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15 साल की थी, और मुझे नहीं पता था कौन हूं: मलाला यूसुफ़ज़ई

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लंदन 21 अक्टूबर 2025

संघर्ष, शोहरत और पहचान खोने का आंतरिक द्वंद्व

दुनिया की सबसे युवा नोबेल शांति पुरस्कार विजेता, मलाला यूसुफ़ज़ई ने हाल ही में बीबीसी ऑडियो (BBC Audio) के विशेष पॉडकास्ट ‘द इंटरव्यू’ में अपने जीवन के सबसे निजी और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर बेबाकी से बात की है। इस साक्षात्कार में, उन्होंने उस आंतरिक सच्चाई को उजागर किया जिसे अक्सर बड़ी हस्तियां सार्वजनिक मंचों पर छिपा लेती हैं — विश्वव्यापी शोहरत के बीच अपनी व्यक्तिगत पहचान खो देना। मलाला का यह कथन, “जब मैं 15 साल की थी, मैं नहीं जानती थी कि मैं कौन हूँ। लोग मुझे जानते थे, लेकिन मैं खुद को नहीं जानती थी,” केवल एक वाक्य नहीं है। यह वाक्य स्वात घाटी की एक सामान्य किशोरी से लेकर एक अंतरराष्ट्रीय प्रतीक बनने तक के उनके पूरे जीवन संघर्ष, आत्म-खोज और नई पहचान की तलाश की जटिल यात्रा का सार प्रस्तुत करता है। यह स्वीकारोक्ति न केवल उनकी ईमानदारी को दर्शाती है, बल्कि उन सभी युवा शख्सियतों के मनोविज्ञान को भी उजागर करती है जो कम उम्र में वैश्विक मंचों पर पहुँच जाती हैं।

प्रसिद्धि का मनोवैज्ञानिक दबाव: ‘प्रतीक’ बनने की कीमत

मलाला ने बताया कि पाकिस्तान की स्वात घाटी की एक साधारण लड़की से अंतरराष्ट्रीय प्रतीक (Global Icon) बनने का सफर भावनात्मक रूप से कितना चुनौतीपूर्ण था। उन्होंने कहा, “जब दुनिया आपके नाम के नारे लगाती है, प्रतिष्ठित पुरस्कार देती है, आपकी तस्वीरें दुनिया भर के अख़बारों में छपती हैं, तब धीरे-धीरे यह भूलना आसान हो जाता है कि असल में आप कौन हैं।” इस प्रक्रिया में, उनकी निजी पहचान उस सार्वजनिक छवि के नीचे दब गई जो मीडिया और दुनिया ने उनके लिए गढ़ दी थी। बचपन में शिक्षा के अधिकार के लिए आवाज़ उठाने वाली वह लड़की, धीरे-धीरे उस शक्तिशाली आवाज़ की गूँज में अपनी असली आवाज़ और व्यक्तिगत इच्छाओं को पहचानने की कोशिश करती रही। उनके अनुसार, “मैं जो बोल रही थी, वह ज़रूरी था, पर जो मैं महसूस कर रही थी, उसे कोई नहीं सुन रहा था।” यह विरोधाभास प्रसिद्धी के शिखर पर खड़े हर व्यक्ति की एक साझा मनोवैज्ञानिक समस्या है।

आतंक के आघात से ‘प्रतीक’ में परिवर्तन

मलाला का जन्म और पालन-पोषण पाकिस्तान की स्वात घाटी में हुआ, जहाँ उन्होंने तालिबान के खतरों के बावजूद स्कूल जाने पर दृढ़ता दिखाई। 9 अक्टूबर 2012 को तालिबान के हमले में उन्हें गोली लगी, और वह चमत्कारिक रूप से बच गईं। इस भयानक हादसे ने उन्हें हमेशा के लिए बदल दिया। उन्होंने साक्षात्कार में कहा, “उस दिन के बाद लोग मुझे ‘प्रतीक’ कहने लगे। मैं लड़कियों की शिक्षा की आवाज़ बन गई, लेकिन अंदर से मैं अभी भी वो 15 साल की लड़की थी जो अपने कमरे में बैठकर सवाल पूछती थी — ‘क्या मैं ये सब करना चाहती हूँ? क्या ये मेरा रास्ता है?'” यहां मलाला, सार्वजनिक उम्मीदों और व्यक्तिगत इच्छाओं के बीच के तीव्र संघर्ष को स्पष्ट करती हैं। उन्हें विश्वव्यापी उम्मीदों का भार उठाना पड़ा, जबकि भावनात्मक रूप से वह अभी भी उस आघात से उबर रही थीं जिसने उनके जीवन को हमेशा के लिए एक नए रास्ते पर डाल दिया था।

