नई दिल्ली / पटना 8 अक्टूबर 2025
बिहार SIR (Special Investigation Review) से जुड़े मामले ने आज सुप्रीम कोर्ट में नया मोड़ ले लिया, जब शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग से सख्त लहजे में जवाब मांगा कि आखिर बिहार की मतदाता सूची में अचानक 21 लाख नए वोटर कहां से आ गए? यह सुनवाई केवल एक राज्य के चुनाव का मसला नहीं, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक तंत्र की पारदर्शिता और निष्पक्षता की बुनियाद से जुड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ संकेत दिया कि लोकतंत्र में चुनाव आयोग जैसे संस्थानों का जवाबदेह रहना अनिवार्य है, वरना जनता का विश्वास डगमगा जाएगा।
सुनवाई के दौरान जस्टिस की बेंच ने चुनाव आयोग के वकीलों से तीखे सवाल पूछे। कोर्ट ने कहा, “21 लाख नए नाम जोड़े गए हैं — क्या यह महज़ जनगणना का परिणाम है या इसके पीछे कुछ और?” इस सवाल पर चुनाव आयोग के वकील ने कुछ तकनीकी और उलझाने वाले जवाब देने की कोशिश की, लेकिन अदालत का धैर्य जवाब दे गया। जस्टिस ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “यह मामला मात्र आंकड़ों का नहीं है, यह लोकतंत्र की नींव का मामला है। 21 लाख वोटर हवा में नहीं उतरते, न ही वे अचानक धरती से उग आते हैं। हमें जानना होगा कि इन वोटरों का स्रोत क्या है।” अदालत ने यह भी याद दिलाया कि आयोग पहले ही पुरानी और नई दोनों वोटर लिस्ट कोर्ट में जमा कर चुका है, तो फिर अब पारदर्शिता से बचने की कोशिश क्यों हो रही है।
सुप्रीम कोर्ट के इस सवाल ने न केवल आयोग को असहज किया बल्कि पूरा न्यायालय यह समझने लगा कि चुनावी प्रक्रिया के नाम पर कहीं न कहीं अंधेरे में कुछ खेला जा रहा है। आयोग की ओर से यह तर्क दिया गया कि “चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, इसलिए अब कोई हस्तक्षेप उचित नहीं होगा।” इसके साथ ही यह भी कहा गया कि “इस मामले में कोई औपचारिक शिकायतकर्ता नहीं है।” लेकिन कोर्ट ने इस दलील को पूरी तरह खारिज कर दिया और कहा कि “जब मामला जनहित से जुड़ा है, तब शिकायतकर्ता की अनुपस्थिति कोई बहाना नहीं बन सकती।” अदालत ने सख्त लहजे में कहा कि आयोग की यह बात अपने आप में लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाने जैसी है। न्यायपालिका ने साफ कर दिया कि पारदर्शिता से बचने वाला कोई भी संस्थान जनता का विश्वास खो देता है, और यह लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
चुनाव आयोग का जवाब न केवल कमजोर था बल्कि उससे यह भी झलकने लगा कि कहीं न कहीं संस्थान खुद इस मामले को तूल देने से डर रहा है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि आयोग की यह “रक्षात्मक मुद्रा” बताती है कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है। अगर सब कुछ सही होता तो आयोग इतनी झिझक नहीं दिखाता, बल्कि खुलकर सभी आंकड़े अदालत के सामने रख देता। लेकिन उसकी चुप्पी ने कई संदेह और गहरा दिए हैं।
इसी दौरान अदालत में उपस्थित याचिकाकर्ता वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने आयोग की इस भूमिका पर कड़ी आपत्ति जताई और तीखा पलटवार किया। उन्होंने कहा, “चुनाव आयोग बार-बार नियमों की आड़ में पारदर्शिता से भाग रहा है। कहिए कितनी लिस्ट चाहिए, हम सब पेश कर देंगे। लेकिन देश को यह जानने का अधिकार है कि यह 21 लाख वोटर कौन हैं, कहां से आए हैं, और क्या यह किसी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हैं।”
प्रशांत भूषण के इस बयान के बाद अदालत में कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया। चुनाव आयोग की कानूनी टीम इस सवाल का जवाब नहीं दे सकी और चुप्पी साध गई। अदालत ने इसी क्षण निर्णायक रुख अपनाते हुए निर्देश दिया कि चुनाव आयोग नई वोटर लिस्ट की पूरी प्रति अदालत में पेश करे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर सब कुछ पारदर्शी है, तो इसे साबित करने में डर कैसा?
यह सुनवाई एक बार फिर यह सिद्ध करती है कि भारत में न्यायपालिका ही वह स्तंभ है जो सत्ता और संस्थानों की जवाबदेही को जीवित रखे हुए है। जब चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थान पर भी संदेह उठने लगें, तो यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए बेहद चिंताजनक संकेत है। बिहार के चुनाव केवल एक राज्य की राजनीति नहीं, बल्कि यह पूरे देश के लिए एक लोकतांत्रिक परीक्षा बन चुके हैं — जहां सवाल यह है कि क्या वोट वास्तव में जनता के हाथ में हैं, या वे किसी और की गणना में फंसे हैं।
यह भी समझना जरूरी है कि इस 21 लाख वोटरों का मुद्दा कोई छोटा मामला नहीं है। बिहार जैसे घनी आबादी वाले राज्य में इतनी बड़ी संख्या में नए वोटरों का जुड़ना या गायब होना, सत्ता की दिशा बदल सकता है। विपक्षी दलों और नागरिक संगठनों का कहना है कि यह “संविधान के अनुच्छेद 324” के तहत चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सीधा हमला है। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने नई वोटर लिस्ट मांगी है, तो जनता की निगाहें इस पर टिकी हैं कि आयोग आखिर क्या पेश करता है — सच या बहाना।