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मैदान से जेल तक: खेल-खेल में क्यों जन्म लेता है अपराध

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नई दिल्ली 17 सितम्बर 2025

खेल का असली मकसद शरीर और मन को स्वस्थ रखना, टीम भावना को मजबूत करना और समाज में एकता को बढ़ावा देना होता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि कई बार यही खेल और मस्ती अपराध में बदल गए हैं। इसकी वजह अक्सर गुस्सा, हार-जीत का अहंकार, नशा, या फिर भीड़ का बेकाबू होना रहा है। खेलते वक्त इंसान का दिमाग इतना ज्यादा भावनाओं में बह जाता है कि वह सही और गलत की सीमा भूल जाता है। यही भूल कई बार दुर्घटनाओं, हिंसा और यहां तक कि जानलेवा अपराध तक ले जाती है।

भारत में इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। साल 2006 में मेरठ के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में एक स्थानीय क्रिकेट मैच के दौरान अचानक आग लगने और भगदड़ मचने से लगभग 10 लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों घायल हुए। भीड़ का गुस्सा और अव्यवस्था ने उस खेल को मातम में बदल दिया। 2022 में मध्यप्रदेश के एक गांव में कबड्डी खेलते समय बच्चों के बीच हुआ झगड़ा इतना बढ़ा कि डंडे से वार कर एक बच्चे की हत्या कर दी गई। यही नहीं, स्कूल और कॉलेजों में रैगिंग की घटनाएं भी इसी श्रेणी में आती हैं। 2009 में पंजाब के जालंधर में एक इंजीनियरिंग छात्र आनंद कुमार की रैगिंग के दौरान मौत ने पूरे देश को हिला दिया था। यह सब “मस्ती” के नाम पर शुरू हुआ, लेकिन अंत अपराध और मौत पर जाकर खत्म हुआ।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई घटनाएं इस सच को साबित करती हैं। 1985 में ब्रुसेल्स (बेल्जियम) के हेइसल स्टेडियम में यूरोपियन कप फाइनल के दौरान लिवरपूल और युवेंटस फुटबॉल क्लबों के प्रशंसकों के बीच झगड़ा और भगदड़ में 39 लोगों की मौत हुई और 600 से अधिक घायल हुए। इसे “हेइसल डिज़ास्टर” कहा गया और यह खेल इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक है। 2010 में जर्मनी के डुइसबर्ग शहर में “लव परेड” नामक म्यूजिक फेस्टिवल में भीड़ के बेकाबू होने से 21 लोगों की मौत और 500 से अधिक घायल हुए। हालांकि यह खेल नहीं था, लेकिन यह घटना भी बताती है कि “मस्ती और मनोरंजन” कैसे पल भर में अपराध या हादसे में बदल सकते हैं।

ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे देशों में फुटबॉल मैचों के दौरान भीड़ की हिंसा आम बात रही है। 2013 में ब्राजील के एक स्थानीय फुटबॉल मैच में दर्शकों और खिलाड़ियों के बीच विवाद इतना बढ़ा कि गुस्से में रेफरी ने एक खिलाड़ी की हत्या कर दी। बाद में दर्शकों ने रेफरी को पकड़कर मार डाला। यह घटना दिखाती है कि खेल की उत्तेजना और हिंसा का मेल कितना भयावह हो सकता है।

भारत में क्रिकेट को धर्म की तरह माना जाता है, लेकिन यहां भी अपराध और गलत कामों की परछाई हमेशा मंडराती रही है। आईपीएल के दौरान कई बार सट्टेबाजी और स्पॉट फिक्सिंग के मामले सामने आए, जिनमें बड़े-बड़े खिलाड़ियों और कारोबारी घरानों के नाम उजागर हुए। यह अपराध पैसे की लालच में खेल को खेल नहीं रहने देता, बल्कि पूरी व्यवस्था को शर्मसार कर देता है। इसी तरह ऑनलाइन गेम्स जैसे “ब्लू व्हेल चैलेंज” और “पबजी” ने भी कई मासूमों की जान ली है। मुंबई, इंदौर और दिल्ली जैसे शहरों में किशोरों की आत्महत्याएं इस बात का प्रमाण हैं कि खेल और मस्ती की आड़ में कैसे अपराध और मौत छिपे बैठे रहते हैं।

इस तरह के अपराध रोकने के लिए केवल कानून काफी नहीं है, बल्कि समाज की सामूहिक जिम्मेदारी भी जरूरी है। खिलाड़ियों को छोटी उम्र से ही यह सिखाया जाना चाहिए कि खेल हार-जीत से बड़ा होता है। हारना अपमान नहीं, बल्कि सीखने का अवसर है। अभिभावकों और शिक्षकों को बच्चों को समझाना चाहिए कि मजाक और मस्ती की भी एक सीमा होती है। आयोजकों को चाहिए कि खेल के मैदानों और स्टेडियमों में सुरक्षा और अनुशासन को सख्ती से लागू करें। नशा, हिंसा, सट्टेबाजी और रैगिंग पर कानून का डंडा चलाना भी अनिवार्य है।

आखिरकार, खेल तभी तक खेल है जब तक उसमें संयम, अनुशासन और आनंद है। जैसे ही इसमें गुस्सा, लालच, भीड़ का उन्माद या नशा घुलता है, खेल अपराध में बदल जाता है। भारतीय समाज हो या वैश्विक, हर जगह यह खतरा बना हुआ है। इसलिए आज सबसे बड़ी चुनौती है कि खेल को केवल खेल ही रहने दिया जाए और मस्ती को अपराध में बदलने से रोका जाए। तभी खेल का असली उद्देश्य—स्वास्थ्य, भाईचारा और राष्ट्रीय एकता—पूरा हो पाएगा।

 

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