भारत के राजनीतिक इतिहास में 68 साल पहले एक ऐसा अध्याय लिखा गया था जिसने लोकतंत्र को मजबूती दी, और सत्ता को यह एहसास कराया कि वह जनता की सेवक है, मालिक नहीं। वह दौर था जब संसद में एक सांसद के सवाल से पूरी सरकार हिल जाती थी। और वह सांसद कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे — फिरोज़ गांधी, जो उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के दामाद थे। उन्होंने एक निजी कंपनी में एलआईसी (LIC) के 1.25 करोड़ रुपये के संदिग्ध निवेश का खुलासा किया था। यह रकम उस समय के लिहाज़ से बहुत बड़ी थी, और इस पर सवाल उठते ही सरकार में भूचाल आ गया। नतीजा यह हुआ कि वित्त मंत्री ने इस्तीफ़ा दिया, एलआईसी के चेयरमैन को भी पद छोड़ना पड़ा, और एक प्रमुख सचिव ने भी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए कुर्सी त्याग दी। यही था नेहरू युग का भारत — एक ऐसा भारत जहाँ सत्ता का मतलब था जवाबदेही, और सरकार का अर्थ था जिम्मेदारी।

लेकिन आज का भारत इस तस्वीर का बिलकुल उल्टा हो चुका है। आज सत्ता का मतलब है सत्ता में बने रहना, चाहे नैतिकता दम तोड़ दे या संस्थाएँ बिक जाएँ। आज सरकार में अगर किसी का नाम भ्रष्टाचार से जुड़ जाए तो जांच नहीं होती, बल्कि उस पर सवाल उठाने वालों पर कार्रवाई होती है। वही एलआईसी, जो कभी जनता के विश्वास का प्रतीक थी, आज नरेंद्र मोदी और गौतम अडानी की साझेदारी में एक राजनीतिक उपकरण बन चुकी है। मोदी सरकार ने एलआईसी से अडानी समूह में 34 हजार करोड़ रुपये का निवेश कराया, वो भी उस वक्त जब अडानी कंपनियों की साख डगमगा रही थी, विदेशी निवेशक पीछे हट रहे थे, और शेयर बाजार में उनके समूह की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठ रहे थे। लेकिन मोदी सरकार ने किसी जोखिम की परवाह नहीं की, क्योंकि यह निवेश “वित्तीय निर्णय” नहीं बल्कि “राजनीतिक सौगात” था।
यह वही अडानी हैं जिनके ऊपर हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने गंभीर आरोप लगाए थे — टैक्स चोरी, फर्जी कंपनियों के ज़रिए फंड हेराफेरी, और सरकारी ठेकों में मिलीभगत। लेकिन नरेंद्र मोदी ने उस रिपोर्ट को खारिज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने अडानी समूह की कंपनियों को सरकारी प्रोजेक्ट्स में और ज़्यादा जगह दी, एयरपोर्ट से लेकर पोर्ट तक, ऊर्जा से लेकर रक्षा क्षेत्र तक — हर सेक्टर में अडानी साम्राज्य का विस्तार हुआ। ऐसा लगा मानो भारत एक लोकतांत्रिक देश नहीं, बल्कि किसी अरबपति के साम्राज्य में तब्दील हो गया हो जहाँ प्रधानमंत्री उसकी राजनीतिक शाखा के रूप में काम कर रहा हो। यह वही स्थिति है जहाँ भ्रष्टाचार को वैध कर दिया गया है, और सार्वजनिक संस्थाओं को निजी हितों की गुलामी में धकेल दिया गया है।
