बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव नजर आ रहा है। आरजेडी के रवैये से नाराज़ बिहार कांग्रेस नेताओं ने पूरी स्थिति राहुल गांधी को बता दी है, और सूत्रों के अनुसार राहुल गांधी ने प्रदेश नेतृत्व की बात ध्यान से सुनी है और उन्हें पूरा समर्थन दिया है। एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने बताया कि यह पहला मौका है जब आलाकमान ने दिल्ली से दखल देने के बजाय प्रदेश नेताओं को खुली छूट दी है। राहुल गांधी ने स्पष्ट संदेश दिया है — सम्मानजनक साझेदारी स्वीकार्य है, समझौता नहीं। इसी के साथ बिहार में महागठबंधन की राजनीति अब एक निर्णायक मोड़ पर पहुँचती दिख रही है।
बिहार में कांग्रेस का नया अध्याय: आत्मनिर्भरता की ओर लौटती पुरानी पार्टी और बदलता सत्ता समीकरण
बिहार की गठबंधन राजनीति में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण और दिलचस्प अध्याय की शुरुआत हो चुकी है। कांग्रेस, जो कि पिछले लगभग एक दशक से राज्य में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेतृत्व और संगठन की परछाईं में सिमटी हुई थी, अब अपनी स्वतंत्र और सशक्त पहचान के साथ राजनीति के केंद्र में उभर रही है। वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रमों से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि आगामी 2025 विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी की रणनीति पूरी तरह से बदल चुकी है। इस बार टिकटों का अंतिम निर्णय लेने से लेकर चुनाव प्रबंधन की रूपरेखा तैयार करने तक—सभी महत्त्वपूर्ण गतिविधियां सीधे तौर पर सदाकत आश्रम स्थित कांग्रेस कार्यालय से संचालित हो रही हैं, न कि 10 सर्कुलर रोड (तेजस्वी यादव का आवास) या आरजेडी के प्रदेश कार्यालय से। यह केंद्रीकृत और स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता ही इस बात का प्रमाण है कि बिहार कांग्रेस अब किसी सहयोगी पर निर्भर रहने के बजाय संगठनात्मक और रणनीतिक रूप से आत्मनिर्भर हो चुकी है।
50 सीट भी नहीं देना चाहते थे तेजस्वी
तेजस्वी यादव शुरू से ही कांग्रेस को 50 से कम सीटें देने के पक्ष में थे और चाहते थे कि कांग्रेस के हिस्से से वीआईपी और वाम दलों को भी जगह दी जाए। लेकिन प्रदेश प्रभारी अल्लावरु ने स्पष्ट कर दिया कि अगर सीटें घटाई जाएंगी, तो दोनों दलों — आरजेडी और कांग्रेस — की सीटें अनुपातिक रूप से घटेंगी। तेजस्वी ने इस विवाद को सुलझाने के लिए राहुल गांधी से भी बात करने की कोशिश की, मगर राहुल ने कहा कि पहले के.सी. वेणुगोपाल और अल्लावरु के साथ बातचीत पूरी करें, उसके बाद ही मुलाकात संभव होगी।
कांग्रेस अपने रुख पर अडिग है, जबकि तेजस्वी 55 से अधिक सीटें देने को तैयार नहीं हैं। वह महाराजगंज और कुटुंबा की मौजूदा कांग्रेस सीटें भी चाहते हैं, जहां बिहार पीसीसी अध्यक्ष राजेश राम विधायक हैं। आरजेडी ने कांग्रेस की कई सीटों पर या तो अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं या वाम दलों के जरिए दबाव बनाने की कोशिश की है। तेजस्वी और आरजेडी ने अब तक प्रभारी अल्लावरु पर कई बार दबाव डालने की कोशिश की है, लेकिन वे अपनी सख्त स्थिति से टस से मस नहीं हुए हैं।
‘पंजा’ बना उम्मीद का प्रतीक, गठबंधन में उपेक्षित नेता कर रहे वापसी की कसक
बिहार की राजनीति में कांग्रेस का ‘पंजा’ चुनाव चिन्ह एक बार फिर से राजनीतिक उम्मीद और अवसर का प्रतीक बन गया है। पिछले चुनावों में, खासकर 2015 और 2020 विधानसभा चुनावों के दौरान, कई स्थानीय और बड़े नेता जो कांग्रेस को भविष्यहीन मानकर क्षेत्रीय दलों (जैसे आरजेडी, जेडीयू) या अन्य राष्ट्रीय दलों की ओर चले गए थे, वे अब पार्टी की वर्तमान मजबूती और स्वायत्तता को देखकर सिसक रहे हैं। यह सिसक केवल हार या जीत की नहीं है, बल्कि परिवर्तन की गूँज है। यह स्पष्ट संदेश है कि पार्टी अब किसी भी सहयोगी की ‘बैसाखी’ या ‘बी-टीम’ बनकर संतुष्ट नहीं रहना चाहती। कांग्रेस का अपने दम पर खड़ा होना न केवल उसके कार्यकर्ताओं के लिए गौरव का विषय है, बल्कि यह उन क्षेत्रीय नेताओं को भी असहज कर रहा है जो कांग्रेस को हमेशा दबाव में रखना चाहते थे। पार्टी का यह आत्मविश्वास, बिहार में जाति-आधारित राजनीति को दरकिनार कर, एक विचारधारा-आधारित राजनीति को पुनर्जीवित करने का प्रयास है।
