‘बचत उत्सव’ नहीं, मोदी सरकार का ‘चपत उत्सव’: महंगाई ने तोड़ी जनता की कमर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर “बचत उत्सव” का ढोल पीट रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि GST में छूट देकर जनता को बड़ी राहत दी जा रही है। टीवी स्क्रीन पर और मंचों से बार-बार यही प्रचार किया जा रहा है कि यह कदम गरीब और मध्यम वर्ग के जीवन में आसानी लाएगा। लेकिन असलियत इसके बिल्कुल विपरीत है। देश का आम आदमी जिस राहत की उम्मीद कर रहा था, उसे महंगाई के नए बोझ ने निगल लिया है। रोज़मर्रा की ज़रूरतें लगातार महंगी हो रही हैं—दाल, चावल, दूध-दही, सब्ज़ियाँ, सिलेंडर, घी, तेल और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से जुड़ी छोटी-छोटी चीज़ें तक आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं। यह “बचत उत्सव” नहीं बल्कि असल में जनता पर “चपत उत्सव” है, जहां सरकार राहत का दिखावा करती है और जनता की जेब पर सीधी चोट करती है।
पिछले आठ वर्षों में मोदी सरकार ने अलग-अलग माध्यमों से जनता की जेब से 127 लाख करोड़ रुपये वसूल लिए हैं। एक्साइज ड्यूटी, पेट्रोल-डीजल टैक्स, GST, आयकर, बिजली-पानी के चार्ज और महंगाई के ज़रिए यह रकम धीरे-धीरे निकाल ली गई। लेकिन सवाल यह है कि इतनी भारी-भरकम वसूली का फायदा आखिर गया कहाँ? देश की हालत यह है कि गरीबी जस की तस है, बेरोज़गारी और बढ़ी है और महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। जब जनता पूछती है कि 127 लाख करोड़ रुपये आखिर खर्च कहां हुए, तब सरकार कभी “बचत उत्सव” तो कभी “विकास महाउत्सव” जैसे नारों के ज़रिए जनता की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करती है।
सरकार का दावा है कि GST में छूट देकर कपड़े और नोटबुक जैसी ज़रूरत की चीज़ें सस्ती होंगी। लेकिन ज़मीन पर सच्चाई बिल्कुल अलग है। जिन कच्चे माल से ये वस्तुएँ बनती हैं, उन पर टैक्स बढ़ा दिया गया है। कपड़े बनाने में इस्तेमाल होने वाले पॉलिस्टर यार्न पर GST 12% से बढ़ाकर 18% कर दी गई और नोटबुक के लिए ज़रूरी कागज़ पर भी यही टैक्स 18% कर दिया गया। जब कच्चा माल ही महंगा हो जाएगा तो आखिर कपड़े और नोटबुक जैसी चीज़ें सस्ती कैसे होंगी? इसका नतीजा यह है कि राहत के नाम पर जनता से सीधा मज़ाक किया गया है। बाजार भी इसकी पुष्टि करता है—बादाम जो पहले ₹680 किलो मिलता था, अब ₹790 किलो हो गया है। घी ₹540 से बढ़कर ₹585 किलो हो गया है। सब्ज़ियाँ और दूध रोज़ाना महंगे हो रहे हैं। साफ़ है कि राहत का ढोल पीटकर सरकार ने जनता को गुमराह किया है, जबकि असलियत यह है कि आम आदमी की थाली और जेब दोनों पर महंगाई का गहरा वार हुआ है।
त्योहारों के मौके पर भी जनता को राहत नहीं, बल्कि महंगाई का ज़हरीला तोहफ़ा दिया गया। कमर्शियल LPG सिलेंडर की कीमत 16 रुपये बढ़ा दी गई। इसका सीधा असर छोटे होटल, ढाबों और कारोबारियों पर पड़ा, जिन्होंने लागत बढ़ने का बोझ तुरंत जनता पर डाल दिया। घरेलू LPG पर 200 रुपये की सब्सिडी देकर सरकार राहत का शोर मचाती है, लेकिन साथ ही कमर्शियल और इंडस्ट्रियल गैस महंगी कर देती है। पेट्रोल और डीजल की ऊँची कीमतें ट्रांसपोर्ट लागत को बढ़ा देती हैं, जिसका असर हर ज़रूरी वस्तु पर पड़ता है। सब्ज़ियाँ, दूध, अनाज, दालें—सब महंगी हो जाती हैं। यानी सरकार एक हाथ से राहत देती दिखती है और दूसरे हाथ से जनता की जेब खाली कर लेती है। यह सिलसिला अब पैटर्न की तरह साफ़ दिखाई देने लगा है।
