सपनों की इमरजेंसी: जब सिस्टम आम आदमी को अपराधी और लुटा हुआ बना दे
ज़रा सोचिए, एक आम मध्यवर्गीय नागरिक अचानक किसी गंभीर पारिवारिक इमरजेंसी में फंस जाता है और उसे तुरंत दिल्ली से लखनऊ या मुंबई से पटना जैसे लंबे सफर पर निकलना पड़ता है। उसके पास फ्लाइट का ₹15,000 का भारी किराया चुकाने की क्षमता नहीं है, और सड़क परिवहन भी अब एक संगठित लूट का नया साम्राज्य चला रहा है, जहाँ बसें “यूनिटी सिंडिकेट” बनाकर ₹3,000 से ₹4,500 तक का मनमाना किराया वसूल रही हैं। जब वह आदमी अपनी आखिरी और एकमात्र उम्मीद लेकर IRCTC के हाईटेक ऐप को खोलता है, तो सिस्टम क्रूरता से उसका मज़ाक उड़ाता है। ऐप के होमपेज पर, पहली नज़र में, टिकटों की “Availability” दिखती है, लेकिन जैसे ही वह यात्री ‘बुक नाउ’ का बटन दबाता है, पलक झपकते ही सीटें गायब हो जाती हैं। फिर शुरू होता है “Waiting List 87”, “Chart Prepared” या “Booking Closed” का वही पुराना और निराशाजनक तमाशा। यह स्थिति सिर्फ एक प्रशासनिक विफलता नहीं है; यह वह क्रूर क्षण है जब सिस्टम आम आदमी की इमरजेंसी को पूरी तरह से नकार कर, उसे असहाय और मजबूर अपराधी की तरह महसूस करवाता है, जिसके पास समय पर कहीं पहुँचने का कोई वैध अधिकार नहीं है।
सवाल सीधा है, जवाब कौन देगा? हाईटेक बातें, लो-टेक हकीकत
IRCTC खुद को बड़े गर्व से “धरती का सबसे बड़ा रेलवे सिस्टम” बताता है और तकनीकी रूप से स्मार्ट होने के बड़े-बड़े दावे करता है, पर जब जनता टिकट मांगती है, तो उसका पूरा सिस्टम “सॉरी, चार्ट प्रिपेयर्ड” कहकर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता है। यह एक गंभीर विरोधाभास है: क्या गरीब और मिडिल क्लास आदमी को इमरजेंसी में सम्मानजनक तरीके से सफर करने का अधिकार नहीं है? क्या आज भारत में ‘सेम डे टिकट बुकिंग’ करना कोई अपराध बन चुका है? यह साफ़ है कि रेलवे का सिस्टम डिमांड और ग्राउंड रियलिटी के बीच के भारी फासले को पाटने में पूरी तरह से फेल हो चुका है।
अगर रेलवे वाकई में एक “स्मार्ट सिस्टम” चला रहा है, तो वह AI (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) या स्मार्ट टिकट प्रेडिक्शन सिस्टम क्यों नहीं बनाता, जो चरम मांग (Peak Demand) को देखते हुए अतिरिक्त कोच या तत्काल विशेष ट्रेनें जोड़ सके? यह तीखा सवाल इसलिए भी है, क्योंकि जब Dynamic Pricing (गतिशील मूल्य निर्धारण) को बढ़ाना होता है, तो IRCTC का सिस्टम सेकंडों में अपडेट हो जाता है, लेकिन जब जनता के लिए वास्तविक सीटें बढ़ानी हों या बुनियादी ढाँचे में सुधार करना हो, तो सालों लग जाते हैं।
सुविधा नहीं, ‘धैर्य बेचने’ का कारोबार और सॉफ्ट लूट
IRCTC का यह मॉडल अब टिकट बुकिंग सेवा नहीं रह गया है, बल्कि यह ‘धैर्य बेचने का कारोबार’ बन चुका है—एक ऐसी सॉफ्ट लूट जिसमें जनता का पैसा नहीं, बल्कि उसका कीमती समय, ऊर्जा और भरोसा लूटा जा रहा है। आम जनता घंटों तक टिकट खिड़की पर लाइन में लगती है, वेबसाइट पर लगातार घूमती रहती है, और अपने स्मार्टफोन पर ऐप को बार-बार निराशा के साथ रीफ्रेश करती है—और सिस्टम बदले में सिर्फ ‘Availability’ का झांसा और झूठी उम्मीद बेचता रहता है।
हर वेटिंग टिकट, हर “ट्रेन फुल” मैसेज, और हर विफल बुकिंग का प्रयास एक ही कठोर सत्य को जोर-जोर से चिल्ला रहा है: “गरीब या मिडिल क्लास की इमरजेंसी, इस हाईटेक और असंवेदनशील सिस्टम की नज़रों में कभी इमरजेंसी नहीं है!” यह स्थिति एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में नागरिकों के समान अवसर और सुविधा के अधिकार पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती है, क्योंकि रेल यात्रा आज भी करोड़ों भारतीयों के लिए जीवन रेखा बनी हुई है।
जनता का धैर्य अब टूट चुका है: जवाबदेही चाहिए, बयानबाज़ी नहीं
यह देश उस रेल मंत्री का है जो सोशल मीडिया पर ‘रील’ (Reels) बनाने में व्यस्त हैं, लेकिन जनता उस ‘रील’ की नहीं, बल्कि उस ‘रीयल’ (Real) रेलगाड़ी की तलाश में है जो वास्तव में चलती हो और जिसमें उन्हें एक कंफर्म सीट मिल सके। जब आम आदमी इस सिस्टम की विफलता पर सवाल पूछता है, तो उसे संतोषजनक जवाब नहीं मिलता, बल्कि प्रशासनिक चुप्पी मिलती है। जब वह शिकायत करता है, तो उसे केवल एक रसीद मिलती है जिस पर कोई कार्रवाई नहीं होती। और जब वह अपनी ज़रूरत के लिए टिकट बुक करने की कोशिश करता है, तो बदले में उसे निराशा के साथ “Try Again Later” का झंडा थमा दिया जाता है। अब यह तमाशा बंद होना चाहिए। IRCTC और रेल मंत्रालय को जनता के सवालों से भागना बंद कर देना चाहिए।
अगर यह सिस्टम भारत की जनता का है, तो इसका प्राथमिक उद्देश्य और सुविधा भी जनता की होनी चाहिए—चाहे वह साधारण आम यात्री हो, दूर-दराज का मजदूर हो, या कॉलेज जाने वाला छात्र हो। कहने के लिए यह बेशक दुनिया का सबसे बड़ा रेलवे सिस्टम है, पर असलियत में यह दुनिया का सबसे बड़ा इंतज़ार सिस्टम बन चुका है, जिसने लाखों लोगों की उम्मीदों और इमरजेंसी को कुचल दिया है। अब इस पर तत्काल जवाबदेही तय करने की सख्त ज़रूरत है, बयानबाज़ी की नहीं।