लेखक : डॉ० रैहान अख्तर कासमी | असिस्टेंट प्रोफेसर, फैकल्टी ऑफ रिलीजियस स्ट्डीज | अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ | अलीगढ़ 2 सितंबर 2025
हर राष्ट्र की प्रगति का पैमाना सिर्फ ऊँची-ऊँची इमारतें, औद्योगिक विकास या विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अद्भुत आविष्कार नहीं होते हैं, बल्कि असली आधार उसकी बौद्धिक गहराई, नैतिक मूल्य और सांस्कृतिक विरासत होती है। इतिहास गवाह है कि जब तक कोई राष्ट्र अपनी बौद्धिक और साहित्यिक परंपरा से जुड़ा रहता है, तब तक वह न सिर्फ दुनिया को मार्गदर्शन प्रदान करता है बल्कि अपने लोगों में आत्मविश्वास और जीवन के उद्देश्य की चेतना भी जगाता है। लेकिन जब यही राष्ट्र अपने अतीत और संस्कृति से कट जाता है तो चाहे वह बाहरी तौर पर प्रगति हासिल कर ले, लेकिन उसके लोग अंदर से खोखले और दिशाहीन हो जाते हैं। यही सवाल आज भारत के सामने है। क्या केवल आर्थिक दौड़ और वैज्ञानिक आविष्कार ही इसे वैश्विक नेतृत्व के मुकाम तक पहुँचा देंगे या फिर इसे अपनी सांस्कृतिक चेतना और बौद्धिक आधारों की ओर भी लौटना होगा?
इस आधुनिक दौर में शिक्षा के मायने सिर्फ “डिग्री” और “हुनर” तक सीमित कर दिए गए हैं, जबकि शिक्षा का असली सार इंसान के व्यक्तित्व निर्माण और उसके भीतर सांस्कृतिक मूल्यों को स्थापित करना है। अगर शिक्षा इंसान को सिर्फ रोज़गार तक पहुँचा दे मगर उसे अपने समाज की आत्मा, अपने इतिहास और अपनी सभ्यता से अनजान रखे तो यह प्रगति अधूरी और बेमकसद हो जाती है। एक ऐसा समाज जिसकी नई पीढ़ी अपनी जड़ों से कट जाए, वह अपनी पहचान खो बैठता है और दूसरों की नकल में अपना अस्तित्व मिटा देता है। इसलिए आज देश के शैक्षिक परिदृश्य में यह सवाल अत्यंत महत्वपूर्ण है कि वह किस तरह अपनी नई पीढ़ी को आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी से लैस करते हुए भी अपनी सांस्कृतिक विरासत और नैतिक आधारों से तालमेल बिठाए रखे।
इसी बौद्धिक पृष्ठभूमि में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का हाल ही में “संघ के सौ साल के सफर” के अवसर पर दिया गया भाषण और इंटरव्यू अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे अपनी बातचीत में बार-बार इस मुद्दे को उजागर करते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ जानकारी देना नहीं बल्कि इंसान को पूर्ण “मनुष्य” बनाना है। वे कहते हैं कि अगर शिक्षा संस्कार (मूल्यों) से खाली हो तो यह इंसान को मशीन के पुर्जे की तरह बना देती है, लेकिन अगर इसमें मूल्य और सांस्कृतिक चेतना शामिल हों तो यही शिक्षा इंसान को रोशनी का दीपक और समाज का मार्गदर्शक बना देती है। यही वह बात है जो भारत की बौद्धिक और शैक्षिक दिशा तय करती है।
