अलीगढ़/ दिल्ली 17 अक्टूबर 2025
मैं हूँ — कमरा नंबर ZAS 14, सर जियाउद्दीन हॉल की एक पुरानी लेकिन ज़िंदा हस्ती। मेरे दर-ओ-दीवार गूँजते हैं उन सदियों की तालिम-ए-इल्म की सांसों से, जो यहाँ अपने दिल में हज़ारों ख़्वाब लिए आते थे — इल्म के चिराग़ से जहालत के अंधेरे को दूर करने का ख़्वाब, और अपनी ज़िन्दगी को तहज़ीब और तरक़्क़ी की राह पर बेहतर बनाने का ख़्वाब। वक़्त की गर्द जब मेरी पुरानी दीवारों पर एक स्याह परत बनकर जम जाती है, तो मैं आँखें मूँद कर गुज़रे ज़माने की उस बेमिसाल रौनक को महसूस करता हूँ — अलीगढ़ की वो बेपरवाह, ज़िंदादिल जवानी, रीडिंग रूम की मुक़द्दस ख़ामोशी, कॉमन हॉल का इंक़लाबी शोर-ओ-गुल, मस्जिद की वो मुतरन्नम अज़ान, डाइनिंग हॉल का वो सादा लेकिन मोहब्बत से लबरेज़ खाना, जिसकी ख़ुशबू आज भी मेरी हवा में घुली हुई है।
और कैसे भुला दूँ मैं उन चाय के ढाबों पर होती वो फ़लसफ़ियाना और लंबी-लंबी बहसें — जहाँ से उठते सिगरेट के धुएं के छल्ले भी उन तालिब-ए-इल्म की गहरी फ़िक्र और जद्दोजहद की तरह हवा में घुल जाते थे, जिनकी हर बात में इंक़लाब की आहट होती थी।
वो दिलकश शामें, जब अलीगढ़ का हर कोना मोहब्बत और इल्म से ज़िन्दा हो उठता था — ख़्वाबों और ग़ज़लों की रवानगी
हर शाम, जब सूरज अपनी सुर्ख़ शफ़क़ को अलीगढ़ की ज़मीन पर छोड़ कर डूबता था, तो हॉल की गलियों में एक अजीब-सी, दिलकश रौनक उतर आती थी। यह रौनक किताबों की नहीं, जज़्बात की थी। किसी कोने से कोई तालिब-ए-इल्म दिल खोलकर गुनगुना रहा होता — जैसे ‘ए मेरे वतन के लोगों…’ या कोई क़व्वाली, तो कहीं किसी के कमरे से सुरों के शहंशाह मोहम्मद रफ़ी या ग़ज़लों के नवाब ग़ुलाम अली की आवाज़ तैरती थी, जो हर दिल की तन्हाई को अपना हमसफ़र बना लेती थी।
मेज़ों पर दुनिया जहान के कोर्सेज़ की किताबें, नोट्स और कागज़ात तो खुले पड़े होते थे, लेकिन हर दिल में बस इश्क़-ओ-ख़्वाब की मीठी और बेक़रार हलचल होती थी। और जब शहर की बत्ती अचानक गुल हो जाती थी, तो वो मामूली अंधेरा भी एक मुकम्मल, शानदार महफ़िल बन जाता था। मोमबत्ती की थरथराती लौ में आँखें चमकती थीं, किसी के दर्द भरे अशआर गूँजते, किसी की बेबाक हँसी गलियों में बिखरती। वो अंधेरा कभी डर नहीं लाता था — वो तो दिलों में इंक़लाब और उजाला-ए-उम्मीद जला जाता था, जो आज भी हर अलीगढ़ी के दिल में रौशन है।
सलीम मियाँ की मिठास.. पुरानी चुंगी, शमशाद और तस्वीर महल की चाय — अलीगढ़ी जज़्बात का अटूट रिश्ता
मैं उन ज़ायकों को भला कैसे भूल सकता हूँ, जो अलीगढ़ी रूह का अटूट हिस्सा थे — ख़ासकर सेशनल टेस्ट की भयानक थकान के बाद सलीम मियाँ की गरमा-गरम जलेबी और मोहब्बत से भरे गुलाबजामुन व रसमलाई की वो बेमिसाल मिठास! मुंह नमकीन करने के लिए लज़ीज़ समोसे.. वही तो उस वक़्त ज़िंदगी की सबसे बड़ी राहत और जश्न का हिस्सा था। और तस्वीर महल के ढाबे की वेजिटेरियन खाना, फिर फिल्म देखने के लिए सीट लूटना..
