लेखक: डॉ. शालिनी अली, समाजसेवी
नई दिल्ली 30 अगस्त 2025
दहेज निषेध अधिनियम 1961: महिलाओं की सुरक्षा के लिए पहला कड़ा कदम
1961 में लागू दहेज निषेध अधिनियम (Dowry Prohibition Act, 1961) ने महिलाओं को उनके मौलिक अधिकारों के अंतर्गत सुरक्षा प्रदान करने के लिए पहला ठोस कानून पेश किया। यह अधिनियम समाज को स्पष्ट संदेश देता है कि दहेज लेना या देना अब सिर्फ सामाजिक कुप्रथा नहीं, बल्कि कानूनी अपराध है। अधिनियम के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति दहेज देता, लेता या इसके लिए उकसाता है, तो उसे कम से कम पांच वर्षों की जेल और पंद्रह हजार रुपये या दहेज की कुल कीमत जितने जुर्माने की सजा भुगतनी होगी। यह कानून स्पष्ट करता है कि महिलाओं की सुरक्षा अब प्राथमिकता है, और कोई भी व्यक्ति अपने हवस या लालच के लिए महिला का जीवन तबाह नहीं कर सकता।
Section 304 B: दहेज हत्या की सजा का कठोर दायरा
1986 में हुए संशोधन के तहत भारतीय दंड संहिता में दहेज हत्या (Dowry Death) का नया अपराध पेश किया गया। Section 304-B (2) के अनुसार, जो भी दहेज हत्या का अपराध करेगा, उसे कम से कम सात वर्षों की जेल और अधिकतम आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी। यह अपराध संज्ञेय, गैर-जमानती और गैर-समझौते योग्य है। इसका मतलब यह है कि समाज और अदालत दोनों ने यह तय किया है कि महिलाओं के खिलाफ दहेज हत्या जैसी जघन्य घटनाओं में कोई नरमी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
Section 304 B के कड़े प्रावधान: न्याय की स्पष्ट रूपरेखा
Section 304-B के अंतर्गत कई कड़े प्रावधान हैं जो इसे महिलाओं के लिए सबसे प्रभावी सुरक्षा कवच बनाते हैं। इसमें कहा गया है कि महिला की मृत्यु साधारण परिस्थितियों के विपरीत, जैसे जला कर, शारीरिक चोट या अन्य अत्यधिक परिस्थितियों में हुई हो। मृत्यु शादी के सात वर्षों के भीतर हुई हो, और महिला को अपने पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता या उत्पीड़न झेलना पड़ा हो। यह उत्पीड़न या क्रूरता दहेज की मांग से संबंधित हो या महिला की मृत्यु से थोड़े समय पहले होनी चाहिए। इन प्रावधानों का उद्देश्य केवल अपराधियों को सजा देना नहीं है, बल्कि समाज में महिलाओं की गरिमा और जीवन की सुरक्षा सुनिश्चित करना है।
न्याय में अस्पष्टताएँ और कानूनी चुनौतियाँ
कई मामलों में अदालतों ने “मृत्यु के तुरंत पहले” की व्याख्या को बहुत संकीर्ण लिया, जिससे महिलाओं के लिए न्याय पाना कठिन हो गया। इसका मतलब यह हुआ कि महिला को मृत्यु के पलों पहले उत्पीड़न झेलना पड़ा हो, जबकि वास्तविक जीवन में उत्पीड़न कई बार सतत और मानसिक होता है। इसके अलावा, “साधारण परिस्थितियों के विपरीत” शब्द भी अस्पष्ट था, जिससे न्यायालय अक्सर शारीरिक उत्पीड़न पर ही ध्यान केंद्रित करता रहा, जबकि मानसिक उत्पीड़न और लगातार दबाव को अनदेखा कर दिया गया। इन अस्पष्टताओं ने कई दहेज हत्या के मामलों को कानूनी जाल में फंसाया और अपराधियों को असहज स्थिति में छोड़ दिया।
सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय: न्याय की नई दिशा
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय में साफ निर्देश दिए कि “मृत्यु के तुरंत पहले” का मतलब यह नहीं कि महिला को मृत्यु के कुछ ही पलों पहले उत्पीड़न झेलना पड़ा हो। अदालत ने स्पष्ट किया कि उत्पीड़न और महिला की मृत्यु के बीच समीप और जीवित संबंध होना चाहिए, यानी उत्पीड़न का प्रभाव सीधे उसकी मृत्यु से जुड़ा होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि उत्पीड़न लगातार और निरंतर होना चाहिए — शारीरिक या मानसिक — ताकि मृतका का जीवन इतना कठिन हो जाए कि आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाए। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि यह अनुमान (presumption) पलटा भी जा सकता है, यदि आरोपी यह साबित कर सके कि Section 304-B के तत्वों का पालन नहीं हुआ।
दहेज हत्या पर कानून की कठोर कार्रवाई
दहेज हत्या के मामलों में Section 304-B महिलाओं के लिए सबसे कठोर और प्रभावशाली प्रावधान है। यह कानून समाज को स्पष्ट संदेश देता है कि दहेज के लिए महिलाओं का उत्पीड़न बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हाल के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने यह सुनिश्चित किया है कि मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न दोनों कानूनी दायरे में शामिल हैं और अपराधियों को अब कोई रियायत नहीं मिलेगी। यह कानून और न्यायपालिका का संदेश है कि महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा सर्वोपरि है, और समाज में दहेज और महिलाओं के खिलाफ अपराधों को सख्ती से खत्म करने का समय आ गया है।
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