विरोधाभास देखिए — 1960 के दशक में जब एलआईसी में संदिग्ध निवेश का मामला सामने आया तो तत्कालीन वित्त मंत्री ने इस्तीफ़ा दे दिया। और आज, जब एलआईसी में अडानी का 34 हजार करोड़ का निवेश होता है, तब प्रधानमंत्री इसे “आत्मनिर्भर भारत” की उपलब्धि कहकर प्रचारित करते हैं। तब शर्म थी, आज शान है। तब जनता को जवाब देना पड़ता था, आज जनता से सवाल पूछना अपराध माना जाता है। तब एक सांसद के सवाल से सरकार गिर जाती थी, आज संसद में सवाल पूछने वाले सांसदों की सदस्यता खत्म कर दी जाती है। यही है मोदीराज का “नया भारत” — जहाँ सत्ता को सवाल पसंद नहीं, और चुप्पी को देशभक्ति कहा जाता है।
एलआईसी, जो कभी “जनता का भरोसा” कहलाती थी, आज “कॉर्पोरेट भरोसे” का पर्याय बन चुकी है। यह वही संस्था है जिसमें भारत का हर आम नागरिक अपनी बचत रखता है — किसान, मजदूर, शिक्षक, कर्मचारी — सबका खून-पसीना इस संस्था में है। लेकिन मोदी सरकार ने इसे अपने मित्र की आर्थिक गिरावट को संभालने का साधन बना दिया। यह न सिर्फ जनता के पैसों का दुरुपयोग है, बल्कि लोकतंत्र के विश्वास पर हमला है। जब सरकार अपनी नीतियों को किसी अरबपति के हितों के हिसाब से ढाल लेती है, तो यह सिर्फ नीति नहीं, बल्कि राष्ट्र के भविष्य की नीलामी होती है।
यहाँ सवाल सिर्फ आर्थिक नहीं है, यह नैतिक सवाल है। फिरोज़ गांधी ने जिस देश की कल्पना की थी, वह ऐसा भारत था जहाँ सत्ता जनता से डरती थी, और जनता संस्थाओं पर भरोसा कर सकती थी। लेकिन मोदी-अडानी का भारत ऐसा भारत है जहाँ सत्ता सिर्फ पूंजीपतियों के आगे झुकती है, और संस्थाएँ जनता के खिलाफ खड़ी हो जाती हैं। संसद में अब भ्रष्टाचार का पर्दाफाश नहीं होता, वहाँ अब कॉर्पोरेट के पक्ष में कानून बनते हैं। मीडिया अब सवाल नहीं पूछता, वह विज्ञापन दिखाता है। और अगर कोई नागरिक सवाल उठा दे तो उसे “देशद्रोही” घोषित कर दिया जाता है।
फिरोज़ गांधी ने कहा था — “सरकारी संस्थाएँ जनता की संपत्ति हैं, इन्हें निजी लाभ का साधन नहीं बनने देना चाहिए।” लेकिन मोदी सरकार ने इस विचार को पलटकर रख दिया है। अब सरकारी संस्थाएँ, जनता की नहीं, बल्कि कुछ खास दोस्तों की मिल्कियत हैं। पहले नेताओं के इस्तीफे होते थे, अब अरबपतियों के शेयर बढ़ते हैं। पहले संसद में सवाल उठता था, अब प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्क्रिप्ट पढ़ी जाती है। पहले प्रधानमंत्री जनता के प्रति जवाबदेह था, अब वह केवल अपने कॉर्पोरेट मित्रों के प्रति वफादार है।
आज भारत एक चौराहे पर खड़ा है — एक रास्ता फिरोज़ गांधी के आदर्श भारत की ओर जाता है जहाँ ईमानदारी, पारदर्शिता और जिम्मेदारी सर्वोपरि थी; दूसरा रास्ता मोदी-अडानी के उस भारत की ओर जाता है जहाँ सत्ता और पूंजी का गठजोड़ राष्ट्र की आत्मा को बेच चुका है। अगर जनता अब भी चुप रही, तो अगली बार अडानी के नाम पर सिर्फ एलआईसी नहीं, बल्कि पूरा देश गिरवी रख दिया जाएगा। यह लड़ाई सिर्फ धन की नहीं, यह उस आत्मा की लड़ाई है जिसे कभी “भारत माता” कहा जाता था। फैसला अब जनता के हाथ में है — भारत फिरोज़ गांधी का रहेगा, या अडानी का बन जाएगा।
 

 