पुरानी चुंगी और शमशाद की कड़क चाय — जिसका हर घूंट जैसे इल्म की सारी थकान, सारे शिकवे और सारे गिले मिटा देता था। उस ढाबे के किसी कोने में गुटखा वाले शौकीन तालिब-ए-इल्म बड़े इत्मीनान से अपने दाँतों को पीकदान बना रहे होते, तो दूसरी तरफ़ कुछ सिगरेट के शौक़ीन, धुएं के छल्लों में अपने तन्हा और गहरे ख़याल उड़ाते रहते। और इन्हीं सब ज़िंदादिली के बीच, कोई मासूम आवाज़ एक मज़ाकिया लेकिन संजीदा इक़रार करती — “यार भाई, अब बस… कल से पढ़ाई शुरू, क़सम सर सैयद की!”
यह इक़रार महज़ एक मज़ाक नहीं था; यह उन सब का अपनी ज़ुम्मेदारियों के प्रति एक सच्चा इक़रार था।
सर सैयद — वो रूहानी मेहरबानी जो मेरी हर ईंट, हर दीवार में बसती है — इल्म और जहालत की जंग
मेरा वजूद और मेरी यह पूरी विरासत उसी एक अजीम-ओ-शान शख़्सियत की मेहरबानी का सिला है — सर सैयद अहमद ख़ान साहब। उन्होंने मेरे जैसी इन ठोस दीवारों को केवल ईंटों और चूने से तामीर नहीं किया था, बल्कि उन्होंने इन्हें अपने क्रांतिकारी ख़यालात, अपनी दूरदर्शिता और अपनी रूहानी मेहरबानी से तामीर किया था।
उनका सबसे बड़ा और इंक़लाबी क़ौल आज भी अलीगढ़ की रगों में एक नदी की तरह बहता है: “क़ौम की तरक़्क़ी जदीद तालीम (आधुनिक शिक्षा) के बिना हरगिज़ मुमकिन नहीं है।” उन्होंने हमें यह बुनियादी सबक़ सिखाया कि कलम की ताकत किसी भी बादशाह की तलवार से कहीं ज़्यादा असरदार है, क्योंकि तलवार तो सिर्फ़ जिस्म को काटती है, जबकि कलम सीधे जहालत, रूढ़िवादिता और ज़ेहनी ग़ुलामी को काट डालती है। मैं, ZAS 14, उसी रूहानी विरासत का एक छोटा सा गवाह हूँ।
मैंने देखे हैं वो चेहरे, जो तारीख़ बन गए — अलीगढ़ की ख़ुशबू ने जिन्हें आलमगीर शोहरत दी
मैंने अपनी चौखट से गुज़रते वो मासूम और हँसते-खेलते चेहरे देखे हैं — वो चेहरे जो बाद में सिर्फ़ हिंदुस्तान ही नहीं, बल्कि पूरी आलम की शान और फ़ख़्र बने। यूनिवर्सिटी की मिट्टी में डॉ. ज़ाकिर हुसैन, पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद, पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान, प्रसिद्ध इतिहासकार इरफ़ान हबीब, भारतीय सिनेमा के अजीम फ़नकार नसीरुद्दीन शाह और शायर जावेद अख़्तर जैसे अनगिनत सितारे अपनी खुशबू और अपने विचारों की रौशनी छोड़ गए हैं।
कभी कोई नौजवान तालिब-ए-इल्म रात भर जागकर किताबें पढ़ता था, तो कोई अपने दिल के जज़्बात को कागज़ पर उकेरकर शेर लिखकर सो जाता था, यह कहकर — “अभी तो वक़्त की गर्दिश है, कल फिर हमारी बारी होगी।”
और मैं, ZAS 14, आज भी हर नए बाशिंदे से यही फुसफुसाता हूँ — “पढ़ो मेरे बेटे, यहाँ सर सैयद की रूहानी निगाहें तुम्हें देख रही हैं, और तुम्हारी तालीम ही उनका असल मक़सद है।”
अलीगढ़ — इल्म, तहज़ीब और मोहब्बत का संगम: एक मुक़द्दस ख़याल
अलीगढ़ केवल एक यूनिवर्सिटी नहीं है; यह एक मक़दस ख़याल है, एक ऐसा विचार जहाँ तालीम अपने आप में सबसे बड़ी इबादत बन जाती है। यह वो इंक़लाबी जगह है जहाँ हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई — सभी मज़हबों के तालिब-ए-इल्म एक ही छत के नीचे, एक ही दरी पर बैठकर सीखते हैं कि इन्सानियत किसी मज़हब, जात या पंथ की मौहताज नहीं होती। यहाँ की फिज़ा में “असहमति” भी पूरे “अदब” और तहज़ीब के साथ होती है; यहाँ की हर बहस में ज़ेहन की रौशनी जलती है, न कि दिल में नफ़रत का अंधेरा।
