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HSBC की रिपोर्ट — भूखे पेट पर चढ़ाई गई आर्थिक चमक की राजनीतिक लिपस्टिक!

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मुंबई, 16 अक्टूबर 2025

दिसंबर में ब्याज दरों में 25 बेसिस पॉइंट की संभावित कटौती और सात साल में सबसे कम महंगाई का दावा करने वाली HSBC की रिपोर्ट शायद उस भारत को नहीं जानती, जो आज भी हर दिन महंगाई के दंश से तिल-तिल मर रहा है। रिपोर्ट में कहा गया कि “महंगाई सिर्फ 1.5%” रह गई है और अब RBI दरें घटाकर जनता को राहत दे सकता है। लेकिन यह राहत किसे मिलेगी? उस गरीब को जो 5 किलो मुफ्त अनाज पर ज़िंदा है, या उस मध्यमवर्ग को जिसकी रसोई अब राशन की गणना और बिजली के बिल के हिसाब से चलती है। यह रिपोर्ट किसी अर्थशास्त्र की उपलब्धि से ज़्यादा राजनीतिक विज्ञापन लगती है — जिसमें आंकड़ों का रंग-रोगन चढ़ाकर चुनाव से पहले “आर्थिक खुशहाली” की थाली परोसी जा रही है, ताकि भूखे पेट वाले भी ताली बजा दें।

HSBC की रिपोर्ट का दावा है कि सब्जियों और अनाज के दाम गिर गए हैं, और भारतीय उपभोक्ता अब राहत महसूस कर रहा है। लेकिन जब असली उपभोक्ता बाजार में जाता है, तो उसे यह राहत दुकानदार की मुस्कान में नहीं, सिर्फ बढ़े हुए दाम के बोर्ड पर दिखती है। सब्जी मंडियों में आज भी आलू ₹40 और टमाटर ₹100 के पार बिक रहे हैं, दूध ₹70 लीटर से ऊपर है और गैस सिलेंडर की कीमत हर त्योहार से पहले जैसे उपहार में बढ़ जाती है। यह वही भारत है जहां “महंगाई घटने” की खबर टीवी पर आती है, और उसी वक्त कोई मां रसोई में बच्चों से कहती है — “आज सिर्फ आधी सब्ज़ी बनाओ।”

अगर यही 1.5% महंगाई है, तो फिर असली आंकड़ा शायद सिर्फ रिपोर्ट बनाने वालों की थाली में लिखा गया है, उस आदमी की थाली में नहीं जो पेट भरने के लिए हर दिन संघर्ष कर रहा है।

रिपोर्ट में गोल्ड को CPI का नया विलेन बताया गया — कहा गया कि सोने की कीमतों में 47% उछाल आया, जिससे महंगाई बढ़ी। लेकिन यह समझना मुश्किल नहीं कि भारत में सोना सिर्फ गहना नहीं, आर्थिक सुरक्षा का प्रतीक है। जब लोग बैंक और सरकार पर भरोसा खो देते हैं, जब नौकरियां घटती हैं, जब आमदनी नहीं बढ़ती, तो लोग सोने में भरोसा रखते हैं। सोने की चमक दरअसल इस अर्थव्यवस्था के अंधेरे को ही उजागर करती है। जो रिपोर्ट गोल्ड को ‘विलेन’ कह रही है, वह यह नहीं देख रही कि लोग अब गोल्ड नहीं, गुज़ारा खरीद रहे हैं।

HSBC कहता है — “अक्टूबर में महंगाई 1% से भी नीचे जा सकती है।”

लेकिन यह किस महंगाई की बात हो रही है? उस महंगाई की जिसमें गरीब की रोटी का भाव नहीं जोड़ा गया, किसान की खाद की लाइन नहीं गिनी गई, बेरोज़गारों की लंबी फेहरिस्त शामिल नहीं की गई।

असल महंगाई वह नहीं जो ग्राफ़ में गिरती है, बल्कि वह है जो जनता के पेट में चढ़ती है।

वह महंगाई जो खेतों में लाइन में लगे किसान के माथे पर पसीना बनकर बहती है — जो खाद के लिए घंटों खड़ा रहता है और बदले में पुलिस के डंडे खाता है। वही किसान जो कुछ हजार रुपये के कर्ज में आत्महत्या कर लेता है, जबकि अरबों के लोन माफ किए जा रहे होते हैं। यही है भारत की अर्थव्यवस्था का असली चेहरा — एक तरफ “रेपो रेट घटाने की राहत”, दूसरी तरफ कर्ज में डूबे अन्नदाता की लाशें।

रिपोर्ट यह भी कहती है कि “Rate Cut से बाजार में नई जान आएगी।” लेकिन यह बाजार कौन-सा है? वो जहां करोड़पति निवेशक अरबों का खेल खेलते हैं, या वो जहां छोटा दुकानदार दिन के अंत में घाटा गिनकर घर लौटता है?

जब बेरोजगार युवा आवेदन की तारीखों में दम तोड़ रहे हैं, जब परिवारों को महीने के बीच में ही राशन कम करना पड़ रहा है, और जब छोटे व्यापारी टैक्स, मंदी और महंगाई के बीच जूझ रहे हैं, तब ब्याज दर में 0.25% की कटौती किसी आम आदमी की तकलीफ नहीं मिटा सकती। यह कटौती सिर्फ कॉर्पोरेट निवेशकों की तालियों के लिए है, न कि मजदूर की राहत के लिए।

असल में, HSBC की रिपोर्ट उस “डबल इकोनॉमी” का हिस्सा है जो भारत को दो हिस्सों में बांट चुकी है —

एक वो इंडिया जो स्टॉक मार्केट और IMF रिपोर्टों में बढ़ता है, और दूसरा वो भारत जो भूख, बेरोज़गारी और मुफ़्त राशन में सिमट गया है।

एक तरफ ‘Rate Cut’ और दूसरी तरफ ‘Ration Cut’।एक ओर निवेशकों के लिए आर्थिक सुधार, और दूसरी ओर किसानों के लिए मौन सरकारी व्यवस्था। HSBC ने शायद यह भूल किया कि भारत की अर्थव्यवस्था केवल आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि 85 करोड़ पेटों का संघर्ष है — जो आज भी रोज़ दो वक्त की रोटी के लिए सरकारी लाइन में खड़े हैं।

इन रिपोर्टों की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि ये गरीब की आवाज़ नहीं, बल्कि बाजार की भाषा बोलती हैं। HSBC की यह रिपोर्ट भी चुनावी मौसम की वही पुरानी स्क्रिप्ट है — जहां आंकड़े को ‘विकास’ कहा जाता है और गरीबी को ‘सामाजिक सहायता’। 

कुल मिलाकर, HSBC की रिपोर्ट अर्थशास्त्र नहीं, चुनावी अर्थनीति है — जो जनता को यह यकीन दिलाना चाहती है कि “सब ठीक है”, जबकि सच्चाई यह है कि देश की आधी आबादी अब भी दो वक्त की रोटी के भरोसे जी रही है।

HSBC कहता है — महंगाई घटी है। भारत कहता है — थाली खाली है। और जब थाली खाली हो तो आंकड़े नहीं, भूख बोलती है।

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