जब ‘आयरन लेडी’ ने सिखाया—भारत झुकता नहीं, सम्मान से चलता है
कहते हैं कि एक महान नेता की असली पहचान उसकी दूरदर्शिता और अखंड राष्ट्रीय स्वाभिमान में निहित होती है — और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यह बात हर मंच पर, हर राजनयिक पल में, निर्भीकता से साबित की। वह सिर्फ भारत की प्रधानमंत्री ही नहीं थीं, बल्कि भारतीय गरिमा, दृढ़ता और राष्ट्रीय संकल्प का एक जीवंत प्रतीक थीं। जिस दौर में भारत और सोवियत संघ (तत्कालीन रूस) के संबंध अपनी सबसे मज़बूत नींव पर खड़े थे, उसी दौरान इंदिरा गांधी एक अहम और निर्णायक राजनयिक दौरे पर मॉस्को पहुँचीं। भारत जैसे आज़ाद मुल्क के प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रोटोकॉल के अनुसार, सोवियत प्रधानमंत्री या कम से कम कोई शीर्ष कैबिनेट मंत्री को एयरपोर्ट पर तशरीफ़ (उपस्थित) होना चाहिए था, लेकिन जब उनका विमान उतरा, तो वहाँ उन्हें रिसीव करने के लिए कोई भी शीर्ष सोवियत अधिकारी मौजूद नहीं था। यह घटना सिर्फ एक प्रोटोकॉल चूक नहीं थी, बल्कि भारत की गरिमा को अप्रत्यक्ष रूप से ठेस पहुँचाने का एक नाज़ुक लम्हा था।
अहंकार नहीं, संकल्प: दूतावास का रुख और बच्चों के साथ खेल का अनूठा संदेश
इस अप्रत्याशित अपमानजनक स्थिति में, इंदिरा गांधी ने जो सहनशीलता और कूटनीतिक दूरदर्शिता दिखाई, वह उनकी नेतृत्व क्षमता की अभूतपूर्व मिसाल है। भारत के तत्कालीन राजदूत इंदर कुमार गुजराल (जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने) वहाँ मौजूद थे। इंदिरा गांधी ने बिना कोई हंगामा किए, या अपनी निजी नाराज़गी ज़ाहिर किए, बेहद शांत लहज़े में कहा, “कार दूतावास ले चलिए।” उन्होंने सोवियत सरकार को यह महसूस कराया कि भारत के प्रधानमंत्री का समय किसी के इंतज़ार में व्यर्थ नहीं किया जा सकता। वह सीधे भारतीय दूतावास पहुँचीं, और अपनी प्रतिष्ठा को दरकिनार करते हुए, उन्होंने दूतावास के आसपास रहने वाले भारतीय बच्चों को बुलाया।
मॉस्को की सर्द धरती पर, इंदिरा गांधी ने उन मासूम बच्चों के साथ खेलना शुरू कर दिया — मानो वह दुनिया की सबसे बड़ी कूटनीति को ठुकराकर, अपनी मातृभूमि के भविष्य के साथ अपना समय बिताना चाहती थीं। दूसरी ओर, क्रेमलिन पैलेस में उनके स्वागत समारोह की तैयारियाँ पूरी थीं, लेकिन जब घंटों बीत गए और प्रधानमंत्री नहीं पहुँचीं, तब सोवियत सरकार और उनके शीर्ष नेतृत्व को अपनी भारी राजनयिक भूल का भयंकर एहसास हुआ।
’60 करोड़ भारतीयों की गरिमा मेरे साथ चलती है’: वह ऐतिहासिक सबक
जब सोवियत प्रधानमंत्री और उनके आला अधिकारी अपनी ग़लती और शर्मिंदगी महसूस करते हुए, सम्मानपूर्वक भारतीय दूतावास पहुँचे, उन्होंने इंदिरा गांधी से माफ़ी मांगी और उनसे आग्रह किया कि वह क्रेमलिन वापस लौटकर राजनयिक कार्यक्रम को आगे बढ़ाएँ। तब भारत की ‘आयरन लेडी’ ने वह ऐतिहासिक और अटल वाक्य कहा, जो आज भी भारत की राष्ट्रीय रीढ़ की यादगार है: “मैं आपकी गलती से व्यक्तिगत रूप से बिल्कुल भी नाराज़ नहीं हूँ। लेकिन एक प्रधानमंत्री के रूप में, 60 करोड़ भारतीयों की गरिमा मेरे साथ चलती है।
उस गरिमा को ठेस पहुँचे, यह मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती।” यह बयान अहंकार या सत्ता के दंभ से नहीं निकला था, बल्कि यह शुद्ध राष्ट्रीय स्वाभिमान और राष्ट्र की गरिमा के प्रति उनके अटूट संकल्प का घोषणापत्र था। उन्होंने दुनिया की एक महाशक्ति को सिखाया कि भारत एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र है, जो सम्मान से चलता है, झुकता नहीं। यह वह दौर था जब भारत की नेता को बोलना भी नहीं पड़ता था, तो भी दुनिया उनकी मज़बूत कूटनीतिक आवाज़ को सुनती थी।