शिक्षा और मूल्यों का तालमेल: शिक्षा महज शब्दों और वाक्यों की रटंत का नाम नहीं है बल्कि वह एक निरंतर प्रक्रिया है जिसमें इंसान के दिमाग को चमक और दिल को भोजन मिलता है। असली शिक्षा वह है जो इंसान को सिर्फ कागज़ी सर्टिफिकेट का मालिक न बनाए बल्कि नैतिकता, चरित्र और सामाजिक ज़िम्मेदारी की मूरत बनाए। अगर शिक्षा इंसान को संस्कार, सांस्कृतिक चेतना और मूल्यों के साथ तालमेल न बिठाए तो वह आधे जलते दीये की तरह है, जो पल भर को रोशनी तो देता है लेकिन अपने आप को जलाकर राख कर डालता है। मोहन भागवत भी इसी पहलू पर रोशनी डालते हैं। उनके मुताबिक भारत की शैक्षिक संरचना तब तक अधूरी है जब तक वह संस्कार को अपना आधार न बनाए। उनकी राय है कि विदेशी शासकों ने ऐसा सिस्टम लागू किया जो सिर्फ गुलामी की मानसिकता पैदा करता था।
इस शिक्षा प्रणाली ने इंसान को नौकरी के लायक तो बनाया मगर जीवन के बड़े मकसद से बेखबर कर दिया। यही वजह है कि आज भी हमारे संस्थानों में एक “गुलामाना रवैया” झलकता है, जिसमें छात्रों को उनकी जड़ों, उनके इतिहास और उनकी सांस्कृतिक पहचान से काट दिया जाता है। इसके उलट शिक्षा का असली काम यह होना चाहिए कि वह व्यक्ति में अपनी पहचान पर गर्व पैदा करे। जब बच्चा यह सीखता है कि उनके पूर्वजों ने दुनिया को वेदांत, योग, दर्शन, साहित्य और विज्ञान की बेशकीमती सेवाएं दी हैं तो उसमें आत्मविश्वास पनपता है। संस्कार से खाली शिक्षा एक ऐसे मकान की तरह है जिसकी नींव खोखली हो।
बाहरी चमक-दमक के बावजूद वह ज़रा सी आँधी में ज़मींदोज़ हो जाता है। भागवत इस पहलू पर भी ज़ोर देते हैं कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति अपनी जगह खुशी की बात है, लेकिन अगर यह शिक्षा संस्कार से खाली हो तो इसके नतीजे भयानक हो सकते हैं, मिसाल के तौर पर पहले इंसान मोबाइल फोन का इस्तेमाल करता था, मगर अब मोबाइल इंसान का इस्तेमाल करने लगा है। मतलब यह कि अगर शिक्षा इंसान को तकनीक का सही इस्तेमाल न सिखाए तो तकनीक उस पर हावी हो जाती है। इससे बचने के लिए शिक्षा का संस्कार से जुड़ा होना ज़रूरी है ताकि इंसान हर आविष्कार का इस्तेमाल अपनी भलाई के लिए करे न कि अपने पतन के लिए।
संस्कृति और साहित्यिक विरासत: किसी राष्ट्र की असली पहचान उसकी राजनीतिक ताकत या सैन्य शक्ति से नहीं बल्कि उसकी सांस्कृतिक विरासत और साहित्यिक परंपरा से होती है। यह वह पूंजी है जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती है और आने वाली पीढ़ियों के लिए रोशनी और मार्गदर्शन का सामान मुहैया कराती है। भाषाएं, कहानियां, मुहावरे, कविता और दास्तानें किसी समाज की आध्यात्मिक डोर हैं जो उसे उसकी जड़ों से जोड़े रखती हैं।
मोहन भागवत अपनी बातचीत में इस पहलू पर व्यक्त करते हैं कि भारत की मौजूदा शिक्षा नीति ने नई पीढ़ी को पश्चिमी साहित्य और वामपंथी विचारधाराओं की तरफ तो आकर्षित किया है मगर अपने साहित्यिक खज़ाने से बेखबर कर दिया है। वे कहते हैं कि अंग्रेजी उपन्यास और पश्चिमी इतिहास पढ़ने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अगर इसके साथ-साथ रामायण, महाभारत, उपनिषद और प्रेमचंद जैसे लेखकों की कहानियों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो यह पीढ़ी अपनी ही बुनियादों से अनजान हो जाएगी। भारत की साहित्यिक परंपरा इतनी विस्तृत और गहरी है कि इसमें हर पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन और हौसला छुपा है।
