लोकप्रिय लोकगायिका नेहा सिंह राठौर के खिलाफ दर्ज “देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने” जैसे अजीबोगरीब और विचित्र आरोप ने पूरे देश में आक्रोश फैला दिया है। यह मामला सिर्फ एक कलाकार या एक ट्वीट का नहीं है — यह सवाल है कि क्या अब इस देश में सरकार या राज्य एजेंसियों की आलोचना करना भी “देशद्रोह” के दायरे में आ गया है? नेहा राठौर, जिन्होंने अपने लोकगीतों के ज़रिए आम जनता की पीड़ा और सामाजिक सच्चाइयों को आवाज़ दी, अब उन्हीं आवाज़ों को दबाने के लिए अपराधी बना दी गई हैं। यह सिर्फ कानून का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा का अपमान है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में नेहा राठौर की याचिका पर विचार करने से इंकार करते हुए उन्हें “उचित मंच पर जाने” की सलाह दी। यह वही पुरानी औपचारिक पंक्ति है — कि “आप ट्रायल कोर्ट जाइए, वहीं से न्याय पाइए।” लेकिन सवाल यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट के पास संविधान से मिली असाधारण शक्तियाँ हैं — जब वह किसी भी विषय पर न्याय करने और “पूर्ण न्याय” के आदेश देने में सक्षम है — तो फिर यह शक्ति एक निर्दोष नागरिक के पक्ष में क्यों नहीं दिखाई गई? क्या यह मामला इतना छोटा था कि उस पर अदालत “incline” या “disincline” भी न करे?
आज हर दिन सुप्रीम कोर्ट Special Leave Petitions (SLPs) पर मिनटों में निर्णय कर देती है। जस्टिस जे.के. महेश्वरी, जो इस बेंच के प्रमुख न्यायाधीश हैं, रोज़ हज़ारों याचिकाओं में से कुछ को स्वीकार करते हैं और बाकी को ठुकरा देते हैं — कभी-कभी सिर्फ एक मिनट में। लेकिन जब मामला एक महिला कलाकार पर “भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने” जैसा आरोप लगाने का हो, तब वही अदालत प्रक्रियात्मक शांति में डूब जाती है। यह वही जस्टिस महेश्वरी हैं, जिन्होंने 2020 में आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए एक “गैग ऑर्डर” जारी कर मीडिया को ज़मीन घोटाले की रिपोर्टिंग से रोक दिया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज एन.वी. रमना के रिश्तेदार शामिल थे। तब अदालत ने असाधारण शक्तियों का उपयोग किया था — लेकिन अब जब संविधान की रक्षा की बात आई, तो वही शक्तियाँ मौन हो गईं।
नेहा राठौर पर लगा आरोप कि उन्होंने पहलगाम आतंकी हमले पर सोशल मीडिया पोस्ट में सरकार की नीति की आलोचना की, इतना बेहूदा है कि यह न केवल कानूनी दृष्टि से असंगत है, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Article 19) की जड़ पर चोट करता है। “भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने” जैसी धारा आमतौर पर उन मामलों में लगाई जाती है, जिनमें हथियार, हिंसा, या विद्रोह शामिल हो। तो फिर यह कैसे संभव है कि एक गायिका, जिसने केवल अपने शब्दों से प्रश्न उठाया, उस पर यह घातक धारा लगा दी गई? यह दिखाता है कि आज कानून को जनता की आवाज़ दबाने का औजार बना दिया गया है।
न्यायविदों और नागरिक समाज ने इस पर गहरी चिंता जताई है। उनका कहना है कि अगर आज नेहा राठौर जैसी आवाज़ें इस तरह खामोश की जाएंगी, तो कल कोई भी नागरिक बोलने की हिम्मत नहीं करेगा। राज्य एजेंसियों द्वारा पत्रकारों, कलाकारों, और कार्यकर्ताओं पर झूठे मामलों की बौछार एक सुनियोजित पैटर्न बन चुकी है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी केवल न्यायिक संयम नहीं, बल्कि संविधान के प्रति असंवेदनशीलता बन जाती है। जब कानून स्वयं हथियार बन जाए, तो अदालतों की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है। और जब वही अदालतें कहें कि “यह हमारा क्षेत्राधिकार नहीं,” तो नागरिक पूछने पर मजबूर हो जाते हैं — आखिर न्याय का दरवाज़ा अब खुलेगा कहाँ?
सच्चाई यह है कि यह मामला किसी कानूनी पेचीदगी का नहीं, बल्कि न्यायिक साहस की परीक्षा का था। सुप्रीम कोर्ट चाहे तो इस पूरे हास्यास्पद एफआईआर को एक मिनट में खारिज कर सकती थी। चाहे तो संबंधित पुलिस अधिकारियों को बुलाकर पूछ सकती थी कि “आपके दिमाग़ में क्या था जब आपने एक लोकगायिका पर ‘देश के खिलाफ युद्ध’ जैसी धारा लगाई?” लेकिन अदालत ने ऐसा नहीं किया। उसने प्रक्रियात्मक सुरक्षा कवच ओढ़ लिया और कहा — “आप उचित मंच पर जाएं।”
और यही सबसे बड़ा संकट है — जब लोकतंत्र का सर्वोच्च प्रहरी भी अपनी आंखें मूंद ले, तो नागरिक किससे न्याय की उम्मीद रखे? जब संविधान के रक्षक भी प्रक्रिया की आड़ में चुप रह जाएं, तो यह चुप्पी लोकतंत्र की सबसे बड़ी सजा बन जाती है।
नेहा राठौर का मामला आज एक व्यक्ति का नहीं रहा। यह इस बात का प्रतीक बन गया है कि भारत में अब असहमति ही अपराध बन गई है। जब कलाकारों, पत्रकारों और नागरिकों की आवाज़ों पर “देशद्रोह” और “वॉर अगेंस्ट इंडिया” जैसी धाराएं लगाई जाएं, तो यह किसी लोकतंत्र का नहीं, बल्कि डर के साम्राज्य का संकेत है। सुप्रीम कोर्ट ने अगर अब भी अपनी संवैधानिक भूमिका नहीं निभाई, तो आने वाले समय में कानून के नाम पर केवल सत्ता की सुविधा बचेगी — और जनता की आवाज़ इतिहास के पन्नों में दर्ज एक मौन चीख बन जाएगी।
“ये सामान्य समय नहीं हैं,” यह वाक्य अब केवल चेतावनी नहीं, बल्कि वास्तविकता बन चुका है। जब कानून हथियार बन जाए, तो न्यायिक संयम भी मिलीभगत लगता है। नेहा राठौर के खिलाफ ‘वॉर अगेंस्ट इंडिया’ का आरोप भारत के न्यायिक विवेक पर दाग़ है। यह मामला केवल एक गायिका का नहीं, बल्कि संविधान की उस आत्मा का है जो कहती है — “बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे।”