, बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें बरी किया, और उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने भी हाईकोर्ट के उस न्यायपूर्ण फ़ैसले को बरक़रार रखा, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि उन पर लगे आरोप अंततः झूठे साबित हुए।
लेकिन न्याय की अंतिम जीत के बावजूद, वही सत्ता प्रतिष्ठान अब उनके नाम पर मौन श्रद्धांजली देने वाले निर्दोष छात्रों को अपराधी बना रही है। यह सिर्फ दमन या बदले की कार्रवाई नहीं है, बल्कि यह देश के अकादमिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच डर और ख़ौफ़ फैलाने की एक संगठित और सुनियोजित साज़िश है। सवाल यह है कि क्या अब इस देश में किसी शिक्षक की मौत पर शोक मनाना भी अपराध की श्रेणी में आ गया है? क्या बीजेपी की सरकार अब यह भी तय करेगी कि कौन-सी यादें ‘देशद्रोही’ हैं और कौन-सी ‘देशभक्त’?
विश्वविद्यालयों में विचारों का मेला या पुलिस के बूटों की आवाज़: TISS की गरिमा पर आघात
भारत के विश्वविद्यालय, चाहे वह दिल्ली विश्वविद्यालय हो या TISS, हमेशा से ही विचारों की टकराहट, खुली बहस और सामाजिक न्याय की तपस्या स्थली रहे हैं। लेकिन आज, इन पवित्र शैक्षणिक परिसरों में पुलिस की बूटों की आवाज़ और सरकारी डर की गूँज सुनाई देती है। TISS जैसे प्रतिष्ठित संस्थान, जहाँ सामाजिक समानता और मानवाधिकारों की उच्च शिक्षा दी जाती थी, अब खुले तौर पर शासन के डर से काँप रहे हैं, और उनके छात्रों को उनके नैतिक स्टैंड के लिए दंडित किया जा रहा है।
यह घटना सिर्फ दस छात्रों पर दर्ज मुक़दमा नहीं है, यह भारतीय संविधान में निहित स्वतंत्रता के अधिकार पर सीधा हमला है। जब श्रद्धांजलि देना भी राजद्रोह या कानून का उल्लंघन बन जाए, तो यह स्पष्ट समझना चाहिए कि देश में लोकतंत्र अब तानाशाही का वेश धारण कर चुका है। आज की तारीख में, बीजेपी के शासन में, ‘विचार’ को एक गुनाह की तरह देखा जा रहा है, और ‘खामोशी’ को ही नई देशभक्ति का मापदंड बना दिया गया है।