रामायण और महाभारत सिर्फ धार्मिक कथाएं नहीं बल्कि नैतिक दर्शन, राजनीतिक समझ और इंसानी भावनाओं का आईना हैं। उपनिषदों में वह चिंतन मिलता है जो इंसान को ब्रह्मांड के साथ तालमेल बिठाता है। सदियों में अलग-अलग भाषाओं में जो काव्य और गद्य साहित्य रचा गया वह भारत की आत्मा की आवाज़ है। भागवत इस बात पर ज़ोर देते हैं कि स्कूल और यूनिवर्सिटीज़ छात्रों को पश्चिमी साहित्य पढ़ाएं मगर इसके साथ-साथ अपनी परंपराओं से भी रूबरू कराएं। बच्चे अगर “चार्ल्स डिकेंस” को पढ़ें तो साथ ही “प्रेमचंद” को भी पढ़ें, अगर “शेक्सपियर” से वाकिफ हों तो साथ में “कालिदास” को भी जानें। यह संतुलन ही राष्ट्र को आगे बढ़ने और अपनी विशिष्टता कायम रखने की गारंटी है।
संस्कृत और वैदिक गुरुकुल का स्थान: संस्कृत सिर्फ एक प्राचीन भाषा ही नहीं बल्कि भारत की बौद्धिक और आध्यात्मिक परंपरा की असली बुनियाद है। इस भाषा के ज़रिए वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत और दर्शन के अनगिनत खज़ानों ने जन्म लिया। मोहन भागवत इस सच्चाई पर ज़ोर देते हैं कि अगर नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ना है तो संस्कृत की शिक्षा ज़रूरी है। लेकिन वे यह भी कहते हैं कि इसे महज एक ज़रूरी विषय बना देना काफी नहीं है, बल्कि छात्रों में इसकी दिलचस्पी पैदा करना ज़रूरी है। इसी तरह वैदिक गुरुकुल की शिक्षा प्रणाली भारत की प्राचीन आध्यात्मिक और सामाजिक माहौल की बेहतरीन मिसाल है। इस प्रणाली में शिक्षा सिर्फ किताबी नहीं थी बल्कि जीवन के हर पहलू से जुड़ी हुई थी। विद्यार्थी गुरु के साये में न सिर्फ वेद और शास्त्र पढ़ते थे बल्कि नैतिकता, आत्म-नियंत्रण, सेवा और व्यावहारिक हुनर भी सीखते थे।
भागवत का कहना है कि आज के दौर में भी गुरुकुल मॉडल बेहद कारगर हो सकता है, अगर उसे आधुनिक ज़रूरतों के साथ तालमेल बिठा दिया जाए। वे कहते हैं कि गुरुकुल की असली रूह यह थी कि शिक्षा को जीवन से अलग न किया जाए। वहां सिर्फ किताबें पढ़ाने पर ज़ोर नहीं था बल्कि व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास मकसद था। संगीत, ललित कलाएं, योग, शारीरिक व्यायाम, यहाँ तक कि घरेलू ज़िम्मेदारियों की समझ भी शिक्षा का हिस्सा थी। भागवत के मुताबिक आज की शिक्षा प्रणाली में यही कमी है कि वह दिमाग को तो जानकारियों से भर देती है लेकिन चरित्र को खाली छोड़ देती है।
नई शिक्षा नीति और भारतीय बौद्धिक परंपरा: नई शिक्षा नीति महज एक शैक्षिक सुधार योजना नहीं बल्कि एक बौद्धिक आंदोलन है जो भारत की शैक्षिक दिशा को गुलामी के दौर के बोझ से निकालकर अपनी असली पहचान की तरफ ले जाना चाहती है। इस नीति में पहली बार यह बात मानी गई है कि शिक्षा को महज रोज़गार के लिए हुनर सिखाने तक सीमित नहीं रखा जा सकता बल्कि इसमें सांस्कृतिक चेतना, संस्कार और बहुआयामी व्यक्तित्व निर्माण शामिल होना चाहिए।