2017 में भारी प्रचार के साथ GST को “वन नेशन, वन टैक्स” के नाम पर लागू किया गया था। सरकार ने वादा किया था कि इससे कर व्यवस्था सरल होगी और जनता को फायदा मिलेगा। लेकिन आज वही GST गरीब और मध्यम वर्ग के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन गया है। ज़रूरी खाद्य पदार्थों पर टैक्स लगाकर गरीब की थाली महंगी कर दी गई है। शिक्षा जैसी बुनियादी ज़रूरत पर भी चोट की गई है—पेंसिल, नोटबुक, रबर तक को टैक्स की मार से नहीं छोड़ा गया। छोटे व्यापारी और मध्यम उद्योगपति GST की जटिल प्रक्रियाओं और इनपुट टैक्स क्रेडिट के जाल में फँस गए हैं। राहत देने का दावा करने वाला यह टैक्स अब जनता की नजर में “गोलमाल टैक्स” बन चुका है, जिसने जीवन को आसान करने की बजाय और कठिन बना दिया है।
दूसरी ओर, सरकार और RBI बार-बार आंकड़े पेश करके महंगाई घटने की कहानी सुनाते हैं। RBI कहता है कि जुलाई 2025 में खुदरा मुद्रास्फीति 1.55% रही और 2026 के लिए इसका अनुमान 2.6% है। पिछले वर्षों की तुलना में यह कम दिखाया जा रहा है। लेकिन जनता का सवाल बड़ा सीधा है—जब बाजार में दाम आसमान छू रहे हैं, तब इन कागज़ी आंकड़ों से आम आदमी की जिंदगी पर क्या फर्क पड़ता है? जब थाली महंगी है, दूध-दही और सब्ज़ियों के दाम रोज़ाना बढ़ रहे हैं और बच्चों की नोटबुक और कपड़े तक पहुंच से बाहर हो रहे हैं, तब ये आंकड़े केवल किताबों में अच्छे लग सकते हैं, ज़मीन पर नहीं।
विपक्ष ने मोदी सरकार के तथाकथित “बचत उत्सव” पर तीखे हमले किए हैं। समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने इसे “GST सुधार का नाटक” कहा, जबकि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने आरोप लगाया कि मोदी केवल श्रेय लेने में माहिर हैं, जबकि असली फैसले GST परिषद के होते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तंज कसा कि केंद्र 20,000 करोड़ का राजस्व गंवा रहा है लेकिन जनता को एक रुपये की भी राहत नहीं दी जा रही। कांग्रेस ने इसे “जनता की लूट का उत्सव” करार दिया। गली-गली में आम आदमी का गुस्सा नारे बनकर फूट रहा है—“त्योहारों पर मोदी का गिफ्ट – खाली जेब और महंगी थाली”, “GST घटाया दिखाया, महंगाई बढ़ाकर लूट मचाया” और “महंगाई मैन मोदी – गरीबों की जेब खाली।”
विपक्ष का यह भी आरोप है कि 127 लाख करोड़ की वसूली का फायदा जनता तक नहीं पहुंचा। उल्टा इस धन का बड़ा हिस्सा कुछ चुनिंदा पूंजीपतियों की तिजोरी में चला गया। अरबों रुपये के कर्ज़ माफ़ किए गए, कॉर्पोरेट टैक्स घटाए गए और बड़े उद्योगपतियों को लाभ पहुँचाया गया। जबकि गरीब और मध्यम वर्ग महंगाई की मार झेलते रहे। यही कारण है कि अब आम जनता भी कह रही है—“महंगाई मैन मोदी, जनता से वसूली।”
आखिरकार मोदी सरकार का “बचत उत्सव” जनता पर “चपत उत्सव” साबित हुआ है। आठ साल की वसूली के बावजूद जनता को न राहत मिली, न महंगाई से छुटकारा। त्योहारों से पहले भी जनता की थाली महंगी कर दी गई। अब सवाल यह है कि आखिर कब तक जनता इस ढोंग को सहन करेगी? कब तक गरीबों की जेब खाली होती रहेगी और पूंजीपतियों की तिजोरी भरती रहेगी? कब तक राहत के नारों के पीछे छिपा यह महंगाई का खेल चलता रहेगा? जनता का विश्वास अब टूट चुका है और वह खुलकर कह रही है कि यह बचत का उत्सव नहीं बल्कि जनता की लूट का उत्सव है।