यहाँ का हर तालिब-ए-इल्म जब डिग्री लेकर निकलता है, तो वह केवल शिक्षित नहीं होता, बल्कि अपने वजूद में एक मुकम्मल अलीगढ़ लेकर निकलता है — जो उसके लहजे, उसके अख़लाक़, उसके अमल और उसकी पूरी तहज़ीब में झलकता है, यही अलीगढ़ की पहचान है — तहज़ीब।
ख़ाकसार ZAS 14: मेरी दीवारों से निकलकर आलमगीर हुए सितारे — कामयाबी की गूँज और मेरा अकेलापन
मैंने अपनी इन पुरानी, ख़ामोश दीवारों से कितनी ही उम्मीदों और ख़्वाबों को परवाज़ भरते (उड़ान भरते) देखा है — हर नया तालिब-ए-इल्म, मेरे आंगन से गुज़रकर, वक़्त के सफ़र पर निकला और आलमगीर शोहरत (विश्वव्यापी प्रसिद्धि) की बुलंदी तक पहुँचा।
मेरे सीने से निकले कुछ अज़ीम हस्तियों ने खेल के मैदान में ऐसा नाम रोशन किया कि वो राष्ट्रीय हॉकी टीम के अज़ीम मोहम्मद शाहिद बन गए, तो किसी ने अपनी ज़ात को इंसानियत की सेवा में झोंक दिया और मेडिकल की मुक़द्दस रौशनी चुनी, जिससे वो दूर-दूर तक पहचाने जाने वाले डॉक्टर काजी ग़ज़वान हो गए।
किसी ने केमिस्ट्री के मैदान में अपनी ज़हानत का ऐसा जलवा दिखाया कि आज मेडिसिन साइंटिस्ट होकर दुनिया में रेहान अहमद के नाम से मशहूर है; और जब शम्स वकालत की दुनिया में आए, तो अपनी तक़रीर की रवानगी से लबरेज होकर शम्स तबरेज हो गए।
किसी ने मार्केटिंग और तिजारत (व्यापार) में अपना हुनर ऐसा चमकाया कि आज वो एक कामयाब कारोबारी फैज़ान बन बैठा। उर्दू की दुनिया के एक टॉपर एहसान निश्तर कहलाए, जिनकी कलम ने सच्चाई को बयान किया; इंजीनियरिंग की दुनिया को हिलाने वाले फारूक वारसी खूब खिलखिलाए और कामयाबी की इबारत लिखी।
मेरी एक बेटी, आयशा सिद्दीका, ने इस्लामिक स्टडीज में ऐसा कारनामा किया कि वो बेशुमार इल्म की दौलत और इज़्ज़त से नवाज़ी गई, जबकि किसी और ने इंजीनियरिंग के मैदान में अपने जौहर (कौशल) दिखलाए तो वो आज दुनिया का एक बड़ा दानिश्वर “दानिश” से अहमद अली हबीब बन बैठा।
ये सब मेरी मिट्टी और मेरे दामन से निकले और आसमाँ की बुलंदियाँ छू लीं, लेकिन इन सब की कामयाबी की गूँज के बीच मैं, ये ख़ाकसार (विनम्र और धूल में सना हुआ) कमरा नंबर ZAS 14, अपनी जगह पर ही खाक छानता रह गया… एक टूटे हुए दिल से, बस इस ख़ामोश इंतज़ार में कि मेरी मिट्टी से निकला कोई अज़ीम शख़्सियत फिर कभी लौटकर आए और अपनी कामयाबी का किस्सा इन सदियों पुरानी दीवारों को सुनाए, ताकि मेरा अकेलापन कुछ कम हो सके।
मैं हूँ ZAS 14 — एक कमरा नहीं, एक रूहानी विरासत हूँ — इल्म, जुबान और मोहब्बत
आज भी, जब कोई नौजवान तालिब-ए-इल्म अपने नए सफ़र की उम्मीदों के साथ मेरे दरवाज़े पर पहली बार दस्तक देता है, तो मैं उसे देख कर अंदर ही अंदर मुस्कराता हूँ। क्योंकि मैं जानता हूँ — वो भी उसी सफ़र पर निकला है जो कभी सदियों पहले सर सैयद अहमद ख़ान ने शुरू किया था: जहालत से इल्म की तरफ़, और नफ़रत से मोहब्बत की तरफ़। मेरे दर-ओ-दीवार पर जो भी दस्तक देता है, मैं उसे सिर्फ़ रात गुज़ारने की जगह नहीं देता — मैं उसे एक रूहानी विरासत सौंपता हूँ।
