नई दिल्ली 4 अक्टूबर 2025
कभी सोचा है कि जब हमारे सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक बच्चों को पढ़ाने की बजाय दिन-रात फॉर्म भरने, डेटा इकट्ठा करने, और सरकारी रिपोर्टें बनाने में लग जाते हैं, तो असली नुकसान किसका होता है? बच्चे उस शिक्षा से वंचित हो जाते हैं, जो उन्हें बेहतर इंसान बना सकती थी। देश अपने भविष्य की जड़ों को खुद काट रहा होता है, और हम सब चुपचाप यह सब देख रहे होते हैं।
सरकारी स्कूलों के शिक्षक अब सिर्फ “शिक्षक” नहीं रहे, वे “डेटा कलेक्टर” बन गए हैं। कभी स्कूल में बच्चों की उपस्थिति का रिकॉर्ड भरना, कभी मिड-डे मील की रिपोर्ट बनाना, कभी स्वच्छता अभियान का फॉर्म जमा करना, तो कभी किसी सरकारी योजना का सर्वे। सुबह की घंटी बजती है, पर कई बार शिक्षक कक्षा में नहीं पहुँच पाते क्योंकि उन्हें ज़िला कार्यालय में रिपोर्ट देने जाना होता है। बच्चे इंतज़ार करते रहते हैं कि सर या मैडम आएँगे और हमें पढ़ाएँगे, लेकिन वे कागज़ों के ढेर में गुम रहते हैं।
जब शिक्षक अपनी असली भूमिका से दूर हो जाते हैं, तो शिक्षा का मकसद अधूरा रह जाता है। बच्चों को जो ज्ञान, सोचने की क्षमता और आत्मविश्वास मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता। शिक्षक का चेहरा बच्चों के लिए उम्मीद का प्रतीक होता है — लेकिन जब वही शिक्षक थका हुआ, बोझिल और परेशान नज़र आता है, तो बच्चे भी धीरे-धीरे अपनी रुचि खो देते हैं। यही वह क्षण होता है जब एक पूरी पीढ़ी पीछे छूटने लगती है।
कई राज्यों में किए गए अध्ययनों में सामने आया है कि सरकारी स्कूलों के शिक्षक अपने दिन का 30 से 40 प्रतिशत समय गैर-शिक्षण कार्यों में खर्च करते हैं। यानी वे फाइलों और रजिस्टरों में इतने उलझ जाते हैं कि पढ़ाने के लिए उनके पास न समय बचता है, न ऊर्जा। और अगर किसी को पढ़ाने का समय भी मिल जाए, तो दिमाग़ में अगले दिन की रिपोर्टिंग की चिंता बनी रहती है। ऐसे माहौल में न तो रचनात्मकता पनपती है, न उत्साह। शिक्षक, जो बच्चों के भविष्य के निर्माता हैं, वे खुद सिस्टम के बोझ तले दब जाते हैं।
यह केवल शिक्षकों की परेशानी नहीं, बल्कि देश की सबसे बड़ी विडंबना है। अगर प्राथमिक शिक्षा की नींव कमजोर होगी, तो भविष्य की इमारत कैसे मजबूत बनेगी? देश तभी आगे बढ़ सकता है, जब बच्चे सोचने, सीखने और समझने की आज़ादी के साथ पढ़ सकें। लेकिन जब कक्षा में बच्चों की नज़र ब्लैकबोर्ड पर नहीं, बल्कि उस खाली कुर्सी पर टिकी हो जहाँ उनका शिक्षक होना चाहिए — तब हम सबको अपने विवेक से पूछना चाहिए कि हम कहाँ चूक गए हैं।
सरकारें कहती हैं कि डिजिटल इंडिया बन रहा है, डेटा जरूरी है, रिकॉर्ड चाहिए। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा कि इन आँकड़ों के पीछे बच्चों की सीखने की क्षमता, उनकी मुस्कान और उनकी उम्मीदें खो रही हैं? क्या कोई फाइल बच्चों की समझदारी की जगह ले सकती है? क्या कोई एक्सेल शीट यह बता सकती है कि किसी बच्चे ने आज पहली बार अपना नाम खुद लिखा है? नहीं। और यही इस पूरे सिस्टम की सबसे बड़ी त्रासदी है।
जरूरत है कि सरकारें यह समझें — शिक्षक कोई क्लर्क नहीं है। उसे फाइलें नहीं, भविष्य गढ़ने का काम सौंपा गया है। स्कूलों में प्रशासनिक काम के लिए अलग स्टाफ होना चाहिए। रिपोर्टिंग का बोझ कम किया जाए ताकि शिक्षक पूरी लगन से बच्चों को पढ़ा सकें। अगर किसी दिन शिक्षक के हाथ से कलम छिन गई और उसकी जगह सरकारी फॉर्म ने ले ली, तो यह केवल एक पेशे का नहीं, बल्कि एक सभ्यता का पतन होगा।
आज हमें अपने बच्चों और शिक्षकों दोनों के लिए आवाज़ उठानी होगी। शिक्षा सिर्फ पाठ्यक्रम नहीं, बल्कि इंसानियत की पाठशाला है। अगर हम अपने शिक्षकों को फिर से पढ़ाने का मौका नहीं देंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमसे यह सवाल ज़रूर पूछेंगी, “जब हमें पढ़ाने वाला फाइलों में खो गया था, तब आप लोग कहाँ थे?”