सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा है कि आधार कार्ड को पहचान के लिए 12वें दस्तावेज़ के रूप में स्वीकार करना अनिवार्य होगा। यह कोई नई बात नहीं थी—लगभग हर भारतीय के पास आधार मौजूद है। लेकिन इसके बावजूद चुनाव आयोग इसे सूची से बाहर रखकर जनता को परेशान करता रहा। अदालत की फटकार ने साबित कर दिया कि आयोग मतदाताओं के अधिकारों को सुविधा देने के बजाय उलझाने का काम कर रहा था। सवाल यह है कि आखिर क्यों आयोग आधार जैसे सार्वभौमिक दस्तावेज़ को मान्यता देने से बच रहा था?
नागरिकता और पहचान को मिलाने की कोशिश
अदालत ने बेहद सख़्त शब्दों में कहा कि आधार पहचान का साधन है, नागरिकता का प्रमाण नहीं। फिर भी चुनाव आयोग बार-बार इसे लेकर भ्रम फैलाता रहा। यह रवैया दर्शाता है कि आयोग या तो अपनी भूमिका को लेकर गंभीर नहीं है या फिर जानबूझकर नागरिकता और पहचान को मिलाकर करोड़ों वोटरों को फँसाने की कोशिश कर रहा था। सुप्रीम कोर्ट की स्पष्ट टिप्पणी आयोग की कार्यशैली पर गहरी चोट है।
65 लाख वोटरों को क्यों हटाया गया?
सबसे बड़ा सवाल यह है कि आयोग ने बिहार के ड्राफ्ट रोल से करीब 65 लाख नाम क्यों गायब कर दिए? सुप्रीम कोर्ट ने जब यह सूची सार्वजनिक करने का आदेश दिया, तभी जाकर मामला खुला। अगर अदालत बीच में हस्तक्षेप न करती, तो लाखों लोग वोट के अधिकार से वंचित रह जाते। आयोग ने इसे “तकनीकी प्रक्रिया” कहकर टालने की कोशिश की, लेकिन सच यह है कि यह जनता के अधिकारों पर सीधा हमला था।
पारदर्शिता की कमी और जनता के साथ छल
चुनाव आयोग को लोकतंत्र का प्रहरी माना जाता है, लेकिन उसकी कार्यशैली ने पारदर्शिता पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। न तो समय पर दस्तावेज़ों की सूची स्पष्ट की गई और न ही हटाए गए वोटरों के नाम और कारण खुले तौर पर बताए गए। अदालत ने जबरन आदेश देकर आयोग को पारदर्शिता अपनाने पर मजबूर किया। यह दर्शाता है कि आयोग जनता का भरोसा खो चुका है और केवल न्यायपालिका की नज़र में आने पर ही सक्रिय होता है।
जनता विरोधी रवैये की पोल
आयोग का रवैया लगातार जनता विरोधी साबित हुआ है। शुरुआत में सख़्त समय सीमा और काग़ज़ी औपचारिकताओं का हवाला देकर आम मतदाता को हतोत्साहित किया गया। बाद में अदालत के दबाव में आकर आयोग को दस्तावेज़ बाद में जमा करने की छूट देनी पड़ी। यह स्पष्ट करता है कि अगर सुप्रीम कोर्ट न होता तो आयोग लोकतंत्र को नागरिकों से छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
लोकतंत्र पर मंडराता ख़तरा
चुनाव आयोग की इस कार्यप्रणाली ने लोकतंत्र की नींव को हिला दिया है। अगर देश के करोड़ों लोगों को पहचान और मताधिकार से वंचित किया जाएगा, तो यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि एक सुनियोजित चुनावी हेराफेरी होगी। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप स्वागतयोग्य है, लेकिन सवाल यह है कि बार-बार अदालत को क्यों हस्तक्षेप करना पड़ रहा है? क्या चुनाव आयोग अब अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने में सक्षम नहीं रह गया है?