भारतीय बौद्धिक परंपरा बेहद व्यापक है। इसमें सिर्फ धार्मिक ग्रंथ या दार्शनिक बहसें नहीं बल्कि विज्ञान, गणित, चिकित्सा, संगीत, ललित कलाएं और सामाजिक विज्ञान सब शामिल हैं। वेदों से लेकर आर्यभट्ट के गणित, सुश्रुत की सर्जरी और पतंजलि के योग तक यह परंपरा ज्ञान और शोधन की एक महान पूंजी है। भागवत की राय में इस बौद्धिक विरासत को शिक्षा का हिस्सा बनाना छात्रों को महज पाठक नहीं बल्कि ज्ञान के रचयिता बनने का हौसला देगा।
राजनीति और अखंड भारत: अखंड भारत की अवधारणा महज भौगोलिक एकता का सपना नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सोच है। इसका मकसद अतीत की राजनीतिक साम्राज्यों को दोबारा कायम करना नहीं बल्कि उस आत्मा को ज़िंदा करना है जिसने उपमहाद्वीप को सदियों तक एक साझा सांस्कृतिक घर बनाया। भागवत इस मुद्दे पर ज़ोर देकर कहते हैं कि अखंड भारत को अगर सिर्फ राजनीतिक नज़रिए से देखा जाए तो यह संकीर्ण सोच होगी, क्योंकि इसकी असली बुनियाद सांस्कृतिक रिश्तों और सामंजस्य पर टिकी है।
राजनीति के मैदान में यह अवधारणा अक्सर विवाद पैदा करती है, क्योंकि लोग इसे महज भौगोलिक विस्तारवाद समझ लेते हैं। लेकिन भागवत साफ करते हैं कि संघ का नज़रिया सत्ता या सीमाओं का नहीं बल्कि सांस्कृतिक विरासत का है। उनके मुताबिक अखंड भारत का मतलब यह है कि जिन इलाकों ने कभी संस्कृति और साहित्यिक परंपरा में योगदान दिया था, चाहे वे अलग राष्ट्र हों, लेकिन सांस्कृतिक रिश्तों की डोर से जुड़े रहें। इसी संदर्भ में भागवत संघ और भाजपा के रिश्तों पर भी बात करते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि दोनों संस्थाएं अपनी संरचना में अलग हैं लेकिन विचारधारा के स्तर पर सामंजस्य रखती हैं। संघ समाज की बौद्धिक तालीम करता है, जबकि भाजपा राजनीतिक स्तर पर उन विचारों को व्यवहारिक रूप देती है।
हिंदू-मुस्लिम एकता: संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपनी बातचीत में अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाते हुए कहा कि भारत का इतिहास और उसकी सांस्कृतिक आत्मा असल में एकता, भाईचारे और आपसी सम्मान पर टिकी है। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि जिस दिन इस्लाम इस धरती पर आया, उसी दिन से यह इस भूमि का हिस्सा है और आने वाले समय में भी हमेशा बना रहेगा। यह सोचना कि भारत से इस्लाम को खत्म कर दिया जाए या यह धर्म यहाँ न रहे, दरअसल संकीर्ण सोच और हकीकत से इनकार है, और यह हिंदू दर्शन के भी बिल्कुल खिलाफ है।
उन्होंने कहा कि असली हिंदू चिंतन वह है जो सबको साथ लेकर चलने पर यकीन रखती है, जो सहिष्णुता, सहनशीलता, सामंजस्य और आपसी सहयोग की सीख देती है। भागवत के मुताबिक यह देश सिर्फ हिंदुओं या सिर्फ मुसलमानों का नहीं, बल्कि हम सबका साझा वतन है, और इसकी महानता तभी कायम रह सकती है जब हिंदू और मुसलमान दोनों एक-दूसरे पर भरोसा करें, नफरत को पीछे छोड़ें और एकजुटता की भावना को बढ़ावा दें। दूसरे शब्दों में उनका मतलब यह था कि भारत की ताकत उसकी अनेकता में एकता है।
