कराची, पाकिस्तान । 6 अगस्त 2025
सिंधु नदी का डेल्टा क्षेत्र, जो कभी पाकिस्तान के दक्षिणी सिंध प्रांत की जीवनरेखा था, अब एक अभूतपूर्व पर्यावरणीय और मानवीय आपदा के मुहाने पर खड़ा है। ताजा आंकड़े और स्थानीय रिपोर्टें दर्शाती हैं कि डेल्टा में जलप्रवाह लगभग 80% तक घट चुका है। इसका सीधा असर सिंधु नदी के बहाव और समुद्र के साथ उसके मिलने की प्रक्रिया पर पड़ा है, जिससे क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन पूरी तरह से बिखर गया है। यह समस्या केवल किसी वैज्ञानिक चेतावनी तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि अब यह जमीनी हकीकत बन चुकी है—जहां 40 गांव पूरी तरह से उजड़ चुके हैं और 12 लाख से अधिक लोग अपने घरों से विस्थापित होकर पलायन करने पर मजबूर हो गए हैं। यह संकट न केवल पाकिस्तान की आंतरिक विफलताओं का परिणाम है, बल्कि भारत-पाक जल विवाद, जलवायु परिवर्तन और समुद्री कटाव जैसी बहुस्तरीय जटिलताओं का मिलाजुला असर भी है।
यह डेल्टा क्षेत्र, जो किसी समय पर विश्व के सबसे विशाल नदी डेल्टाओं में से एक था, अब तेजी से सिकुड़ता और मरता हुआ दिखाई दे रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञ बताते हैं कि ताजे पानी की कमी के कारण खारा समुद्री जल अंदर तक घुसपैठ कर चुका है, जिससे न केवल मिट्टी की उपजाऊ शक्ति समाप्त हो गई है बल्कि स्थानीय पारंपरिक जीवनशैली—कृषि, मछलीपालन और पशुपालन—भी नष्ट हो चुकी है। किसानों के खेत अब खारे और अनुपजाऊ हो गए हैं, जबकि मछुआरों की नावें अब सूखी नहरों में जंग खा रही हैं। WWF जैसे वैश्विक संस्थानों ने इस क्षेत्र को ‘डूबता हुआ डेल्टा’ घोषित किया है। डेल्टा की पारिस्थितिकीय संपदा, जिसमें हजारों एकड़ मैन्ग्रोव जंगल, सैकड़ों प्रजातियां और सैकड़ों गांव शामिल थे, अब समुद्र के जलस्तर और मानवीय उपेक्षा के सामने टिक नहीं पा रहे हैं।
इस संकट के पीछे एक बड़ा कारण सिंधु जल संधि (Indus Waters Treaty) को लेकर बढ़ती तनातनी भी है। भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमलों के जवाब में 2025 में इस संधि की समीक्षा और उसके कार्यान्वयन को निलंबित करने की घोषणा ने पाकिस्तान में जल संकट को और भयानक रूप दे दिया। पहले से ही घटती वर्षा, पिघलते ग्लेशियर और बांधों की अव्यवस्थित नीतियों के चलते पानी की आपूर्ति अस्थिर हो चुकी थी। अब भारत से आने वाला पानी भी बंद होने की स्थिति में है, जिससे न केवल बिजली उत्पादन और सिंचाई व्यवस्था चरमराई है, बल्कि डेल्टा क्षेत्र में ताजे पानी का प्रवाह भी ठप हो गया है। सिंध प्रांत के पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस आपदा ने “देश के पर्यावरणीय आत्महत्या” की बुनियाद रख दी है, और यह सिर्फ पाकिस्तान नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए चेतावनी की घंटी है।
स्थिति की भयावहता को और बढ़ाता है — सरकार की नीति पर अनिर्णय और विकास योजनाओं की अंधी दौड़। हाल ही में पाकिस्तान सरकार ने सिंधु नदी पर कई नई नहर परियोजनाओं का ऐलान किया है, जिनमें से अधिकांश पंजाब और केंद्रीय क्षेत्रों को फायदा पहुंचाने के लिए हैं। इससे सिंध के स्थानीय लोगों में गुस्सा उफान पर है। बबरलोई धरना आंदोलन जैसे विरोध दर्शाते हैं कि आम जनता अब इन विकास योजनाओं को “जल लूट” की संज्ञा देने लगी है। स्थानीय कार्यकर्ता और अधिवक्ता इसे 1991 के जल वितरण समझौते का खुला उल्लंघन मानते हैं। इस परिस्थिति में डेल्टा के पारंपरिक वासी—मछुआरे, किसान, पशुपालक—अब केवल इतिहास की किताबों में दर्ज होने को मजबूर हो रहे हैं। विस्थापन इतना व्यापक है कि पूरा का पूरा गांव—जैसे कि खारो-चान और सुजावल क्षेत्र के—अब वीरान हो चुके हैं। कुछ इलाकों में तो गांव के नाम तक नक्शों से मिटाए जा चुके हैं।
यदि यह सब पर्याप्त नहीं था, तो जलवायु परिवर्तन के वैश्विक असर ने इस त्रासदी को और गहरा कर दिया है। समुद्री जलस्तर की वृद्धि, चक्रवातों की बढ़ती संख्या और असमय बाढ़ ने निचले सिंधु क्षेत्र को अब रहन-सहन के लायक नहीं छोड़ा है। मैन्ग्रोव जंगल जो पहले तटीय सुरक्षा की दीवार हुआ करते थे, अब विलुप्त होने की कगार पर हैं। हर साल हजारों एकड़ जंगल समुद्र में समा जाते हैं, जिससे जैव विविधता समाप्त हो रही है और शेष पर्यावरण भी संकटग्रस्त हो रहा है। क्षेत्र के वैज्ञानिक कहते हैं कि यदि तत्काल ताजे पानी की आपूर्ति बहाल नहीं की गई और खारे पानी को नियंत्रित नहीं किया गया, तो आने वाले वर्षों में यह डेल्टा पूरी तरह समुद्र में समा जाएगा—और इसके साथ ही, इतिहास के पन्नों में सैकड़ों साल पुरानी एक सभ्यता भी।
यह संकट केवल भौगोलिक या पर्यावरणीय नहीं है, यह मानवता के अस्तित्व पर सीधा सवाल है। 12 लाख लोगों का पलायन, उनकी आजीविका का समाप्त होना और सरकार की निष्क्रियता, एक ऐसी त्रासदी को जन्म दे रही है जो आने वाले वर्षों में पाकिस्तान की सामाजिक-सांस्कृतिक बनावट को पूरी तरह बदल कर रख देगी। यह त्रासदी इस बात का प्रतीक है कि जब नदियां मौन हो जाती हैं, तो सभ्यताएं कराह उठती हैं। और जब राजनीति, जल नीति से ऊपर आ जाती है—तो नदियों की गोद में खेलने वाले बच्चे, विस्थापन के आँकड़ों में बदल जाते हैं।