जेरूसलम / न्यूयॉर्क, 8 अक्टूबर 2025
संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट ने गाज़ा की तबाही पर दुनिया की आंखों से पर्दा हटा दिया है। इस रिपोर्ट में जो खुलासा हुआ है, वह सिर्फ आंकड़ों का बयान नहीं बल्कि मानव सभ्यता की अंतरात्मा पर एक कलंक है। रिपोर्ट कहती है कि गाज़ा में हुए लगातार सैन्य हमलों और विनाश ने इस हद तक बर्बादी मचाई है कि मलबा साफ करने में कम से कम 10 वर्ष लगेंगे, जबकि मिट्टी को फिर से उपजाऊ बनाने और धरती की साँस वापस लाने में 25 वर्ष का समय लगेगा। यह आंकड़ा बताता है कि गाज़ा अब सिर्फ एक जला हुआ इलाका नहीं, बल्कि मानवता की सामूहिक असफलता का प्रतीक बन चुका है।
51 मिलियन टन मलबा — यह सिर्फ ईंटों का ढेर नहीं, बल्कि एक पीढ़ी का शवगृह है
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की रिपोर्ट के अनुसार, गाज़ा में अब तक के युद्ध से करीब 80 प्रतिशत भवन पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। शहर के हर कोने में सिर्फ धूल, राख और विस्फोटित संरचनाओं का मलबा है — जिसका कुल अनुमानित वजन 51 मिलियन टन बताया गया है। यह मलबा किसी साधारण निर्माण ध्वंस का परिणाम नहीं, बल्कि युद्ध, बमबारी और मानव जीवन की व्यवस्थित हत्या का प्रमाण है। विशेषज्ञों का कहना है कि इन ढेरों में अब भी अनगिनत अनफटे बम और रासायनिक विस्फोटक दबे हैं, जो आने वाले वर्षों तक भी जानलेवा बने रह सकते हैं।
गाज़ा की सड़कों पर अब घरों के नंबर नहीं, बल्कि शहीदों के नाम लिखे हैं। एक समय यह इलाका जैतून और संतरे के बागों से महकता था, आज वह सिर्फ जलते हुए लोहे और टूटे कंक्रीट की गंध से भरा है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि यदि आज ही युद्ध बंद हो जाए और पूर्ण पुनर्निर्माण शुरू किया जाए, तो भी गाज़ा को मलबे से मुक्त करने में कम से कम 10 साल की लगातार मेहनत और 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की लागत आएगी। यह वही क्षेत्र है जहाँ आज हर पांच में से चार व्यक्ति बेघर हैं, और करीब 23 लाख लोग खुले आसमान के नीचे या अस्थायी शिविरों में जीवन जी रहे हैं।
धरती की मृत्यु — जब मिट्टी भी लहूलुहान हो जाती है
गाज़ा का विनाश केवल इंसानों या इमारतों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इस युद्ध ने धरती की रगों में भी जहर घोल दिया है। रिपोर्ट बताती है कि गाज़ा की मिट्टी अब इतनी ज़हरीली और मृतप्राय हो चुकी है कि उसमें जीवन लौटाने में कम से कम 25 साल लगेंगे। बमबारी से निकले भारी धातु, फॉस्फोरस, और रासायनिक प्रदूषक मिट्टी के भीतर समा गए हैं। भूमि की जैविक उर्वरता नष्ट हो गई है, और भूमिगत जलस्रोत भी दूषित हो चुके हैं। यह वही मिट्टी है जिसने कभी हजारों परिवारों को भोजन दिया था, आज वह खुद भूखी है।
कृषि भूमि का मात्र 1.5 प्रतिशत हिस्सा अब किसी उपयोग के योग्य बचा है। पेड़ जलकर राख हो गए हैं, फसलें राख में तब्दील हो चुकी हैं, और खेतों के नीचे अब बारूद की गंध स्थायी हो गई है। गाज़ा के किसान जो कभी जैतून और अंगूर की फसल से अपने परिवार पालते थे, अब तंबुओं में बैठे अपने बच्चों को मलबे के बीच खेलते देख रहे हैं। यह वह दृश्य है जो किसी भी संवेदनशील इंसान के भीतर आग लगा सकता है।
मानवता की हत्या — और दुनिया की शर्मनाक चुप्पी
रिपोर्ट का सबसे भयावह निष्कर्ष यह है कि यह विनाश केवल युद्ध का “साइड इफेक्ट” नहीं, बल्कि सुनियोजित अमानवीयता है। अस्पतालों, स्कूलों, मस्जिदों, जल संयंत्रों और राहत केंद्रों को निशाना बनाना यह दिखाता है कि यह संघर्ष किसी दुश्मन सेना से नहीं, बल्कि आम इंसान से लड़ा जा रहा है। गाज़ा में बच्चे अब कब्रिस्तान को खेल का मैदान समझते हैं, क्योंकि यही जगह अब उन्हें सुरक्षित लगती है।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि दुनिया कहाँ है?
संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट जारी करता है, देश बयान जारी करते हैं, मानवाधिकार संगठन रिपोर्टें छापते हैं — लेकिन मौत का सिलसिला थमता नहीं। अंतरराष्ट्रीय शक्तियाँ सिर्फ “दोनों पक्ष संयम बरतें” जैसे औपचारिक बयान देती हैं। यही चुप्पी गाज़ा के लिए सबसे बड़ा हथियार बन चुकी है।
एक सवाल पूरी मानवता से — क्या धरती का यह टुकड़ा फिर कभी हरा होगा?
रिपोर्ट के अंत में संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि यदि तात्कालिक युद्धविराम नहीं हुआ, तो यह नुकसान स्थायी हो सकता है। मलबा, प्रदूषण, जल संकट और अकाल आने वाले वर्षों में गाज़ा को जीवित शव में बदल देंगे। दुनिया जिस “पुनर्निर्माण” की बात करती है, वह शायद आने वाली दो पीढ़ियों के जीवन से भी लंबा सफर होगा। गाज़ा अब सिर्फ एक भू-राजनीतिक मुद्दा नहीं रहा — यह मानव चेतना की परीक्षा है। सवाल यह नहीं कि वहां कौन जीता या हारा, सवाल यह है कि इंसानियत वहाँ मर चुकी है और दुनिया अब भी खामोश है।