यहाँ अलग-अलग धर्म, भाषाएं और संस्कृतियाँ सदियों से एक साथ पनपती आई हैं और यही विविधता भारत को दुनिया भर में एक अनूठी मिसाल बनाती है। इसलिए यह सोचना कि किसी एक धर्म को मिटाया जा सकता है या किसी समुदाय को कमज़ोर किया जा सकता है, असल में इस देश की जड़ों को काटने के बराबर है। मोहन भागवत ने ज़ोर देकर कहा कि अगर हम भारत को ताकतवर, खुशहाल और शांतिपूर्ण देखना चाहते हैं तो हमें नफरत और अविश्वास को छोड़कर आपसी प्यार, न्याय और भाईचारे के सिद्धांतों को अपनाना होगा। हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर ही भारत के भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं, क्योंकि दोनों मिलकर इस धरती के रक्षक और वारिस हैं। यही वह सोच है जो इस देश को सदियों से जिंदा रखे हुई है और यही सोच आने वाली पीढ़ियों के लिए रोशनी का दीपक बनेगी।
प्रशासन और सामाजिक ढाँचे में बदलाव: प्रशासन किसी भी देश की रीढ़ की हड्डी है। लेकिन अगर यह ढाँचा वक्त और हालात के मुताबिक न ढले तो यह सहारा बनने की बजाय बोझ में तब्दील हो जाता है। भारत का प्रशासनिक सिस्टम अब भी काफी हद तक औपनिवेशिक दौर की विरासत ढो रहा है। मोहन भागवत इस पहलू पर आलोचना करते हुए मिसाल देते हैं कि कैसे एक अधिकारी को गर्मी के मौसम में सूट और टाई पहनने पर मजबूर किया गया, हालांकि स्थानीय पोशाक ज़्यादा मुफीद थी।
वे कहते हैं कि प्रशासन को अपनी सांस्कृतिक हकीकतों के मुताबिक सिद्धांत बनाने चाहिए। सामाजिक ढाँचे में भी यही बात लागू होती है। अगर समाज विदेशी आदतों को तरजीह दे और अपनी रीति-रिवाजों को छोड़ दे तो धीरे-धीरे उसकी पहचान मिटने लगती है। भागवत के मुताबिक हमें पश्चिम से सीखना चाहिए मगर अपनी सभ्यता को पीछे डालकर नहीं।
संक्षेप में! किसी भी समाज की बचाव और प्रगति सिर्फ आर्थिक विकास या वैज्ञानिक आविष्कारों से मुमकिन नहीं है, बल्कि इसके लिए एक मज़बूत बौद्धिक और सांस्कृतिक बुनियाद की ज़रूरत होती है।
भागवत की बातचीत का मुख्य मुद्दा यही है कि भारत को अपनी जड़ों से जुड़े बिना असल मायनों में आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। अखंड भारत का सपना इसी बौद्धिक और सांस्कृतिक पुनरुत्थान से जुड़ा है। यह सपना सीमाएं बदलने का नहीं बल्कि दिलों को जोड़ने और आत्माओं को एक करने का है। शिक्षा, प्रशासन और राजनीति अगर इस विचारधारा के साथ तालमेल बिठा लें तो भारत एक ऐसी ताकत बन सकता है जो दुनिया को सिर्फ अर्थव्यवस्था या सैन्य शक्ति से नहीं बल्कि अपनी सांस्कृतिक रोशनी से नेतृत्व देगा। इस तरह अगर गौर किया जाए तो भागवत की बातें महज एक भाषण नहीं बल्कि एक बौद्धिक घोषणापत्र है जो भारत के निवासियों को उनकी असली पहचान की तरफ बुलाता है।