यह कोई सामान्य खबर नहीं, बल्कि राष्ट्र के अंतरात्मा पर लगा कलंक है — एक ऐसी सड़ी हुई व्यवस्था की कहानी, जो संविधान की आत्मा और समाज की नैतिकता दोनों को निगल चुकी है। मध्य प्रदेश के श्योपुर ज़िले के हुल्लपुर गांव में जो दृश्य सामने आया — नन्हे बच्चे खुले आकाश के नीचे, धूल और मिट्टी में बैठे, फटे-पुराने कागज़ के टुकड़ों पर चावल खा रहे थे — वह केवल भूख का चित्र नहीं था; वह इस देश की प्रशासनिक बेईमानी, राजनीतिक लालच और मानवीय पतन का जीवित प्रमाण था। यह वही सरकार है जो आंकड़ों की तिजोरी में विकास का नारा बंद करके रखती है, जो कागज़ों में लाखों थालियाँ बाँटने का दावा करती है, पर ज़मीन पर वही थालियाँ बच्चों के हाथों तक पहुँचने से पहले नेताओं और अफसरों की जेब में गायब हो जाती हैं।
मीडिया में वायरल हुआ वीडियो देश के विवेक पर एक थप्पड़ है। उसमें सिर्फ मिट्टी और भूख नहीं दिखती, उसमें सत्ता की नंगी सच्चाई दिखती है। प्लेटें नहीं, बर्तन नहीं, निगरानी नहीं — और फिर भी हर महीने PM POSHAN योजना के नाम पर करोड़ों रुपये जारी किए जा रहे हैं। सवाल यह नहीं कि गलती कहाँ हुई; सवाल यह है कि लूट कहाँ तक पहुँच चुकी है।
जो पैसा बच्चों की थाली तक पहुँचना चाहिए था, वह दलालों, ठेकेदारों और राजनीतिक आकाओं के पास जाकर “विकास के आंकड़ों” में बदल जाता है। यह कोई “तकनीकी चूक” नहीं, यह संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और गरिमा के अधिकार) का खुला उल्लंघन है। जब देश के भविष्य कहे जाने वाले बच्चे मिट्टी पर बैठकर कागज़ पर खाना खा रहे हों, तो सवाल “क्यों?” का नहीं, “किसने?” का होना चाहिए।
किसने बर्तनों की खरीद के नाम पर फर्जी बिल बनाए? किसकी कंपनी ने खाद्य सामग्री का ठेका लिया? कौन-से अधिकारी ने सप्लाई में मिलीभगत की? किस प्राचार्य ने आँखें मूँद लीं? सबसे अहम — शिक्षा विभाग और पंचायत अधिकारी कब तक इस अपराध पर चुप रहेंगे? अगर एक निष्पक्ष जाँच कराई जाए, तो यह मामला किसी एक स्कूल या ब्लॉक का नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश के भ्रष्टाचार के नेटवर्क का नक्शा खोल देगा — जहाँ हर स्तर पर किसी ने किसी से रिश्वत लेकर बच्चों की थाली काटी है।
यह कोई “एक दिन की भूल” नहीं, यह मध्य प्रदेश के संस्थागत भ्रष्टाचार का स्थायी नमूना है। यहाँ अधिकारी और नेता योजनाओं के वितरण की जिम्मेदारी तो निभाते हैं, लेकिन पारदर्शिता का अर्थ केवल प्रेस विज्ञप्तियों में बचा है। फाइलों में सब कुछ व्यवस्थित है — वितरण हुआ, स्टॉक चेक हुआ, निरीक्षण पूरा हुआ — पर ज़मीन पर बच्चा भूखा है। यह राज्य अब एक लूट प्रयोगशाला बन चुका है, जहाँ योजनाएँ जनता के नाम पर शुरू होती हैं और सत्ता के नाम पर समाप्त हो जाती हैं। जब प्रशासन “शो-कॉज़ नोटिस” और “जाँच समिति” का खेल खेलने लगता है, तब जवाबदेही एक मज़ाक बन जाती है।
अब केवल शब्दों की निंदा नहीं, प्रायश्चित की मांग उठनी चाहिए। क्या शिक्षा विभाग ने अब तक दोषियों पर प्राथमिकी दर्ज कराई? क्या उन ठेकेदारों के बैंक खातों की जाँच हुई, जिन्होंने इस स्कूल में खाना सप्लाई किया? क्या स्वयं सहायता समूहों और स्थानीय ब्लॉक अधिकारियों के खातों का ऑडिट कराया गया? क्या राज्य सरकार ने जिलास्तर पर एक विशेष जांच प्रकोष्ठ बनाया, जो यह पता लगाए कि बच्चों की थाली का पैसा कहाँ और कैसे हजम किया गया? अगर नहीं — तो सरकार की चुप्पी ही सबसे बड़ा सबूत है कि यह लूट सत्ताधारी संरक्षण में हो रही है।
यह अब केवल प्रशासन की विफलता नहीं, बल्कि समाज की नैतिक विफलता बन चुका है। हमारे स्कूलों में भूख मिटाने वाली योजनाएँ अब भूख बढ़ाने के साधन बन गई हैं। राज्य का हर मंत्री, हर अधिकारी, हर पंचायत प्रमुख इस अपराध में सहभागी है, क्योंकि उनकी चुप्पी उन्हें दोषी बना देती है। जरूरत है जनता के जागरण की — अभिभावक, शिक्षक, विद्यार्थी, सामाजिक संगठन और मीडिया एकजुट होकर इस अपराध का सामूहिक मुकदमा लड़ें।
RTI से लेकर अदालत तक, हर रास्ते से जवाब माँगा जाए।हर खाते की जाँच हो, हर जिम्मेदार को कानून के सामने लाया जाए, ताकि यह संदेश जाए कि भारत में बच्चों के पेट पर राजनीति नहीं की जा सकती। यह सिर्फ मध्य प्रदेश की कहानी नहीं — यह पूरे भारत की सच्चाई की परतें उघाड़ने वाली चीख है। अगर आज हमने यह स्वीकार कर लिया कि हमारे बच्चे मिट्टी और कागज़ पर खाना खाएँगे, तो कल यही समाज किसी बड़े अपराध पर भी चुप रहेगा।
सरकारों का काम सिर्फ योजनाएँ बनाना नहीं, उनका ईमानदार क्रियान्वयन करना भी है। जो लोग बच्चों की भूख से सौदा करते हैं, जो उनके हिस्से की थाली छीनकर तिजोरी भरते हैं — वे सिर्फ भ्रष्ट नहीं, राष्ट्रद्रोही हैं।उनके खिलाफ कानून ही नहीं, जनशक्ति को भी उठना होगा। क्योंकि जब तक जनता सवाल नहीं पूछेगी, तब तक सत्ता भूख को आँकड़ों में, और बच्चों के आँसू को “विकास” में बदलती रहेगी। यह वक्त बयान देने का नहीं, जवाब माँगने का है। और इस बार सवाल सिर्फ इतना है —“कागज़ पर खाना परोसने वाले कब जेल में परोसे जाएँगे?




