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नकली घाट, असली नौटंकी — चुनावी मौसम में फिर शुरू हुआ मोदीजी का फोटोशूट उत्सव!

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बिहार में चुनावी बयार चल रही है और उसके साथ शुरू हो गया है वही पुराना खेल — ड्रामा, दिखावा और भावनाओं की ठगी। जैसे-जैसे वोट की तारीख नजदीक आती है, वैसे-वैसे राजनीतिक मंच एक रंगमंच बन जाता है और कुछ नेता तो उसमें नायक बनकर ऐसे अभिनय करते हैं मानो पूरी जनता उनकी कैमरे की ऑडियंस हो। फर्ज़ी क्लासरूम से लेकर यमुना घाट पर फर्ज़ी फ़िल्टर किए हुए पानी तक — मोदी ने अपने फ़ोटोशूट्स के लिए सारी हदें पार कर दी हैं।  तो कभी स्वच्छ भारत के नाम पर साफ सुथरी जगह पर चंद पत्ते रख कर झाड़ू …

अब देखिए, कांग्रेस ने एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तंज कसा है — और तंज भी ऐसा कि सोशल मीडिया हिल गया। कांग्रेस का दावा है कि छठ पूजा से पहले मोदीजी के फोटोशूट के लिए यमुना किनारे एक नया “नकली घाट” तैयार किया गया। कैमरे वालों को खास हिदायत दी गई कि “बाईं ओर से ही शूट करें”, ताकि ऐसा लगे कि मोदीजी स्वयं यमुना में पवित्र स्नान कर रहे हैं। कांग्रेस ने कहा — “भारत सरकार ने सचमुच एक कला में महारत हासिल कर ली है — दिखावा करने की कला!”

अब यह सुनकर किसी को हैरानी नहीं हुई, क्योंकि “फोटोशूट राजनीति” मोदीजी की पहचान बन चुकी है। याद कीजिए — कभी स्वच्छ भारत अभियान के दौरान सड़क पर झाड़ू लगाते हुए प्रधानमंत्री ने फोटोशूट करवाया था, बाद में पता चला कि झाड़ू पहले से साफ जगह पर चलाई गई थी। फिर गंगा आरती की वो मशहूर तस्वीरें आईं जिनमें चारों ओर चमक-दमक थी, पर पीछे की गली में वही गंदगी जस की तस थी। और कौन भूल सकता है वर्ष 2020 की लद्दाख यात्रा, जब मोदीजी के “सीमा निरीक्षण” की तस्वीरों पर सवाल उठे कि वे सैनिकों से मिल रहे थे या “कैमरे के लिए पोज़” दे रहे थे?

कांग्रेस का कहना है कि यह सब एक ही पैटर्न का हिस्सा है — “मोदी की नौटंकी ब्रिगेड”। कभी खुद को किसान के रूप में पेश करना, कभी फौजी अंदाज़ में वर्दी पहनना, कभी मंदिरों में दीप जलाते हुए दिखना — सबकुछ चुनावी माहौल में “भावनाओं की ब्रांडिंग” का हिस्सा है। लेकिन हकीकत यह है कि जब कैमरा बंद होता है, तो वही किसान आत्महत्या करता है, वही फौजी पेंशन के लिए तरसता है और वही भक्त बिजली बिल भरने के लिए संघर्ष करता है।

बिहार में अब चुनाव हैं, और प्रधानमंत्री का यह नकली घाट प्रसंग बिलकुल चुनावी मौसम की शुरुआत का प्रतीक बन गया है। यह दिखाता है कि राजनीति अब विकास के मुद्दों से ज़्यादा ‘सेट डिज़ाइन और कैमरा एंगल’ पर टिक गई है। जनता रोजगार, महंगाई और शिक्षा की बात करती है, लेकिन सत्ता पक्ष कैमरे के सामने बस “भावनाओं की लाइटिंग” ठीक करने में जुटा रहता है।

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि मोदीजी ने सत्ता को एक “मंच” में बदल दिया है — और जनता को “दर्शक” बना दिया है। चुनावी रैलियों से लेकर मंदिर यात्राओं तक, हर कदम पर कैमरे का एंगल तय होता है, एक्सप्रेशन रिहर्सल के बाद आते हैं, और फिर राष्ट्रभक्ति की बैकग्राउंड म्यूज़िक जोड़ दी जाती है। यही कारण है कि विपक्ष इसे “राजनीति नहीं, प्रचार की नौटंकी” कहता है।

बिहार का यह चुनाव सिर्फ़ वोटों का नहीं, विश्वास बनाम भ्रम का मुकाबला है। जब यमुना के किनारे नकली घाट बनाए जाएं और जनता के सामने उसे “आस्था का प्रतीक” बताया जाए, तो सवाल उठना लाज़मी है —क्या अब भारत में राजनीति का भविष्य कैमरे की दिशा से तय होगा या सच्चाई की दिशा से?

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