ऑक्सफोर्ड में आत्म-खोज और ‘इंसान’ बनने का अवसर

मलाला के जीवन में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी (जहाँ उन्होंने दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की) का समय एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। उन्होंने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि वहाँ उन्हें पहली बार खुद के लिए जीने का मौका मिला। “ऑक्सफोर्ड में कोई मुझे ‘नोबेल विजेता’ नहीं कहता था। वहाँ मैं बस एक छात्रा थी — देर से क्लास पहुँचने वाली, कॉफी पीने वाली, दोस्तों के साथ हँसने वाली।” इस सामान्यीकरण ने उन्हें मानवता के धरातल पर वापस ला दिया। उनके अनुसार, यहीं उन्हें यह महत्त्वपूर्ण एहसास हुआ कि पहचान कोई बाहरी ‘तमगा’ या पुरस्कार नहीं है, बल्कि यह एक आंतरिक एहसास है, जो अपने अनुभवों, रुचियों और सहज मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न होता है। यह वह दौर था जब उन्होंने सार्वजनिक ‘मलाला’ (जो एक आंदोलन थी) को एक निजी ‘इंसान’ के रूप में समझना और स्वीकार करना शुरू किया।

मानसिक स्वास्थ्य, थेरेपी और आत्म-स्वीकृति का पाठ

मलाला ने खुलकर स्वीकार किया कि इस अप्रत्याशित प्रसिद्धि के कारण उन्हें मानसिक तनाव, अकेलेपन और पहचान के संकट से जूझना पड़ा। उन्होंने कहा, “हर किसी को लगता था कि मैं बहादुर हूँ, लेकिन कभी-कभी मैं खुद को बेहद कमज़ोर महसूस करती थी।” यह स्वीकृति मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर एक महत्त्वपूर्ण संदेश है। उन्होंने बताया कि थेरेपी (Therapy), लगातार लेखन और करीबी दोस्तों के साथ खुली बातचीत ने उन्हें भीतर से संतुलित करने में मदद की। उनका निष्कर्ष था, “मैंने खुद से बात करना सीखा, खुद को माफ़ करना सीखा। तब जाकर मुझे समझ आया कि बदलाव की शुरुआत खुद से होती है।” उनका यह अनुभव आज की युवा पीढ़ी को यह सिखाता है कि मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना उतनी ही बहादुरी का काम है, जितना किसी बड़ी चुनौती का सामना करना।

 अब मलाला का मिशन: शिक्षा के साथ आत्म-सम्मान और ‘असली आज़ादी’

आज मलाला यूसुफ़ज़ई का मिशन केवल “लड़कियों की शिक्षा” की वकालत करने तक सीमित नहीं है, बल्कि वह “स्व-स्वीकृति” (Self-Acceptance) और “असली आज़ादी” की बात कर रही हैं। उनके अनुसार, “शिक्षा सिर्फ स्कूल जाने का नाम नहीं। यह अपनी सोच को पहचानने, अपनी आवाज़ सुनने और अपने लिए खड़े होने की प्रक्रिया है।” उनकी संस्था ‘मलाला फंड’ (Malala Fund) अब दुनिया के कई देशों में सक्रिय है, जहाँ न सिर्फ लड़कियों की शिक्षा पर काम हो रहा है, बल्कि उन्हें नेतृत्व क्षमता और आत्म-निर्भरता के लिए भी तैयार किया जा रहा है। मलाला की नई दृष्टि यह है कि आत्म-सम्मान ही सशक्तिकरण की पहली सीढ़ी है।

 एक प्रतीक नहीं, एक इंसान: सार्वभौमिक संदेश

साक्षात्कार के अंत में मलाला का यह कथन कि, “मुझे अब समझ आया है कि मैं सिर्फ एक ‘प्रतीक’ नहीं हूँ। मैं एक इंसान हूँ, जो हँसती है, डरती है, सोचती है, और सीख रही है,” उनके निजी विकास का सबसे बड़ा प्रमाण है। यह इंटरव्यू हमें याद दिलाता है कि चाहे कोई व्यक्ति प्रसिद्धि के शिखर पर कितना भी ऊँचा क्यों न पहुँच जाए, आत्म-पहचान की आंतरिक यात्रा कभी समाप्त नहीं होती। मलाला की कहानी अब किसी एकल आंदोलन से कहीं ज़्यादा है — यह उस हर लड़की और युवा व्यक्ति की सार्वभौमिक कहानी है जो दुनिया की अपेक्षाओं और उम्मीदों का भार ढोते हुए खुद के असली ‘स्व’ को खोजने के लिए संघर्ष कर रहा है।

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