कांग्रेस विरोधी ताकतें सक्रिय, लेकिन संगठन के भीतर नया आत्मविश्वास और स्थिरता कायम
कांग्रेस की इस बढ़ती हुई आत्मनिर्भरता को पचा पाना न तो बाहरी विरोधियों के लिए आसान है और न ही महागठबंधन के भीतर कुछ घटक दलों के लिए। पार्टी के भीतर और बाहर, दोनों ही मोर्चों पर कुछ ताकतें लगातार सक्रिय हैं जो कांग्रेस की नई लहर को रोकने या लहकाने (कमजोर करने) की कोशिश में जुटी हैं। महागठबंधन के कुछ नेता यह सपना देख रहे हैं कि कांग्रेस को पर्याप्त सीटें न मिलें या वह कमजोर होकर गठबंधन तोड़ने पर मजबूर हो, ताकि राजनीतिक समीकरण उनके मनमुताबिक (आरजेडी के प्रभुत्व वाला) बना रहे। लेकिन, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के रणनीतिकारों ने अब स्थिरता और आत्मविश्वास को पार्टी का मूल मंत्र बना लिया है। बिहार कांग्रेस अब किसी भी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा से भयभीत नहीं है, बल्कि वह अपने आंतरिक संघर्षों और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया पर गर्व करती है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी के केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार इकाई को जो स्वायत्तता दी है, उसने विरोधियों की तमाम चालों को निष्क्रिय कर दिया है।
युवाओं का साथ और नए चेहरे का उभार: अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) का संगठनात्मक बदलाव
इस बार बिहार कांग्रेस के राजनीतिक मंच पर उन पारंपरिक और पुराने चेहरों का एकाधिकार नहीं है, जो दशकों से हर चुनाव में दिखाई देते थे। पार्टी में एक बड़ा पीढ़ीगत बदलाव देखने को मिल रहा है। अखिलेश सिंह (प्रदेश अध्यक्ष), पप्पू यादव (जन अधिकार पार्टी का विलय) जैसे अनुभवी और जनाधार वाले नेता, कन्हैया कुमार जैसे मुखर युवा चेहरे, और राजेश राम जैसे संगठनात्मक रूप से मजबूत नेता पार्टी के साथ मजबूती से खड़े दिख रहे हैं। ये केवल राजनीतिक चेहरे नहीं हैं; ये युवा कांग्रेस की नब्ज़ हैं, जो जमीन पर जनता से सीधा संवाद स्थापित कर रहे हैं और पार्टी के लिए नया वोट बैंक तैयार कर रहे हैं। इस सब के पीछे सबसे बड़ी रणनीतिक शक्ति राष्ट्रीय प्रभारी कृष्णा अल्लावरू की है, जिनकी संगठनात्मक क्रांति ने बिहार कांग्रेस के ढांचे में एक नई जान फूँक दी है।
कृष्णा अल्लावरू: बिहार कांग्रेस के पुनर्जीवन के शिल्पकार और ‘बॉटम-अप’ रणनीति
एआईसीसी के राष्ट्रीय प्रभारी कृष्णा अल्लावरू की शांत, मगर प्रभावी संगठनात्मक रणनीति को बिहार कांग्रेस के पुनर्जीवन का शिल्पकार माना जा रहा है। उनकी रणनीति का मुख्य आधार ‘बॉटम-अप’ (नीचे से ऊपर) दृष्टिकोण रहा है। उन्होंने संगठन को केवल पटना स्तर पर मजबूत करने के बजाय, ज़िला और ब्लॉक स्तरों पर निष्क्रिय पड़ चुके ढांचे को सक्रिय किया। उन्होंने पुराने, स्थापित चेहरों के स्थान पर नए, ऊर्जावान और समर्पित चेहरों को आगे आने और नेतृत्व करने का अवसर दिया। इस कदम से यह स्पष्ट संदेश गया है कि कांग्रेस अब किसी भी सहयोगी या क्षेत्रीय शक्ति पर निर्भर नहीं है, बल्कि वह अपने संगठन और अपने कार्यकर्ताओं पर अटूट विश्वास रखती है। कांग्रेस के भीतर अब जो थोड़ी-बहुत ‘शिकायतें’ या असंतोष की खबरें आ रही हैं, वे वास्तव में किसी विद्रोह के नहीं, बल्कि विकास और बढ़ते राजनीतिक कद के संकेत हैं, क्योंकि हर शिकायत या प्रतिस्पर्धा के भीतर ही नई संगठनात्मक राह और बेहतर प्रदर्शन की खोज छिपी होती है।
अब कांग्रेस ‘सहयोगी’ नहीं, महागठबंधन की ‘सेंटर ऑफ ग्रेविटी’ है
बिहार की राजनीति में अब शक्ति और निर्णय के केंद्र बदल रहे हैं। जहां पहले कांग्रेस को महागठबंधन में केवल एक अधीनस्थ सहयोगी या आरजेडी की परछाईं के रूप में देखा जाता था, वहीं अब वही पार्टी धीरे-धीरे महागठबंधन की धुरी (सेंटर ऑफ ग्रेविटी) बनने की ओर अग्रसर है। यह बदलाव एक मजबूत संकेत है कि कांग्रेस अब किसी के व्यक्तिगत नेतृत्व या बाहरी आलोचना पर निर्भर नहीं है।”न राहुल गांधी को कोसने से कांग्रेस कमजोर होगी, न तेजस्वी के साथ चलने से कांग्रेस मिटेगी। कांग्रेस अब खुद अपने रास्ते पर चलने को तैयार है।” यह आत्मनिर्भरता केवल बिहार में ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस के पुनरुत्थान के लिए एक महत्त्वपूर्ण आधारशिला है, जो भारतीय राजनीति में दीर्घकालिक प्रभाव डालने की क्षमता रखती है।