मेलबर्न 16 अगस्त 2025
ऑस्ट्रेलियाई मेडिकल एसोसिएशन (AMA) ने हाल ही में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित करके वैश्विक स्तर पर चर्चा का नया द्वार खोल दिया है। इस प्रस्ताव का मकसद इंटरसेक्स बच्चों पर होने वाली उन शल्यक्रियाओं पर रोक लगाना है, जो चिकित्सकीय रूप से ज़रूरी नहीं होतीं और केवल “सामाजिक रूप से सामान्य” दिखाने के लिए की जाती हैं। AMA का यह स्पष्ट संदेश है कि किसी भी बच्चे की शारीरिक स्वायत्तता और उसकी सहमति को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह कदम न केवल चिकित्सा दृष्टि से, बल्कि मानवाधिकारों और नैतिक मूल्यों की दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है। डॉक्टरों ने माना कि इंटरसेक्स बच्चों पर बिना उनकी इच्छा जाने की जाने वाली सर्जरी, लंबे समय तक मानसिक और शारीरिक पीड़ा का कारण बनती है और इससे समाज में असमानता और भेदभाव और गहराता है।
इस प्रस्ताव को पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े डॉक्टर थॉमस ड्रेक-ब्रॉकमैन ने रखा, जिसे AMA सम्मेलन में जोरदार समर्थन मिला और सर्वसम्मति से पारित किया गया। अब यह प्रस्ताव AMA की संघीय परिषद (Federal Council) के पास जाएगा, जहां से आगे नीतिगत बदलाव और कानूनी दबाव बनाया जा सकेगा। मेडिकल बिरादरी का यह ऐतिहासिक रुख इसलिए भी अहम है क्योंकि यह दिखाता है कि स्वास्थ्य सेवाओं की प्राथमिकता केवल शारीरिक संरचना को “सामान्य” करना नहीं, बल्कि व्यक्ति की गरिमा और अधिकारों की रक्षा करना है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी यह कदम एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है, क्योंकि इससे अन्य देशों को भी अपनी नीतियों और स्वास्थ्य सेवाओं की दिशा में आत्ममंथन करने का अवसर मिलेगा।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने अप्रैल 2024 में एक अहम प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें इंटरसेक्स व्यक्तियों के खिलाफ हिंसा, भेदभाव और हानिकारक प्रथाओं को समाप्त करने पर जोर दिया गया। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि इंटरसेक्स समुदाय दशकों से भेदभाव और अदृश्यता का शिकार रहा है और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाना बेहद ज़रूरी है। माल्टा ऐसा पहला देश था जिसने राष्ट्रीय स्तर पर इंटरसेक्स शल्यक्रिया पर रोक लगाई, और अब ऑस्ट्रेलिया की AMA जैसी संस्थाएं इस दिशा में एक नैतिक नेतृत्व की भूमिका निभा रही हैं। स्पष्ट है कि अब दुनिया इस मसले पर धीरे-धीरे एक साझा मानक की ओर बढ़ रही है, जिसमें “बच्चे की सहमति से पहले कोई हस्तक्षेप न किया जाए” की नीति को आधार बनाया जा रहा है।
भारत के संदर्भ में यह मुद्दा और भी गंभीर हो जाता है। 2019 में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए कहा था कि इंटरसेक्स बच्चों पर केवल जीवन-रक्षक परिस्थितियों में ही शल्यक्रिया की जानी चाहिए। इस निर्णय के बाद तमिलनाडु सरकार ने गैर-ज़रूरी शल्यक्रियाओं पर प्रतिबंध लगाकर एशिया का पहला और दुनिया का दूसरा राज्य बनने का गौरव हासिल किया। यह पहल न केवल भारत की न्यायपालिका और प्रशासन की दूरदर्शिता को दर्शाती है, बल्कि यह भी साबित करती है कि जब चाहा जाए तो संवेदनशील मुद्दों पर भी मानवीय दृष्टिकोण से साहसिक कदम उठाए जा सकते हैं। हालांकि, यह प्रतिबंध अभी केवल तमिलनाडु तक सीमित है, जबकि पूरे भारत में एकसमान नीति की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
भारत में फिलहाल 2019 का ‘ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स) एक्ट’ अस्तित्व में है, जो भेदभाव रोकने और ट्रांसजेंडर समुदाय को बुनियादी अधिकार देने की कोशिश करता है। लेकिन यह कानून इंटरसेक्स समुदाय के लिए विशिष्ट प्रावधान नहीं करता और न ही यह बच्चों पर होने वाली चयनात्मक शल्यक्रियाओं को स्पष्ट रूप से संबोधित करता है। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि क्या भारत को अब एक अलग और ठोस राष्ट्रीय नीति नहीं बनानी चाहिए, जो इंटरसेक्स व्यक्तियों के अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित और सुरक्षित करे। अगर एक राज्य यह कर सकता है, तो पूरे देश में इसे लागू करने में संकोच क्यों होना चाहिए?
निष्कर्ष यही है कि AMA का यह कदम केवल ऑस्ट्रेलिया तक सीमित नहीं रहेगा। यह एक ऐसा संकेत है जो दुनिया भर के देशों को सोचने पर मजबूर करेगा। भारत के लिए यह अवसर है कि वह अपने संविधान में निहित समानता और गरिमा के मूल्यों को आधार बनाकर एक राष्ट्रीय नीति बनाए, जिसमें इंटरसेक्स बच्चों की शारीरिक स्वायत्तता की रक्षा सर्वोपरि हो। यह केवल एक कानूनी या चिकित्सा सुधार का मामला नहीं है, बल्कि यह उस समाज की संवेदनशीलता और प्रगतिशील सोच का प्रतीक भी होगा, जो हर नागरिक के अधिकारों की रक्षा करने में विश्वास रखता है।