वो विरासत — जो हर अलीगढ़ी से कहती है: “इल्म को अपनी पहचान बना, और मोहब्बत को अपनी जुबान।” 17 अक्टूबर, यानी सर सैयद डे, मेरे लिए सिर्फ़ एक गुज़री हुई तारीख़ नहीं है; बल्कि वो दिन है जब मैं फिर से जवान हो जाता हूँ, मेरे कमरे में फिर वही रौनक लौट आती है, वही नारे, वही जोश, वही इल्म और तहज़ीब वाली अलीगढ़ी स्पिरिट — जो पूरी क़ौम को बुलाकर कहती है, “हम हैं सर सैयद के सिपाही… और कलम हमारी सबसे बड़ी तलवार है।”
बदलते दौर का आईना – नई मंज़िल, वही इंक़लाबी उम्मीदें
ज़माने की रफ़्तार ने हमारी दुनिया के नक़्शे बदल दिए हैं। जहाँ पहले मोटी किताबें और काग़ज़ों की महक थी, आज वहाँ चमकती मोबाइल स्क्रीन की एक छोटी सी दुनिया आबाद है – Instagram की रौशनी, ‘X’ (ट्विटर) की तेज़ आवाज़, और हर ख़बर अब बस एक क्लिक की दूरी पर है।
मगर इन चमकती स्क्रीन के पीछे जो शक्लें हैं, उनमें वही पुराना जुनून अब भी क़ायम है – वही सवाल, वही बेचैनी और वही उम्मीदें जिनके लिए कभी लोग आग के पास बैठकर बहस करते थे।
आज के नौजवान सिर्फ़ नौकरी की तलब में नहीं हैं; वे समाज में तब्दीली लाने का हौसला भी रखते हैं – कोई ‘स्टार्टअप’ से तालीम के नए रास्ते बना रहा है, कोई ‘डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म’ से देहातों तक इल्म पहुँचाने का ख़्वाब देख रहा है, तो कोई कम्युनिटी स्कूल खोलकर पुरानी नाइंसाफ़ी के ज़ख़्मों को भरना चाहता है।
तरीक़े बदलने और नए औज़ारों के बावजूद, उर्दू शायरी जैसी नज़ाकत, बहस की तेज़ी और इंसानियत की वो मोहब्बत अपनी जगह से नहीं हटी – वो बस अब नई ज़बान में बात कर रही है। इसलिए ये कहना ग़लत होगा कि वक़्त ने सब कुछ बदल दिया। हाँ, ज़रिया बदल गया, नक़्शे बदले, पर अलीगढ़ की रूह – वो इंक़लाबी उम्मीदें, वो हौसला और वो नसीहत कि इल्म ही असल ताक़त है – सब आज भी ज़िंदा हैं। और जब भी कोई नया चेहरा इन गलियों से गुज़रता है, तो पुराने गीतों की वो ख़ामोश गूँज उसे नए तरीक़े से हिम्मत दे जाती है।
मैं हूँ ZAS 14
बदलते मौसमों की ठंडक और तपिश, गुजरते ज़मानों की रफ़्तार, दिलकश कलनज़ारों की रौनक, चहकते कदमों की आहट और महकते करियर की उड़ान — इन सबका मैं ख़ामोश गवाह हूँ। मैंने सर्दियों की धुंध भरी सुबहें देखी हैं जब किताबों की खुशबू हवा में घुलती थी, और गर्मियों की दुपहरियाँ जब खिड़की से आती हवा किसी थके तालिब-ए-इल्म के माथे को छूकर गुजर जाती थी। मैंने उन आँखों में ख्वाबों की चमक देखी जो यहाँ दाख़िल होते वक्त चमकती थीं, और वही आँखें वर्षों बाद कामयाबी की रौशनी से दमकती हुई लौटती थीं। कभी स्याही वाले पेन की सरसराहट थी, अब लैपटॉप की क्लिक; पहले दरी पर बैठी महफ़िलें थीं, अब ऑनलाइन लेक्चर की स्क्रीनें — बहुत कुछ बदला, पर इल्म की प्यास, मोहब्बत की खुशबू और तहज़ीब की रूह आज भी वही है। मैं हर हँसी, हर आँसू, हर कोशिश और हर कामयाबी का साक्षी हूँ… क्योंकि मैं हूँ — कमरा नंबर ZAS 14, सर जियाउद्दीन हॉल की वो चौखट जहाँ इल्म ने तहज़ीब को गले लगाया और सर सैयद की रूह आज भी हर नए मेहमान से फुसफुसाती है — “पढ़ो, बढ़ो, और इस मुल्क को रौशन करो।”